जनता परेशान फिर भी प्रदूषण पर राजनेता मौन क्यों हैं?
दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण से जनता परेशान है, फिर भी यह राजनीतिक मुद्दा क्यों नहीं बन पा रहा है.

दिल्ली में प्रदूषण की फोटोः पीटीआई
आप रास्ते पर पैदल चल रहे हों, ऑटो रिक्शा में जा रहे हों या घर में बैठे हों, आपको अचानक से किसी के खांसने की आवाज़ सुनाई पड़ जाएगी। इस वक्त यह काफी सामान्य बात हो चुकी है। दिल्ली में प्रदूषण इतना है कि लोगों को खांसी की शिकायत हो रही है, आंखों में जलन हो रही है और कुछ लोगों को तो मितली या उल्टी की भी शिकायतें हो रही है। पिछले दिनों प्रदूषण की वजह से कुछ लोगों को अस्पतालों तक में भर्ती कराना पड़ा।
सरकार ने संज्ञान लिया और GRAP-3 लागू कर दिया। ग्रेप सरकार तब लागू करती है, जब उसे दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण के स्तर को बढ़ने से रोकना होता है। लेकिन फायदा तो कुछ हुआ नहीं, शायद होना भी नहीं था क्योंकि ज़मीनी स्तर पर जिस तरह से काम किया जाना चाहिए था उस तरह से काम नहीं किया गया। नतीजा यह हुआ कि उसके कुछ दिन बाद ही सोमवार को सरकार को GRAP-4 लागू करने की घोषणा करनी पड़ी। ग्रेप-4 यानी कि ग्रेप-3 का अगला स्तर जो कि दिखाता है कि दिल्ली-एनसीआर में हवा कहीं और ज्यादा ज़हरीली हो चुकी है।
खैर, इसकी भुक्तभोगी तो जनता हो रही है, जिसमें से अधिकतम लोगों के पास इससे बचने का कोई उपाय नहीं है। न ही उसके पास एयर प्यूरीफायर है और न ही उसे इस बात की आर्थिक आज़ादी है कि वह अपने घर में बिना काम किए बैठ सके या कि अपने घर में बैठ के काम कर सके। हालांकि, यह बात दीगर है कि एयर प्यूरीफायर से भी ज्यादा कुछ फायदा नहीं होने वाला है।
खास बात यह है कि इस वायु प्रदूषण का असर सिर्फ दिल्ली-एनसीआर तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि उत्तराखंड होते हुए यह हवाएं कहीं हिमाचल तक दस्तक दे चुकी हैं। वहां की भी हवा ज़हरीली हो चुकी है। देश के सारे बड़े महानगर इस वक्त प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस प्रदूषण के कारण प्रतिदिन हम जितनी हवा अंदर खींच रहे हैं वह 49 सिगरेट पीने के बराबर है।
लेकिन इन सबके बीच एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह उभर कर आता है, कि आखिर राजनीतिक रूप से इसकी उतनी चर्चा क्यों नहीं हो रही जितनी कि होनी चाहिए थी। तो आखिर इसके क्या कारण हो सकते हैं-
जनता सेट करती है मुद्दे
भारत में राजनीति सेवा नहीं, बल्कि जीत और हार का खेल बन चुका है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रत्यक्ष रूप से भले ही ऐसा लगे कि चुनाव के मुद्दे नेता सेट करते हैं लेकिन वास्तव में चुनावी मुद्दे जनता सेट करती है। योगेंद्र यादव दिप्रिंट के अपने एक लेख में लिखते हैं कि राजनीति आज के समय में एक बिजनेस की तरह हो गई है। जैसे किसी दुकानदार से हम उम्मीद नहीं कर सकते कि वह ग्राहक की सेवा के लिए काम करे, बल्कि वह अपने फायदे कि लिए काम करता है, उसी तरह से आज कल नेता भी जनता के लिए काम नहीं करते बल्कि अपने राजनीतिक लाभ और चुनाव जीतने के लिए काम करते हैं।
'जरूरत' नहीं 'मांग' से तय होते हैं मुद्दे
राजनीति की एक खास बात यह है कि कोई भी मुद्दा सिर्फ इस बात से निर्धारित नहीं होता कि जनता की जरूरतें क्या है बल्कि इस बात से भी निर्धारित होता है कि जनता अपनी ज़रूरतों के प्रति जागरुक है या नहीं। और क्या वह उसे अपने राजनीति मांग के रूप में परिवर्तित कर पा रही है कि नहीं। अगर जनता अपनी जरूरतों को मांग के रूप में परिवर्तित नहीं कर पाती तो नेता उसके बारे में बात नहीं करते। इसके अलावा अपनी जरूरतों को सिर्फ मांग में परिवर्तित करना ही काफी नहीं है बल्कि उसे सामूहिक भी बनाना होगा। यानी कि इकट्ठे होकर एक साथ इस मांग को उठाना होगा। जब तक किसी राजनेता को यह नहीं लगता कि जनता अपनी मांग को लेकर संगठित है तब तक वह इसे राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाती।
दिल्ली में हुआ कितना काम
अगर दिल्ली में प्रदूषण को लेकर काम की बात करें तो ज़मीनी स्तर पर काम हुआ कम दिखता है बल्कि आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ज्यादा दिखती है। पिछले कुछ सालों में बसों की संख्या घट गई है, मेट्रो के किराए में इजाफा हो गया है। ऐसे में जनता के लिए सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने की प्रेरणा कम हुई है। हां, दिल्ली में शीला दीक्षित के शासन काल में सीएनजी को अनिवार्य किया जाना एक बड़ा कदम था।
इस बारे में खबरगांव ने बीजेपी प्रवक्ता प्रेम शुक्ला से भी बात की और उनसे पूछा कि आखिर बीजेपी इसे चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बना रही है तो उन्होंने इस बात को खारिज करते हुए कहा कि, 'दिल्ली का प्रदूषण हमारे लिए मुद्दा है और बीजेपी लगातार इस बात को उठा रही है।'
प्रतिवर्ष होती हैं करीब 20 लाख मौतें
साल 2023 की बीएमजे स्टडी की एक रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण की वजह से भारत में प्रतिवर्ष 20 लाख से ज्यादा मौतें होती हैं। इन बीमारियों का कारण हार्ट संबंधी बीमारियां, स्ट्रोक, फेफड़े संबंधी गंभीर समस्याएं इत्यादि के कारण होती हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करके इसमें कमी लाई जा सकेगी।
विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत में वायु प्रदूषण की वजह से प्रतिवर्ष करीब 36 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है।
दुनिया के कौन से देश सबसे ज्यादा प्रभावित
पूरी दुनिया में विकसित देशों की तुलना में विकासशील और गरीब देश प्रदूषण की मार ज्यादा झेल रहे हैं। इन देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, भारत, ताजिकिस्तान, बुर्किना फास्सो, इराक, यूएई, नेपाल, मिस्र और कांगो जैसे देश शामिल हैं।
इन देशों में ज्यादा प्रदूषण होने का एक बड़ा कारण यह है कि इनमें ज्यादातर पुराने वाहन हैं, जो कि ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। दूसरा इन देशों में परिवहन संबंधी इन्फ्रास्ट्रक्चर का ज्यादा विकास भी नहीं हुआ है। इसके अलावा क्लीन एनर्जी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए आधारभूत संसाधन भी इनके पास नहीं हैं।
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