सरकार का जोर या कुछ और, IBM को क्यों छोड़ना पड़ा था भारत?
देश में दिग्गज आईटी कंपनी के रूप में काम कर रही IBM वह कंपनी बनी थी जिसने भारत में सबसे पहले कंप्यूटर लगाए थे। इसके बावजूद एक वक्त ऐसा आया जब यह कंपनी भारत छोड़कर चली गई।

IBM
आजादी के बाद ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मशहूर वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा की अगुवाई में भारत को साइंस की दुनिया में आगे बढ़ाने का फैसला कर लिया था। इसी फैसले के चलते धीरे-धीरे भारत में कंप्यूटर आने शुरू हुए। 1970 आते-आते भारत में सैकड़ों जगहों पर कंप्यूटर लग चुके थे। मुख्य रूप से IIT, IIM, रिसर्च संस्थानों और अन्य जगहों पर कंप्यूटर लगाए गए थे। उस समय IBM का कंप्यूटर 1401 बहुत मशहूर हुआ और लगभग 80 जगहों पर इसी के कंप्यूटर लगे हुए थे। हालांकि, उस समय के मशहूर वैज्ञानिक विक्रम साराभाई IBM से चिढ़ गए। सरकार को भी लगने लगा था कि कंप्यूटर से लोगों की नौकरियां जा रही हैं। इंदिरा गांधी की सरकार इस पर कुछ कर पाती इससे पहले सत्ता बदल गई थी। नई सत्ता आई और उसने एक ऐसा नियम बनाया कि IBM को जाना पड़ा। एक रोचक बात यह है कि जिस कंपनी ने IBM की जगह ली वह भी IBM के बिना काम नहीं कर पाया। आखिरकार IBM की वापसी हुई और अब वह फिर से भारत की दिग्गज कंपनियों में शुमार हो चुकी है।
आईबीएम के भारत छोड़ने के पीछे की सबसे बड़ी वजह उस वक्त लाए गए फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट (FERA) को माना जाता है। हालांकि, इसमें एक अहम रोल उस वक्त के राजनीतिक माहौल का भी था। साल 1969 में प्राइवेट सेक्टर के ज्यादातर बैंकों का नेशनलाइजेशन हो चुका था। सरकार उद्योगों को नियंत्रित करने की दिशा में आगे बढ़ रही थी। तब तक रुपये को दूसरी मुद्राओं में बदला नहीं जाता था। इसी के चलते फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट (FERA), 1973 लाया गया जिसके चलते कई चीजें बदल गईं।
कंप्यूटर का हो रहा था विरोध
इससे पहले, 1969 में ही योजना आयोग के सदस्य रहे आर वेंकटरमन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी का काम था कि वह जांच करे कि ऑटोमेशन होने पर रोजगार पर कितना फर्क पड़ेगा। बाद में इसी कमेटी की अगुवाई वी एम दांडेकर ने की और कमेटी का नाम भी उन्हीं के नाम पर हो गया। इसी दांडेकर कमेटी ऑन ऑटोमेशन ने साल 1972 में सुझाव दिया कि सरकारी विभागों और उद्योगों में कंप्यूटर लाने पर सख्त रोक लगाई जाए। इस कमेटी ने यह भी कहा कि कंपनियों में कंप्यूटर लगाने से पहले मंजूरी ली जाए। कंप्यूटर का विरोध होने लगा। इसे गरीबों और मजदूरों के दुश्मन के रूप में पेश किया जाने लगा और कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी जनता पार्टी के नेता भी इसे तूल देने लगी।
दरअसल, IBM 1401 कंप्यूटर आकार में काफी छोटे थे और इनके जरिए सैलरी बनाने, अकाउंटिंग और स्टोर कंट्रोल जैसे काम चुटकियों में होने लगे थे। इनका दबदबा हो जाने के चलते दांडेकर कमेटी का रवैया इनके प्रति नकारात्मक था। साल 1975 में पब्लिक अकाउंट्स कमेटी की रिपोर्ट ने भी कंप्यूटरों के प्रति चिंता जताई। इसमें कहा गया कि भारत जैसे देश में जहां कि बेरोजगारी काफी ज्यादा है वहां कंप्यूटरों का इस्तेमाल ठीक नहीं है। इसी के चलते 1970 में सिंगल विंडो क्लियरेंस के जरिए लाइसेंस देने का सिस्टम शुरू किया गया। यानी अगर आपको विदेश से कंप्यूटर मंगाना है तो आपको लाइसेंस यहीं से लेना होगा। इसमें भी दो से तीन साल का समय लग जाता था। इससे उद्योगों, शैक्षणिक संस्थानों और रिसर्च संस्थानों पर असर पड़ने लगा। इसी बीच साल 1977 में सरकार बदली और मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी। यहीं से आईबीएम की उल्टी गिनती शुरू हो गई। 1978 में आईबीएम ने भारत छोड़ दिया।
लाखों का किराया और IBM का खेल!
दरअसल, साल 1971 में जो कंप्यूटर लगाए जाते थे उनकी पूरी यूनिट में 4 टेप, 2 डिस्क और मुख्य कंप्यूटर होता था। उस समय IBM इसके लिए सालाना 8.5 लाख रुपये का किराया लेता था। धीरे-धीरे लोगों को यह समझ आने लगा कि IBM इससे तगड़ी कमाई कर रहा है। ऐसा लगने की वजह यह थी कि वही IBM अमेरिका में भारत की तुलना में कम किराया लेकर कंप्यूटर लगा रहा था। जब IBM से इसके बारे में पूछा गया तो उसने सफाई दी कि इस किराए में फ्री मेंटेनेंस और एक सिस्टम इंजीनियर की सर्विस भी शामिल है जो समय-समय पर कंप्यूटर की देखभाल करता है और मदद भी करता है।
उस समय टाटा ग्रुप की कंपनियों, टेक्सटाइल कंपनियों और रेलवे तक के पास यही कंप्यूटर थे। आईबीएम पर एक और आरोप लगे कि वह पुराने कंप्यूटर भारत लाता है, उन्हें ठीक करता है और महंगे दाम पर किराए पर दे देता है। इस पर आईबीएम का कहना था कि वह भारत को कंप्यूटर टेक्नोलॉजी में धीरे-धीरे आगे बढ़ाना चाहता था। उसने और भी कई तरह से सफाई दी लेकिन भारत ने भी अपना मन बना लिया था। साल 1970 में जब भारत सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग की स्थापना की तो उसने मामला अपने हाथ में लेने का फैसला किया। इसी विभाग ने कुछ और जांच की तो आईबीएम और आईसीएल के काम में और गड़बड़ियां निकलीं। अगले कुछ सालों में आए फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट 1973 ने आईबीएम के निकलने का रास्ता और साफ कर दिया।
जॉर्ज फर्नांडीज की जिद और कंपनियों की हार
जनता के नेता की छवि बना चुके जॉर्ज फर्नांडीज साल 1977 के लोकसभा चुनाव में जेल से ही चुनाव लड़े। वह चुनाव जीत भी गए और जेल से बाहर आने के बाद मोरारजी देसाई ने उन्हें भारत का उद्योग मंत्री बना दिया। यह वही समय था जब कोका-कोला और आईबीएम जैसी कंपनियों ने भारत छोड़ दिया था। शुरुआत में आईबीएम जैसी कंपनियां FERA से छूट चाहती थीं लेकिन न तो जनता पार्टी की सरकार इस पर तैयार थी और नहीं जॉर्ज फर्नांडीज कोई रियायत देना चाहते थे।
दरअसल, भारत चाह रहा था ये कंपनियां अपनी हिस्सेदारी को कम कर दें। सरकार का कहना था कि ये कंपनियां अपनी 60 पर्सेंट हिस्सेदारी भारतीयों को दे दें और अपने पास सिर्फ 40 पर्सेंट ही रखें। इसका सीधा मतलब था कि ये कंपनियां भारतीयों की हो जातीं। यही वजह थी कि आईबीएम और कोका कोला जैसी कंपनियों ने भारत छोड़ना ही बेहतर समझा और 1992 में ही वापस आईं। उस समय IIT, IIM और TIFR जैसे संस्थानों और रिसर्च इंस्टिट्यूट में आईबीएम के ही कंप्यूटर लगे हुए थे। इनके जाने के बाद आईबीएम के कुछ पूर्व कर्मचारियों ने इंटरनेशनल डेटा मैनेजमेंट (IDM) की शुरुआत की।
सरकार ने भी कोशिश की और कंप्यूटर मेन्टेनेंस कॉर्पोरेशन (CMC) की स्थापना की गई। साल 1978 में इसी कंपनी ने आईबीएम के कंप्यूटरों की देखरेख का काम संभाला। इसी के बाद HCL, DCM, बी के मोदी और अन्य टेक कंपनियों की शुरुआत हो पाई। हालांकि, समय के साथ यही CMC आईबीएम की क्लाइंट बन गई।
1986 में उसी आईबीएम ने इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग के पास सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट एंड ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट बनाने का प्रस्ताव भेजा। तब राजीव गांधी की सरकार थी और वह कंप्यूटर को भरपूर बढ़ावा दे रही थी। उनकी मंजूरी से ही साल 1989 में आईबीएम ने एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी को कंप्यूटर सप्लाई किया। 1990 आते-आते आईबीएम ने टाटा के साथ मिलकर भारत में वापसी के लिए बातचीत शुरू कर दी। 1992 में टाटा इन्फॉर्मेशन सिस्टम्स लिमिटेड की स्थापना हुई जो आगे चलकर टाटा आईबीएम हो गया। इसी कंपनी का नाम साल 1997 में आईबीएम इंडिया हो गया और कभी भारत छोड़ने को मजबूर हुई IBM फिर से भारत में खुलकर काम करने लगी।
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