कुछ को वरदान तो कुछ को श्राप में मिला अमरत्व, कौन हैं अष्ट चिरंजीवी
हिंदू धर्म ग्रंथों में अष्ट चिरंजीवियों का वर्णन किया गया है। आइए जानते हैं उनके नाम और उनसे जुड़ी कुछ प्रमुख बातें।

आठ चिरंजीवियों में से एक हैं हनुमान जी। (Pic Credit- AI)
हिन्दू धर्म-ग्रंथों में कई रहस्य छिपे हैं, जिन पर आज भी कई बार चर्चा होती रहती है। इन्हीं में से एक विषय अष्ट चिरंजीवी है। बता दें कि चिरंजीवी संस्कृत के दो शब्द 'चिर' और 'जीवी' से बना एक शब्द है, जिसमें चिर का अर्थ सदैव, निरंतर और जीवी का अर्थ जीवन है। इस शब्द का पूर्ण अर्थ है, जिनकी लंबी आयु हो या जिनकी मृत्यु कभी न हो।
धार्मिक ग्रंथों में आठ चिंरंजीवियों का वर्णन किया गया है। कुछ को अमरत्व का वरदान मिला था तो कुछ ने श्राप के कारण लंबी आयु प्राप्त की थी। आज हम ऐसे ही आठ चिरंजीवियों के विषय में बात करने जा रहे हैं। आइए जानते हैं कौन हैं ये अष्ट चिरंजीवी और इनकी कथा-
राजा बलि
पुराणों में बतया गया है कि राजा बलि को उनके उदार स्वभाव और दान के लिए जाना जाता था। एक बार राजा बलि ने देवताओं पर चढ़ाई की और इंद्रलोक पर अधिकार स्थापित कर लिया था। राजा बलि के घमंड को चूर करने के लिए भगवान ने ब्राह्मण का भेष धारण कर लिया। राजा बलि ने भगवान वामन से कहा कि जो आपकी इच्छा हो वह मांग लीजिए। तब भगवान ने राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगा और यह कहकर भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर लिया। भगवान ने दो पगों में तीनों लोक नाप दिए और तीसरा पग बलि के सर पर रखकर उसे पाताल लोक भेज दिया। तब से मान्यता है कि राजा बलि हर साल ओणम के दिन पाताल लोक से धरती पर आते हैं और अपनी प्रजा से मिलते हैं।
भगवान परशुराम
हिन्दू धर्म में भगवान परशुराम को श्रीहरि विष्णु का छठवां अवतार माना जाता है। वह भगवान शिव के परम भक्त थे और उनकी गाथा सतयुग से लेकर कलयुग तक सुनने या पढ़ने को मिलती है। पौराणिक कथा के अनुसार, परशुराम का जन्म ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए हुआ था। बेहद क्रोधी स्वभाव वाले परशुराम युद्ध कला में बहुत भी कुशल थे। भगवान परशुराम ने कई योद्धाओं को शिक्षा भी दी थी, जिनमें महाभारत युद्ध के बड़े योद्धा भीष्म पितामह के अलावा द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को शिक्षा दी थी। भगवान परशुराम का जन्म ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए हुआ था, जिससे भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें चिरंजीवी का वरदान दिया था। ऐसा कहा जाता है कि परशुराम आज भी धरती पर जीवित हैं।
भगवान हनुमान
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण के द्वारा माता सीता का हरण करने के बाद जब भगवान राम की आज्ञा से हनुमान जी माता सीता की खोज में लंका गए। तब अशोक वाटिका में माता सीता से मिलने के बाद हनुमान जी ने उन्हें प्रभु श्रीराम की अंगूठी दी और स्वयं को भगवान श्री राम का दूत बताकर माता सीता को आश्वासन दिया। तब माता सीता ने हनुमान जी का भगवान श्रीराम के प्रति प्रेम भाव देखकर उनको चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। इसके बाद श्री राम ने उन्होंने दायित्व सौंपा कि जहां भी राम नाम का सुमिरन किया जाएगा, वहां हनुमान जी उपस्थित रहेंगे और लोगों का उद्धार करेंगे।
विभीषण जी
विभीषण को सप्त चिरंजीवियों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि रावण के मृत्यु के बाद श्री राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित कर राज्याभिषेक किया था। लंका में हुए युद्ध के दौरान विभीषण ने रामजी की विशेष सहायता की थी। यही कारण था कि भगवान श्री राम ने विभीषण को लंका नरेश बनाने के साथ उन्हें अजर-अमर होने का वरदान दिया था।
महर्षि वेदव्यास
महर्षि वेदव्यास अद्भुत शक्तियों से संपन्न थे। इसके साथ भगवत पुराण, गरुड़ पुराण जैसे विभिन्न धर्म-ग्रंथ और पुराणों की रचना की थी। बता दें कि महर्षि व्यास जी का जन्म त्रेता युग के अन्त में आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि पर हुआ था और वे पूरे द्वापर युग तक जीवित रहे। कहा जाता है कि वेदव्यास अष्टचिरंजीवियों में से एक हैं और कलयुग में भी जीवित हैं। प्रत्येक वर्ष आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु के रूप में वेदव्यास की पूजा की जाती है।
कृपाचार्य
कृपाचार्य कौरवों और पांडवों के गुरु थे और वह अश्वत्थामा के मामा थे। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ था। कृपाचार्य उन तीन तपस्वियों में से एक थे, जिन्हें भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन हुए थे। उन्हें सप्तऋषियों में से एक भी कहा जाता है। कृपाचार्या ने दुर्योधन को पांडवों से सन्धि करने के लिए बहुत समझाया था, लेकिन दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी। कृपाचार्य को ऐसे ही सुकर्मों की वजह से अमरत्व का वरदान प्राप्त था।
अश्वथामा
पौराणिक कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ तब द्रोणाचार्य ने कौरवों का साथ देना उचित समझा।।। इसके चलते अश्वत्थामा ने भी युद्ध में भाग लिया।।।वह भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपूण थे।। इस कारण अश्वत्थामा को कौरव-पक्ष का सेनापति नियुक्त किया गया।। अश्वत्थामा ने घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। इसके अलावा द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु का भी वध किया। अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। इसके चलते लाखों लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। यह देख श्रीकृष्ण बेहद क्रोधित हो गए। उन्होंने अश्वत्थामा को शाप दिया कि वह इस पाप का बोझ 3000 वर्षों तक ढोएगा। वह भटकता रहेगा। उसके शरीर से रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।।।मान्यता है कि अश्वत्थामा श्री कृष्ण से यह शाप मिलने के बाद रेगिस्तानी इलाके में चला गया था।
ऋषि मार्कंडेय
ऋषि मार्कंडेय के अमरत्व की कथा का विवरण शिव पुराण में विस्तार से दिया गया है। कथा के अनुसार, मार्कंडेय ऋषि का जन्म हुआ तो उनके माता-पिता को बताया गया कि मार्कंडेय अल्प-आयु है और 16 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाएगी। मार्कंडेय भगवान शिव के परम भक्त थे। जब ऋषि मार्कंडेय की आयु 16 वर्ष की हुई तो यमराज उन्हें लेने आए। उन्होंने शिवलिंग को गले लगाकर भगवान शिव से प्रार्थना की। जब यमराज ने अपने पाश (मृत्यु का फंदा) से उन्हें पकड़ने का प्रयास किया, तो भगवान शिव प्रकट हुए और ऋषि मार्कंडेय को अमरत्व का वरदान दिया।
Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारियां सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।
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