भीष्म अष्टमी महाभारत कथा के प्रमुख पात्रों में से एक भीष्म पितामह के पुण्यतिथि के रूप में जाना जाता है। युद्ध में जब भीष्म पितामह शर शैया (तीरों की शैया) पर थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर और पांडवों को धर्म, राजनीति और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर महत्वपूर्ण ज्ञान दिया। भीष्म पितामह का ज्ञान महाभारत के 'अनुशासन पर्व' और 'शांतिपर्व' में विस्तार से वर्णित है।
बता दें कि महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति थे लेकिन जब अर्जुन ने शिखंडी की सहायता से उन्हें घायल किया, तब वे शर शैया पर लेट गए। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त थे, इसलिए उन्होंने अपनी मृत्यु के लिए उत्तरायण काल का इंतजार किया। इस समय का उपयोग उन्होंने युधिष्ठिर और पांडवों को धर्म और नीति का उपदेश देने के लिए किया।
धर्म और राजधर्म का महत्व
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को धर्म और राजधर्म के महत्व के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि एक राजा का कर्तव्य है कि वह न्यायपूर्ण और धर्म के अनुसार राज्य का संचालन करे। राजा को प्रजा की भलाई के लिए काम करना चाहिए और किसी भी प्रकार के अन्याय या अत्याचार से बचना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि राजा को हमेशा सत्य, करुणा और धैर्य के मार्ग पर चलना चाहिए।
राजा के गुण
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया कि एक आदर्श राजा में कौन-कौन से गुण होने चाहिए। उन्होंने कहा कि राजा को धैर्यवान, सहिष्णु, बुद्धिमान और परोपकारी होना चाहिए। उसे अपने राज्य की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए और अपनी प्रजा के प्रति सच्ची निष्ठा रखनी चाहिए। एक अच्छा राजा वही होता है जो अपने प्रजा के सुख-दुख में सहभागी बने और उनकी समस्याओं का समाधान करे।
न्याय और नीति
भीष्म पितामह ने न्याय और नीति के महत्व पर भी बल दिया। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा कि न्याय ही किसी राज्य की नींव होती है। अगर राजा न्यायपूर्ण नहीं होगा, तो उसका राज्य कभी स्थिर नहीं रह सकता। राजा को चाहिए कि वह बिना किसी भेदभाव के न्याय करे और अपराधियों को उचित दंड दे। नीति के संदर्भ में उन्होंने कहा कि हर निर्णय सोच-समझकर और धर्म के अनुरूप लेना चाहिए।
अहंकार और क्रोध से बचाव
भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर और उनके भाइयों को अहंकार और क्रोध से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि अहंकार और क्रोध मनुष्य के विनाश के मुख्य कारण होते हैं। एक सच्चे नेता को विनम्र और धैर्यशील होना चाहिए। क्रोध में लिया गया कोई भी निर्णय हानिकारक हो सकता है, इसलिए संयम और विवेक से काम लेना चाहिए।
शांतिपूर्वक जीवन जीने का उपदेश
भीष्म पितामह ने पांडवों को यह भी बताया कि जीवन में शांति और संतोष सबसे महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागने की बजाय, मन की शांति और आत्मसंतोष को प्राथमिकता देनी चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि दूसरों के प्रति करुणा और सहानुभूति रखना जीवन को सार्थक बनाता है।
दान और धर्म का महत्व
भीष्म पितामह ने दान और धर्म के महत्व पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति जरूरतमंदों की मदद करता है और धर्म के मार्ग पर चलता है, वही सच्चा मनुष्य है। दान देने से न केवल समाज में संतुलन बना रहता है, बल्कि यह आत्मिक संतोष भी प्रदान करता है।
अंतिम उपदेश
भीष्म पितामह ने अपने अंतिम उपदेश में युधिष्ठिर से कहा कि जीवन में धर्म, सत्य और न्याय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि सफलता और असफलता जीवन के हिस्से हैं, लेकिन सच्चे मूल्य वही हैं जो इंसान को महान बनाते हैं। उनके उपदेश सुनने के बाद युधिष्ठिर ने अपने कर्तव्यों को समझा और धर्म के मार्ग पर चलने का निश्चय किया।
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