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नागाओं की तरह जैन साधु क्यों बिना कपड़ों के करते हैं तपस्या, जानें वजह

नागा साधुओं की तरह जैन धर्म में भी निर्वस्त्र होकर तपस्या करने की परंपरा है, जिसका नाम दिगंबर परंपरा है। आइए जानते हैं, क्यों किया जाता है ऐसा और महत्व।

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भगवान महावीर।(Photo Credit: Wikimedia Commons)

महाकुंभ में नागा साधु आकर्षण का केंद्र होते हैं। नागा साधु दिगंबर परंपरा का पालन करते हुए, निर्वस्त्र रहते हैं। हालांकि एक धर्म और है, जिसमें सन्यासी नागा साधुओं की तरह दिगंबर परंपरा को अपनाते हैं, वह है जैन धर्म। बता दें कि जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है, जो आत्मशुद्धि, अहिंसा और तपस्या पर आधारित है।

 

इस धर्म में दो प्रमुख संप्रदाय हैं – दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर परंपरा का पालन करने वाले जैन साधु नग्न रहते हैं, जिसे दिगंबर कहा जाता है। 'दिगंबर' शब्द का अर्थ है 'दिशाएं ही वस्त्र हैं।' यह परंपरा अत्यधिक सादगी, आत्मसंयम और सांसारिक मोह-माया से पूर्ण रूप से मुक्ति का प्रतीक है। आइए जानते हैं  परंपरा से जुड़ी खास बातें।

दिगंबर परंपरा का महत्व

दिगंबर परंपरा का पालन करने वाले साधु नग्नता को अपने धर्म और साधना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं। इसका उद्देश्य पूरी तरह से सांसारिक इच्छाओं और वस्त्र जैसे भौतिक चीजों से दूरी बनाना है। यह परंपरा दिखाती है कि आत्मा को शुद्ध करने के लिए बाहरी आवरण और वस्त्रों की आवश्यकता नहीं है।

 

दिगंबर साधु यह मानते हैं कि वस्त्र एक प्रकार का मोह है, जो आत्मा की शुद्धि में बाधा डालते हैं। उनके अनुसार, जो व्यक्ति पूर्ण रूप से मोहमुक्त हो जाता है, वही सच्चा तपस्वी और साधक बनता है। नग्नता इस बात का प्रतीक है कि साधु अब किसी भी सांसारिक वस्तु पर निर्भर नहीं है और उसने अपनी पूरी आत्मा को मोक्ष की ओर समर्पित कर दिया है।

नागा साधुओं और दिगंबर साधुओं में समानता

दिगंबर परंपरा और हिंदू धर्म के नागा साधुओं में कई समानताएं हैं। दोनों ही परंपराओं में नग्नता को आत्मसंयम और आध्यात्मिक साधना का प्रतीक माना गया है। नागा साधु भी अपनी साधना के दौरान सांसारिक वस्त्रों का त्याग करते हैं और कठिन तपस्या करते हैं।

 

हालांकि, दिगंबर परंपरा में नग्नता के साथ-साथ अहिंसा, तपस्या और ध्यान को विशेष महत्व दिया जाता है। दिगंबर साधु पूरी तरह से अहिंसा का पालन करते हैं और यहां तक कि जमीन पर चलते समय भी यह ध्यान रखते हैं कि किसी छोटे जीव को नुकसान न पहुंचे।

 

जैन धर्म का इतिहास

 

जैन धर्म का इतिहास बेहद प्राचीन है। यह धर्म 24 तीर्थंकरों की शिक्षाओं पर आधारित है। जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) थे, जिनका उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

 

24वें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे। महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व बिहार के वैशाली में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन के 30 वर्षों तक राजसी जीवन जिया, लेकिन बाद में सांसारिक मोह-माया त्यागकर सत्य, अहिंसा और तपस्या का मार्ग अपनाया।

 

भगवान महावीर ने कठोर तपस्या के बाद कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त किया और जैन धर्म को संगठित रूप में प्रचारित किया। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच मुख्य सिद्धांत दिए, जो आज भी जैन धर्म का आधार हैं।

दिगंबर और श्वेतांबर में अंतर

जैन धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय – दिगंबर और श्वेतांबर – भगवान महावीर की शिक्षाओं की व्याख्या के आधार पर अलग हुए। एक दिगंबर संप्रदाय में साधु जो नग्न रहते हैं, जबकि, श्वेतांबर संप्रदाय के साधु सफेद वस्त्र पहनते हैं। इसके अलावा, दिगंबर परंपरा यह मानती है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए पूर्ण तपस्या और नग्नता आवश्यक है।

दिगंबर साधुओं का जीवन

दिगंबर साधु बेहद कठोर जीवन जीते हैं। वे किसी भी प्रकार के आराम, वस्त्र, और संपत्ति से दूर रहते हैं। वे भोजन के लिए भी किसी पर निर्भर नहीं होते और भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं। वे अक्सर खुले आसमान के नीचे ध्यान और तपस्या करते हैं।

 

उनका मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और मोक्ष प्राप्त करना होता है। दिगंबर साधु यह मानते हैं कि शरीर को कष्ट देने और सांसारिक सुखों का त्याग करने से आत्मा शुद्ध होती है और वह मोक्ष की ओर बढ़ती है।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।

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