जैन और बौद्ध धर्म में पितरों का सम्मान हिंदू परंपरा से अलग बताया गया है। इन धर्मों में पितरों का पूजन या अनुष्ठान उतना कठिन नहीं माना जाता है। इन दोनों धर्मों का महत्व आध्यात्मिक विकास, पुण्य कर्म और मोक्ष से जुड़ा हुआ माना जाता है। जैन धर्म में पूर्वजों के लिए दान, तप और पुण्य कार्य किए जाते हैं, जबकि बौद्ध धर्म में पितरों के लिए दान, भिक्षु सहायता और मंत्र पाठ का महत्व बताया गया है।
विशेष रूप से इन दोनों धर्मों में पितरों की स्मृति का उद्देश्य केवल श्रद्धा प्रकट करना नहीं, बल्कि अपने कर्मों को सुधारकर पुण्य अर्जित करना माना जाता है। इस माध्यम के इस्तेमाल से दोनों धर्मों के अनुयायी अपने जीवन में करुणा, नैतिकता और आध्यात्मिक उन्नति को बढ़ावा देते हैं। जैन और बौद्ध परंपरा में पितरों का सम्मान केवल पारंपरिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक चेतना और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन का भी प्रतीक है।
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जैन धर्म में पितरों का महत्व
जैन धर्म में पितरों का विशेष तौर पर आध्यात्मिक या भौतिक पूजा करने का प्रचलन बहुत सीमित है। जैन धर्म में पितरों के प्रति सम्मान, अधिकतर और सदाचार पुण्य कर्मों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। माना जाता है कि पितरों के पुण्य और मोक्ष के लिए जैन अनुयायी दान, तप और पुण्य कर्म करते हैं। जैन धर्म में मृत्यु के बाद आत्मा के पुनर्जन्म और कर्मों का महत्व बताया गया है। जैन धर्म में पितरों को स्मरण करने का उद्देश्य उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करना और अपने कर्म सुधारना है।
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बौद्ध धर्म में पितरों का महत्व
बौद्ध धर्म में भी पूर्वजों के प्रति सम्मान की परंपरा है लेकिन इसे ज्यादातर करुणा, पुण्य और दान के रूप में माना जाता है। बौद्ध अनुयायी अपने पूर्वजों के लिए दान, भिक्षु सहायता और मंत्र पाठ करते हैं, जिससे उनके लिए पुण्य का संचार हो और उनके दुखों का निवारण हो। बौद्ध धर्म में मृतक आत्मा के साथ सीधा संवाद या पूजा कम होती है, बल्कि उनके प्रति करुणा और पुण्य कार्य करना महत्व रखता है।