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क्या था अश्वमेध यज्ञ, जिससे खुद डरते थे देवताओं के राजा इंद्र

अश्वमेध यज्ञ को राजा के द्वारा किया जाने वाला एक विशेष अनुष्ठान था, जिसका एक अपना महत्व था। आइए जानते हैं अश्वमेध यज्ञ के विषय में विस्तार से।

Image of Ashwamedh Yagya

अश्वमेध यज्ञ का प्रतीकात्मक चित्र। (Pic Credit: AI)

प्राचीन काल में होने वाले विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान के पीछे कई रहस्य छिपे थे। कुछ अनुष्ठान देवताओं के आशीर्वाद के लिए किए जाते थे तो कुछ को शक्तिशाली के लिए किया जाएगा। इन्हीं में से एक है ‘अश्वमेध यज्ञ’। यह एक प्राचीन वैदिक यज्ञ है, जिसे भारतीय इतिहास और पौराणिक कथाओं में शक्ति और साम्राज्य के विस्तार का प्रतीक माना जाता था। इस यज्ञ का उल्लेख वेद, पुराण और रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी मिलता है। 

क्या है अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया?

अश्वमेध यज्ञ को राजा के द्वारा किया जाने वाला एक विशेष अनुष्ठान था, जिसका उद्देश्य उनके राज्य की सीमाओं का विस्तार करना और अपना प्रभुत्व पूरे क्षेत्र में स्थापित करना होता था। इस यज्ञ में शुभ मुहूर्त में यज्ञ हेतु एक अश्व (घोड़ा) को चुना जाता था। इसे विशेष रूप से सजाया जाता था और छोड़ दिया जाता। घोड़ा जिस-जिस राज्य से होकर गुजरता, उस राज्य के शासक को यज्ञकर्ता राजा की सत्ता स्वीकार करना पड़ता था। कोई शासक यदि इसे चुनौती देता, तो उसे युद्ध करना पड़ता और युद्ध में जीतने के बाद भी घोड़े की यात्रा जारी रहती थी।

 

घोड़े की एक वर्ष की यात्रा पूरी होने के बाद, उसे वापस राजधानी लाया जाता था और यज्ञ की पूर्णाहुति दी जाती थी। इस यज्ञ में देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष मंत्रों और आहुतियों का प्रयोग होता था। यज्ञ के अंत में घोड़े की बलि दी जाती थी, जो प्रतीकात्मक रूप से राजा की विजय और शक्ति का परिचायक होती थी।

महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण और पांडवों द्वारा अश्वमेध यज्ञ

महाभारत कथा के अनुसार, पांडवों द्वारा राजसूय यज्ञ और कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से अश्वमेध यज्ञ किया था। यह यज्ञ युधिष्ठिर के राज्याभिषेक और उनके साम्राज्य की शक्ति को स्थापित करने के लिए किया गया था। अर्जुन इस यज्ञ के लिए श्रीकृष्ण के निर्देश पर घोड़े के साथ गए और विभिन्न राज्यों में विरोधियों का सामना किया। अर्जुन ने अपनी वीरता से सभी युद्धों में विजय प्राप्त की और पांडवों की शक्ति को स्थापित किया।

 

अश्वमेध यज्ञ के दौरान अर्जुन और श्रीकृष्ण ने धर्म, न्याय और मर्यादा का पालन करते हुए सभी शासकों को युधिष्ठिर की सत्ता स्वीकारने के लिए प्रेरित किया। घोड़े की यात्रा समाप्त होने के बाद, उसे वापस इंद्रप्रस्थ लाया गया, जहां यज्ञ की पूर्णाहुति दी गई। कहा जाता है कि अश्वमेध यज्ञ के माध्यम से धर्मराज युधिष्ठिर का राज्य पूरे भारतवर्ष में स्थापित हुआ और धर्म, न्याय तथा शांति का संदेश प्रसारित हुआ।

रामायण काल में अश्वमेघ यज्ञ

रामायण ग्रंथ में भी अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख मिलता है, जिसे भगवान श्रीराम द्वारा उनके शासनकाल के दौरान किया गया है। यह कथा उस समय की है जब भगवान श्रीराम अयोध्या के राजा के रूप में रामराज्य स्थापित कर चुके थे। उन्होंने प्रजा के कल्याण और अपने राज्य की समृद्धि के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया।

 

यज्ञ की तैयारी के लिए श्रीराम ने अपने भाइयों लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को महत्वपूर्ण कार्य सौंपे। एक विशेष अश्व को सजाया गया और उसे यज्ञ के लिए छोड़ा गया। घोड़ा राज्य की सीमाओं से होते हुए अन्य राज्यों की ओर बढ़ा, जहां-जहां घोड़ा गया, वहां के शासकों ने श्रीराम की प्रभुता स्वीकार की। यदि कोई राजा चुनौती देता, तो राम के भाई शत्रुघ्न उस चुनौती का सामना करते।

 

कथा के अनुसार, यज्ञ के दौरान माता सीता को यज्ञ में सम्मिलित नहीं किया गया, क्योंकि वह वनवास में थीं। इस कारण श्रीराम ने उनकी स्वर्ण की एक मूर्ति बनवाकर यज्ञ में स्थापित किया। यज्ञ में ऋषि-मुनियों ने भगवान राम की पूजा की और आशीर्वाद दिया।

 

अश्वमेध यज्ञ का उद्देश्य शक्ति प्रदर्शन और धार्मिक श्रेष्ठता के साथ-साथ प्रजा में न्याय और व्यवस्था बनाए रखना था। यह यज्ञ भारतीय परंपरा और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो प्राचीन काल के राजनीतिक और धार्मिक जीवन की झलक प्रस्तुत करता है।

 

Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारियां सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं। Khabargaon इसकी पुष्टि नहीं करता।

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