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हिंदू धर्म में क्यों अहम है स्वास्तिक? मान्यताओं और ग्रंथों से समझिए

स्वास्तिक हिंदू धर्म में बहुत पवित्र और शुभ चिन्ह के रूप में माना जाता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में इसकी आकृति का वर्णन किया गया है।

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स्वास्तिक की तस्वीर, Photo Credit: AI

स्वास्तिक हिंदू धर्म में बहुत पवित्र और शुभ चिह्न के रूप में माना जाता है। यह न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण है बल्कि इसमें गहरे आध्यात्मिक और वैदिक रहस्य भी छिपे हुए हैं। स्वास्तिक का प्रयोग पूजा-पाठ, वास्तु, विवाह, त्योहारों, और धार्मिक अनुष्ठानों में बड़े आदर और श्रद्धा के साथ किया जाता है। मान्यता है कि हिंदू धर्म में स्वास्तिक को लोग वैदिक काल से शुभ संकेत के लिए जानते हैं। मान्यताओं के अनुसार, स्वास्तिक को भगवान गणेश का प्रतीक और सूर्य देवता के संकेत के रूप में माना जाता है।

 

स्वास्तिक चिह्न का अर्थ उसके शब्द में ही छुपा हुआ है। स्वास्तिक शब्द संस्कृत ले लिया गया है। यह शब्द संस्कृत के दो शब्दों 'स्व'और 'अस्ति' से मिलकर बना है। जहां स्व शब्द का अर्थ स्वयं, आत्मा और कल्याण से होता है। वहीं, अस्ति शब्द का अर्थ, है, होना और अस्तित्व से होता है। इस पूरे शब्द का अर्थ कल्याण हो, मंगल हो और शुभ हो के रूप जाना जाता है।

 

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स्वास्तिक शब्द की उत्पत्ति

मान्यताओं के अनुसार, स्वास्तिक शब्द का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद जैसे प्राचीन वैदिक ग्रंथों में मिलता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख भी किया गया है।  इसका प्रयोग उस समय से ही एक शुभ संकेत के रूप में होता आया है। यह चिह्न आमतौर पर एक क्रॉस के रूप में होता है जिसकी भुजाएं दाईं ओर मुड़ी होती हैं।

 

 

धार्मिक मान्यता में स्वास्तिक का स्थान

मान्यता है कि स्वास्तिक को भगवान गणेश का प्रतीक माना जाता है, जो बाधाओं को हरने वाले देवता हैं इसलिए स्वास्तिक को हर शुभ काम से पहले बनाया जाता है। इतना ही नहीं स्वास्तिक को सूर्य की चलन (motion) से भी जोड़ा जाता है। सूर्य को जीवनदाता और प्रकाश का स्रोत माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि स्वास्तिक की चार भुजाएं उनकी चार दिशाओं में ऊर्जा फैलाने का प्रतीक हैं। प्राचीन शिल्प और वास्तु शास्त्र में स्वास्तिक का उपयोग वास्तु दोष निवारण और निर्माण कार्यों में शुभ आरंभ के लिए किया जाता है।

स्वास्तिक और उसकी चारों भुजाओं का आध्यात्मिक महत्व

स्वास्तिक की आकृति का वर्णन युजर्वेद के एक श्लोक में किया गया है। आइए उस श्लोक के माध्यम से स्वास्तिक की आकृति के बारे में समझते हैं।

 

ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेद्राः।

स्वस्ति नस्ताक्षर्योऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति तो बृहस्पतिर्दधातु ॥ - यजुर्वेद

अर्थ-
यह चार वेदों में से एक है। इसकी पूर्व दिशा में वृद्धश्रवा इंद्र, दक्षिण में वृहस्पति इंद्र, पश्चिम में पूषा-विश्ववेदा इंद्र और उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र अवस्थित हैं। यजुर्वेद की इस कल्याणकारी एवं मंगलकारी शुभकामना, स्वस्तिवाचन में स्वस्तिक का निहितार्थ छिपा हुआ है।

 

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मान्यता है कि स्वास्तिक की आकृति चारों दिशाओं का ज्ञान कराती है। ऋग्वेद की ऋचा में स्वास्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चारों भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। प्राचीन मान्यता के अनुसार, स्वास्तिक सूर्य मंडल के चारों ओर चार विघुत केंद्र के समान लगता है। इतना ही नहीं स्वास्तिक को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। स्वास्तिक को चार वेद, चार युग, चार आश्रम और चारों पुरुषार्थ का प्रतीक माना जाता है। स्वास्तिक को भगवान विष्णु और सूर्य का आसन भी माना गया है। स्वास्तिक के मध्य केंद्र को ब्रह्मांडीय ऊर्जा का केंद्र माना जाता है।

स्वास्तिक की पौराणिक मान्यता

पौराणिक कथाओं में स्वास्तिक को भगवान विष्णु, भगवान गणेश और सूर्य देव से जोड़ा गया है। जब कोई धार्मिक अनुष्ठान शुरू होता है तो भूमि पर या दीवार पर सबसे पहले स्वास्तिक चिह्न बनाकर भगवान का आह्वान किया जाता है। इसे शुभारंभ का संकेत माना जाता है।

 

गणेशजी, जो विघ्नों को दूर करने वाले माने जाते हैं, उनकी पूजा से पहले स्वास्तिक बनाया जाता है, जिससे यह माना जाता है कि पूजा निर्विघ्न संपन्न हो। इसके अलावा, सूर्य देव, जो जीवन और ऊर्जा के स्रोत हैं, उन्हें भी स्वास्तिक के केंद्र में माना गया है। सूर्य की किरणों की तरह स्वास्तिक की भुजाएं फैलती हैं।

 

स्वास्तिक का प्रयोग राजा-राजाओं की मुहरों, मंदिरों की दीवारों, पुरातात्विक अवशेषों और यहां तक कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में भी पाया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह चिह्न सदियों से भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है।

स्वास्तिक के अन्य धर्मों में महत्व

स्वास्तिक सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म में भी महत्वपूर्ण है। बौद्ध परंपरा में इसे भगवान बुद्ध के हृदय के पास का प्रतीक माना जाता है। जैन धर्म में स्वास्तिक को चौथे तीर्थंकर भगवान अजीतनाथ से जोड़ा जाता है और यह मोक्ष की दिशा में जाने वाले मार्ग को दर्शाता है। जापान, तिब्बत, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी स्वास्तिक का उपयोग शुभता और सौभाग्य के संकेत के रूप में किया जाता है।

 

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स्वास्तिक के प्रकार

दक्षिणावर्त (Clockwise)- इस स्वास्तिक का प्रयोग शुभ और कल्याणकारी अवसर पर किया जाता है। गणेशजी और विष्णु के पूजन में इसे बनाया जाता है।

वामावर्त (Anticlockwise)-  इस स्वास्तिक का प्रयोग कुछ विशेष तांत्रिक या शक्तिपूजा अनुष्ठानों में किया जाता है। सामान्य रूप से इसका उपयोग नहीं होता।

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