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क्या है जैन धर्म के पहले तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव की कहानी?

कौन थे जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव। समाज के लिए उन्होंने क्या किया? क्या उनसे पहले 'राज्य' जैसी कोई संस्था थी? धर्म क्या था? कैसे जैन धर्म का उदय हुआ, जानिए अपने हर सवालों के जवाब।

Lord Rishabhdevnath

भगवान ऋषभदेव का जिक्र ऋगवेद में भी मिलता है। वे जैन संप्रदाय के पहले तीर्थंकर कहे गए हैं। (इमेज क्रेडिट- /www.museumsofindia.org)

भगवान ऋषभदेव, जैन धर्म के पहले प्रवर्तक हैं। सृष्टि के आरंभ में भी वे थे, इसलिए उन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। नाभिराज और मरुदेवी की संतान ऋषभदेव को जैन परंपरा में धरती का पहला राजा कहा जाता है। वे जैन परंपरा के पहले तीर्थंकर थे। उन्हें जब आत्मज्ञान प्राप्त हुआ तो वे सिद्ध हो गए। वे इक्ष्वाकु वंश में पैदा हुए थे। भगवान ऋषभदेव सभ्यता के भी पहले प्रवर्तक थे। उन्होंने अपनी प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प की शिक्षा दी। उनका जन्म, चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ था। उनका निव्राण कृ्ष्ण चतुर्दशी को कैलाशपर्वत पर हुआ था। भगवान ऋषभदेव का जिक्र हिंदू पुराणों में भी मिलता है और जैन ग्रंथों में भी। कहते हैं जो जीव तीर्थ रचना करे, व्यक्ति को जीवन-मृत्यु से पार कराकर मोक्ष दिलाए, वही तीर्थंकर है।

तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह नंदा और सुनंदा से हुआ। उनके 100 पु्त्र और दो पुत्रियां हुईं। उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम भरत था, जैन परंपरा के अनुसार, उन्हीं के नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा। नंदा के पुत्र भरत कहलाए। सुनंदा के पुत्र बाहुबली। वे संसार के पहले चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्होंने विश्वविजय किया था। उनके दूसरे पुत्र का नाम बाहुबली था। वे कामदेव थे। उन्होंने कठोर तप से कई सिद्धियां हासिल की थीं। ऋषभदेव के पुत्रों में वृषभसेन, अनंतविजय, अनंतवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर भी थे। ब्राह्मी और सुंदरी उनकी दो पुत्रियां थीं। सम्राट ऋषभ ने संसार को विद्या सिखलाकर संन्यास ले लिया था। ऐसी मान्यता है कि भगवान ऋषभ की मां मरुदेवी को उनसे पहले ही कैवल्य मिल गया था। ऋषभ के पोते मारिची महावीर हुए। भगवान ऋषभदेव को गुजरात के पालिटाना में अनंतज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने हिमालय के अष्टपद पर्वत पर मोक्ष पाया। 

वेद, पुराणों में भी है भगवान ऋषभदेव का जिक्र

भगवान ऋषभदेव का जिक्र भागवत पुराण में भी है। उन्हें भगवान विष्णु का एक अवतार कहा गया। हिंदू पुराणों के मुताबिक महाराज नाभि और मेरुदेवी ने भगवान विष्णु की आराधना की, तब जाकर भगवान ने पुत्र रूप से उनके यहां जन्म लिया। वे श्रमण धर्म के पहले प्रवर्तक बने। जैन परंपरा के मुताबिक भगवान ऋषभदेव अपने पिछले जन्म में महाविदेह क्षेत्र में व्यापारी थे। उन्होंने संतों-मुनियों की सेवाएं की। उन्होंने देव-मनुष्य के 7 जन्मों की परंपरा पूरी की और वैद्यजीवानंद के तौर पर 9वां जन्म लिया। वैद्य जीवानंद ने पांडु रोग के निदान की औषधि लेकर आए। अपने 11वें जन्म में चक्रवर्ती राजा वज्रनाभ के रूप में पैदा हुए। वे गरीब और निराश्रित जनता की सेवा करते। उन्होंने राज-पाट संभालने के बाद संन्यास लिया और फिर से मोक्ष की प्राप्ति में जुट गए। उन्होंने तीर्थंकर पद के योग्य खुद बनाया और अगले जन्म में ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया।

किस कालखंड में हुआ था तीर्थंकर का जन्म?
भगवान तीर्थंकर उस युग में जन्मे थे, जब इंसान अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति पर निर्भर था। तब जीव-जंतु भी सद्भावना के साथ एक-दूसरे के साथ रहते थे। समय में धीरे-धीरे बदलाव आया। कल्पवृक्ष की उपज कम होने लगी। जगह-जगह झगड़े होने लगे, सद्भावना घटने लगी। 'कुलकर तंत्र' का समय हो गया था। जिन लोगों ने प्रजा को जीवन निर्वाह के लिए मनु्ष्यों को कला सिखलाई, उन्हें कुलकर कहा गया। जैन परंपरा के कालचक्र की मान्यता है कि जब अवसर्पिणी काल के तीसरे भाग का अंत होने वाला था तो मनुष्य की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले 10 कल्पवृक्षों की संख्या घटने लगी थी। तब 14 पुरुष, क्रम से एक अंतराल के बाद जन्मे। इन्हें कुलकर कहा गया। अंतिम कुलकर राजा नाभिराज को कहा गया। इन कुलकरों के नाम प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुमान, यशस्वान, अभिचंद्र, चंद्राभ, मरुद्धव, प्रसेनजित और नाभिराज था। 
    
कुलकर परंपरा के बाद जन्मे थे ऋषभदेव

कुलकरों का दायित्व था कि वे कलह का नाश करें और कुल की स्थापना करें। नाभिराज के श्वेत वाराह कल्प की समाप्ति हो चुकी थी और नए युगलीय समाज की स्थापना हो गई थी। यह वह समय था, जब जुड़वा जन्मे भाई-बहन पति-पत्नी के रूप में रहने लगते थे। वृक्षों से जो मिलता था, वही लोगों का भोजन था। ज्ञान नहीं था, ऐसे में राजा की अवधारणा भी नहीं पनप पाई थी। न न्याय की आवश्यकता थी, न ही कानून थे। तब मानव में अंहकार भी नहीं था, राजस और तामस जैसे गुण नहीं थे। ऐसे समय में ऋषभदेव ने लोगों को आदिविद्या सिखलाई। वैदिक परंपरा कहती है कि 14 मनुओं में से सातवें मनु विवस्वान के पुत्र नाभि हुए। इनकी संतान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव का जन्म अपवर्षिणी काल में हुआ था। इन्हें ही जिन कहा गया। आरण्यक उपनिषद में ऋषभदेव को ब्रह्मा, तपस्वी, परमपदवान और साक्षात्परम योगी कहा गया। वे चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में जन्मे थे। उनके बाल्यकाल में कल्पवृक्षों की उपज घटने लगी। युगलियों में कलह, असंतोष और वैवाहिक अव्यवस्था होने लगी थी। उन्होंने तब युगल धर्म की स्थापना की। उन्होंने संसार को शिल्प, समाज और कृषि की शिक्षा दी। 

धरती के पहले राजा बने ऋषभदेव?
ऋषभदेव, धरती के पहले राजा बने और उन्होंने लोगों को साम, दाम, दंड जैसी नीतियों की शिक्षा दी। लोगों को सामाजिक धर्म सिखाया। उन्होंने कृषि की शिक्षा दी, सीमाओं की रक्षा के लिए हथियारों की शिक्षा दी, बर्तन बनाने, घर बनाने और समाज में रहने की शिक्षा दी। अपने बड़े पुत्र भरत को उन्होंने जीवन और राज्य करने की कला सिखाई। वे चक्रवर्ती सम्राट हुए। उन्होंने अपना राज-पाट छोड़कर साधनापूर्ण जीवन चुन लिया और आध्यात्मिक पूर्णता हासिल की। 

जानिए तीर्थंकर ऋषभदेव का वंशवृक्ष
ऋषभदेव की दो रानियां थीं। सुनंदा और सुमंगला। दोनों सगी बहनें थीं। सुनंदा की दो संताने थीं। सुंदरी और बाहुबली। सुमंगला से भरत जन्मे। ब्राह्मी और अन्य पुत्र हुए। बाहुबली की संतान वंदयशा थे। भरत के वंश में सूर्ययशा, महायशा, अतिबल, बलभद्र और कीर्तिवीर्य हुए। 

कहां जन्मे थे भगवान ऋषभदेव?
जजैन परंपराओं और भागवत में उनकी जन्मस्थली भी अयोध्या है। अयोध्या का शास्त्रीय नाम विनीता भी है। इसी अयोध्या में भगवान राम का भी जन्म हुआ। संयोग से इसी वंश-परंपरा के भगवान राम भी हैं। 

भगवान ऋषभदेव की शासन व्यवस्था कैसी थी?
मुनी सुशीलकुमार अपनी किताब 'जैन धर्म का इतिहास' में लिखते हैं कि ऋषभदेव ने ही 3 वर्णों की स्थापना की थी। उन्होंने वणिक, क्षत्रिय और शूद्रों जातियां बनाईं। इस किताब के प्रकाशक सम्यक ज्ञान मंदिर है। यह कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी। किताब में लिखा गया है कि उन्होंने छुआछूत और भेदभाव के बिना असि, मसि और कृषि की शिक्षा दी। आसान शब्दों में उन्होंने लोगों को अपनी रक्षा, लेखना और खेती का ज्ञान सिखाया। उन्होंने मनुष्यों को कल्पवृक्ष पर आश्रित होने की जगह कर्मप्रधानता सिखाई। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ से ही जीवन के साध्य पूरे हो सकते हैं। 

जैन धर्म में कल्पवृक्ष क्या है?
कल्पवृक्ष ऐसे पेड़ को कहा गया, जिसके सामने इच्छा रखने से इंसान की हर मनोकामना पूरी हो जाए। इसे हिंदू ग्रंथों में भी पवित्र माना गया है।

संसार का निर्माण काल था ऋषभ देव का काल
प्रथम तीर्थंकर के काल को निर्माण काल कहते हैं। उनकी पुत्री ब्राह्मी ने ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया था। सुंदरी ने गणित विद्या का आविष्कार किया था। उनके पुत्र भरत, राज्य की नीति पिता से सीख चुके थे। वे विद्वान और कूटनीतिज्ञ थे। बाहुबली बलवान थे और तपस्वी थे। ऋषभदेव, अब संन्यास लेना चाहते थे। उन्होंने राज्य का बंटवारा किया। उन्होंने बाहुबली और भरत में दोनों राज्यों को बांट दिया और खुद जंगल में तपस्या करने चले गए। 

क्या मनचाहा समाज बना पाए थे प्रथम तीर्थंकर?
 नहीं। ऋषभदेव के सामने ही उनके दोनों पुत्रों में विद्रोह हुआ। युद्ध हुआ। उनके 68 पुत्र निराश हो गए। ब्राह्मी और सुंदरी नाम की दोनों पुत्रियां कुंवारी रहीं। उन्होंने आजीवन कौमार्य का व्रत ले लिया। 

तीर्थंकर कैसे बने ऋषभदेव
ऋषभदेव आत्मदर्शी थे। उन्होंने तत्व ज्ञान का अध्ययन किया। उन्होंने वस्तु तत्व और विज्ञान की नींव रखी। उन्होंने सर्वज्ञता हासिल की और लोगों को भी अपनी तरह बनाया। जैन शास्त्रों में इसीलिए उन्हें तीर्थंकर कहा गया। उन्हें जिन कहा गया। जिन का अर्थ होता है कि जिन्होंने अज्ञानता पर विजय पाई और आत्मतत्व को जान गया। जिन का अर्थ विजेता हुआ। जिन्होंने जिन की दिखाई राह अपनाई, वे जैन कहलाए। जैन धर्म के पहले जिन भी भगवान ऋषभदेव हैं। उपनिषद कहते हैं कि वे ब्रह्मा और भगवान पद के अधिकारी बने। उन्हें सिद्ध कहा गया। 

जैन परंपरा के 'प्राजपति' थे ऋषभदेव
जैसे हिंदू परंपरा में दक्ष प्रजापति को संसार के लिए नीति-नियम तय करने वाला प्रथम राजा माना जाता है, वैसे ही तीर्थंकर को भी श्रमण संस्कृति में आदि पुरुष कहा जाता है। उन्होंने राज्य, गृहस्थ और वर्ण-धर्म की रचना की। उन्होंने विश्वकर्मा और प्रजापति दोनों की भूमिका निभाई। उन्होंने कर्म और ज्ञानयोग की व्याख्या की। उन्हें इसलिए ही ईश्वर जैसा सम्मान हासिल है।

कौन-कौन करता है भगवान ऋषभदेव की पूजा
भारत के आदिवासी और भील समाज में भी उनकी पूजा होती है। अवधूत परंपरा में भरोसा रखने वाले ऋषभदेव को प्रथम अवतार मानकर पूजतेहैं। वैदिक संस्कृति में भी उनकी मान्यता रही है। ऋषभ पंचमी के दिन जैन समाज के लोग व्रत-उत्सव करते हैं। जैन परंपरा में अहिंसा की प्रधानता रही, वैदिक संस्कृति में यज्ञों में भी बलि प्रथा का प्रचलन था। यही वजह है कि जैनियों ने वेद परंपरा की उपेक्षा की और वैदिक परंपरा ने जैन तत्व की।

संन्यास से यह सिखा गए थे भगवान ऋषभदेव
भगवान ऋषभदेव के सामने ही भरत और बाहुबली में युद्ध हुआ था। भरत चक्रवर्ती अभियान पर थे, बाहुबली ने उनकी दासता नहीं स्वीकारी। राजसत्ता को लेकर युद्ध की स्थिति आई तो इंद्र आए। इंद्र ने कहा कि अगर युद्ध करना है तो करो, युद्ध की लालसा मिटाओ लेकिन दूसरे प्राणियों का विकास न हो। राज्य के लोभ में दोनों भाइयों में युद्ध हुआ। बाहुबली बलशाली थे, वे भरत को मार डालने वाले थे, इससे पहले ही उन्हें आत्मग्लानि हुई।उन्होंने खुद पर ही वह प्रहार किया और अपने बाल नोंच डाले। संभवत: जैन परंपरा में केश लोचन की परंपरा की शुरुआत यहीं से हुई होगी। राज्य पर भरत का अधिकार हुआ। परिवार के दूसरे सदस्य इस क्लेश से संन्यास धर्म में दीक्षित हो गए। उन्होंने सीख लिया कि सुख त्याग में है, भोग नहीं है। राज्य करने के लिए भी तृष्णा और इच्छाओं का दमन अनिवार्य है। 

कैसे ऋषभदेव को मिला था मोक्ष?
भगवान ऋषभदेव विरक्त होकर संसार में भटकने लगे। वे अवधूत अवस्था में रहते। राजपाट त्यागने के बाद वे देशभर में भटकते रहे, लोगों को दीक्षित करते रहे। जब उनके निर्वाण का समय आया तो आठ महीने पहले ही अपने 10 हजार श्रमणों के साथ वे हिमालय के अष्टापद पर्वत पर चले गए। उन्होंने चतुर्दश साधना की और अपनी आत्मा को पवित्र कर लिया।अभिजित नक्षत्र के योग में, पर्यंकासन में बैठकर उन्होंने अपने जीवन के सभी कर्मों को नष्ट किया। उन्होंने शरीर त्याग दिया।


शिवपुराण में भी इसका जिक्र मिलता है।  त्रिपष्ठि शलाका पुरुष चरित्र ग्रंथ में लिखा गया है कि माघ कृष्ण त्रयोदशी को उन्हें निर्वाण मिला था। इस दिन उनके श्रमणों ने व्रत रखा। उनकी गति शिवगति कहलाई। इस रात्रि को शिवरात्रि कहा गया। शिव, मोक्ष और निर्वाण एक ही स्थिति कही गई। ईशान संहिता में यह भी लिखा है कि माघ कृष्ण चतुर्दशी की आधीरात में भगवान आदिदेव, जब शिवगति को प्राप्त हुए तो शिव एक लिंग के आकार में प्रकट हुए। निर्वाण से पहले वे आदिदेव कहलाते थे, शिवपद पा लेने की वजह से उन्हें शिव कहा जाने लगा। 

ऋषभदेव क्यों कहलाए जिन, उनके कर्मों से समझिए

- समाज की नींव रखी, समाज को शिल्प सिखलाया।
- राज्य, समाज और कर्मवादी संस्कृति की रचना की।
- भाई-बहन के बीच होने वाले विवाहों के प्रचलन को रोका।
- गृहस्थ धर्म और संन्यास धर्म का भेद समझाया।
- साध्वियों को समाज में पुरुषों की तरह सम्मानित होने का अधिकार दिया। 
- आत्मा की पवित्रता, ज्ञान और कर्मयोग की शिक्षा।
- भाग्यवाद की जगह कर्मवाद की सीख दी।

शिव से क्या है ऋषभदेव की समानता 
मोहनजोदड़ो की खुदाई में जो मूर्तियां मिली हैं, उनमें विद्वानों के एक धड़े का मानना है कि जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की भी मूर्तियां भी मिली हैं। योग और वैराग्य दिखाने वाली मूर्तियों की आकृति वैसी ही है, जैसे शिव की मूर्तियों की होती है। ऋग्वेद में भी उनका जिक्र मिलता है। शिव की मूर्तियों से उनकी समकक्षता भी नजर आती है। भगवान शिव भी कैलाश पर रहते थे, तीर्थंकर भी कैलाशवासी थे। इसे जोड़कर भी समानता देखी जाती है। पौराणिक परंपरा में ऋषभदेव को शिव का भी अवतार बताया गया है। उन्हें भगवान शिव के 28 योगावतारों में से एक माना गया है।

क्या शिव और ऋषभदेव एक थे?
कुछ जैन मुनियों का मानना है कि शिव और ऋषभदेव एक हो सकते हैं। दोनों का वेश दिगंबर है। दोनों का जिक्र ऋगवेद और दूसरे हिंदू ग्रंथों में मिलता है। भगवान शिव जहां नंदी की सवारी करते हैं, वहीं भगवान ऋषभदेव का चरण चिह्न ही बैल है। दोनों की जटाएं हैं। इसके उलट हिंदू धर्म ग्रंथों में शिव को पूर्ण परमात्मा कहा गया है। वे तीर्थंकर नहीं, ईश्वर कहे गए हैं। 

(इस लेख के कुछ उद्धरण 'जैनधर्म का इतिहास' किताब से लिखे गए हैं, जिसे मुनि सुशीलकुमार ने लिखा है। कुछ अन्य आलेखों से भी संदर्भ लिए गए हैं. खबरगांव इन कथाओं की पुष्टि नहीं करता है।)

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