पूर्व संसद और मेवाड़ राजघराने के सदस्य महेंद्र सिंह मेवाड़ के निधन के बाद सोमवार को उनके बड़े बेटे विश्वराज सिंह मेवाड़ का 77 वें दीवान के रूप में राज्याभिषेक हुआ। राजगद्दी संभालने के बाद महेंद्र सिंह मेवाड़ उदयपुर में स्थित सिटी पैलेस में धूणी दर्शन के लिए पहुंचें। बता दें कि मेवाड़ राजगद्दी पर जो भी नियुक्त होते हैं, उन्हें उड़ाई उदयपुर के सिटी पैलेस में स्थापित धूणी के दर्शन करना होता है। इस दौरान राज पुरोहित नए दीवान को दंड देते हैं और इसके बाद ही दीवान की पदवी मान्य होती है। हालांकि सिटी पैलेस में उन्हें दर्शन नहीं करने दिया गया, जिसके कारण उनके समर्थकों और पुलिस के बीच काफी तनातनी भी हुई। अब इस बीच कई लोगों के मन यह सवाल उठ रहा है कि धूणी दर्शन क्या है और इसका ऐतिहासिक महत्व क्या है? जानते हैं-
क्या है धूणी दर्शन?
धूणी वह पवित्र स्थान है, जहां साधु-संत या तपस्वी अखंड अग्नि प्रज्वलित करते हैं और इसे निरंतर जलाते रहते हैं। इस अग्नि को धर्म, तप और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। उदयपुर के सिटी पैलेस में धूणी को भगवान शिव और राज परिवार के इष्टदेव एकलिंगनाथ जी की कृपा व आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है। यह धूणी न केवल राज परिवार बल्कि पूरे मेवाड़ के लिए पवित्र स्थल है। मेवाड़ के शासकों ने सदैव भगवान शिव को अपना संरक्षक माना है और उनकी उपासना के लिए इस विशेष परंपरा को स्थापित की थी।
उदयपुर के सिटी पैलेस के यह धूणी शाही पूजा-अर्चना का एक महत्वपूर्ण भाग थी। मेवाड़ के महाराणा किसी भी युद्ध या महत्वपूर्ण निर्णयों से पहले यहां पूजा करते थे। ऐसी मान्यता है कि यह धूणी प्राचीन काल से जल रही है और इसे कभी बुझने नहीं दिया गया। इसे अखंड अग्नि के रूप में पूजा जाता है।
धूणी दर्शन से जुड़ी परंपराएं
मेवाड़ के महाराणाओं ने हमेशा खुद को एकलिंगनाथ जी का सेवक माना और राज्य का संरक्षक भगवान शिव को बताया। वहीं उदयपुर के सिटी पैलेस में स्थापित धूणी का भगवान एकलिंगनाथ जी की सेवा से जुड़ा हुआ है। इस धूणी को अखंड जलाए रखने की परंपरा राज परिवार और महल में रहने वाले पुजारियों द्वारा निभाई जाती थी। बता दें कि धूणी दर्शन की परंपरा केवल सिटी पैलेस या राजस्थान तक ही सीमित नहीं है। धार्मिक जानकार यह भी बताते हैं कि धूणी दर्शन की परंपरा नाथ संप्रदाय और विशेष रूप से गुरु गोरखनाथ से भी जुड़ी हुई है। नाथ योगियों के आश्रमों में धूणियां प्रज्वलित की जाती थीं, जहां योग साधना और तपस्या की जाती थी।
इसके साथ भक्तिकाल में विभिन्न संतों ने जिनमें संत कबीर, संत तुकाराम, गुरु नानक जैसे कई नाम शामिल हैं, उन्होंने भी इस परंपरा को अपनाया। इन संतों ने धूणियों को ध्यान और साधना के स्थान के रूप में उपयोग किया। इसके साथ महाराष्ट्र के शिरडी में साईंबाबा की धूणी आज भी प्रज्वलित है। यह धूणी उनकी उपस्थिति और आस्था का प्रतीक है। बता दें कि साईंबाबा की धूणी से मिलने वाली विभूति को पवित्र और चमत्कारी माना जाता है।