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आस्था और अंधविश्वास में कितना अंतर, शास्त्रों से समझें

आस्था और अंधविश्वास में बहुत बड़ा अंतर है, जिसे कई बार एक समझने की गलती की जाती है। आइए शास्त्रों से जानते हैं, दोनों में मुख्य अंतर।

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सांकेतिक चित्र(Photo Credit: AI Image)

आस्था और अंधविश्वास, ये दोनों एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं लेकिन कई बार इसे एक समझने की गलती कर बैठते हैं। दोनों के बीच का अंतर समझना हर व्यक्ति के लिए जरूरी है, खासकर जब कोई धर्म, अध्यात्म और संस्कृति से से संबंध रखता है या इनसे जुड़ना चाहता है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों ने भी इन दोनों के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से बताया है, ताकि व्यक्ति सच्ची श्रद्धा में दृढ़ रहे और अज्ञानता के कारण गलत राह न पकड़े। आइए जानते हैं, क्या है आस्था और अंधविश्वास में अंतर।

आस्था क्या है?

धर्म-शास्त्रों में आस्था का अर्थ विश्वास, श्रद्धा और ज्ञान को बताया गया है। यह तर्क, अनुभव और आत्मिक ज्ञान पर आधारित होती है। जब कोई व्यक्ति धर्म, ईश्वर या जीवन के उच्च सिद्धांतों में विश्वास करता है, तो वह आस्था कहलाती है। आस्था व्यक्ति को प्रेरणा देती है। कहते हैं आस्था से जीवन में नैतिकता और संयमता आती है।

श्रीमद्भगवद्गीता (च. 17, श्लोक 3)

'सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥'

 

इसमें भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि 'हे भारत (अर्जुन)! प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। मनुष्य श्रद्धा से ही बना है, जैसा उसकी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बनता है।' इस श्लोक में बताया गया है कि आस्था व्यक्ति के चरित्र और स्वभाव को निर्धारित करती है। सही दिशा में श्रद्धा मनुष्य को महान बना देती है।

 

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अंधविश्वास क्या है?

अंधविश्वास का अर्थ है- बिना किसी तर्क, प्रमाण या समझ के किसी चीज पर विश्वास कर लेना। यह डर, भ्रम या परंपराओं के गलत पालन से उत्पन्न होता है। अंधविश्वास व्यक्ति के सोचने-समझने की शक्ति को कमजोर करता है और गलत निर्णयों की ओर ले जाता है। इसी वजह से बार हम देखते हैं कि अंधविश्वास के कारण लोग कई ऐसे गलत फैलसे ले लेते हैं, जिसका परिणाम बहुत गंभीर या डरावना होता है।

मनुस्मृति (2.12)

'विधिविहीनं कर्म यत् क्रियते मोहात् आत्मनः।
न स सिद्धिं अवाप्नोति न च धर्मं स विन्दति॥'

 

मानुस्मृति के श्लोक में बताया गया है कि जो कार्य विधि (शास्त्रों) के अनुसार नहीं होता और केवल भ्रम में किया जाता है, उससे न सिद्धि मिलती है और न धर्म की प्राप्ति होती है। यह स्पष्ट करता है कि जो कर्म बिना ज्ञान और समझ के किया जाए- वह चाहे कितना भी धार्मिक दिखे, वह धर्म नहीं होता।

आस्था और अंधविश्वास में मूल अंतर

बता दें कि शास्त्रों में आस्था का मूल आधार ज्ञान, तर्क, अनुभव व शास्त्र को दिया गया है, वहीं अंधविश्वास का आधार अज्ञानता, डर, भ्रम है। अंधविश्वास के कारण भ्रम और डर फैलता है, जिससे नुकसान भी हो सकता है। वहीं ज्ञान से जागृत हुई आस्था से मानसिक शांति मिलती है और विकास होता है।

धर्मग्रंथों में चेतावनी

योगवशिष्ठ में कहा गया है:

 

'न शास्त्रं न गुरुर्वक्ता यत्र मोहस्ततो भयम्।'

 

जिसका अर्थ है कि जहां अज्ञान और भ्रम होता है, वहां न तो शास्त्र काम आते हैं और न गुरु की बात।

 

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वहीं भगवद्गीता (4.34) में कहा गया है-

 

'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥'

 

जिसका अर्थ है कि 'ज्ञानियों के पास जाकर विनम्रता, प्रश्न और सेवा के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करो। वे तुम्हें सत्य का ज्ञान देंगे।' इसलिए आस्था के मार्ग में इस बात पर जोर दिया जाता है कि अध्यात्म की प्राप्ति के लिए सच्चा ज्ञान गुरु या शास्त्र से लिया जाना चाहिए, न कि बिना सोचे समझे किसी बात को मानने से।

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