छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में हर साल मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा अपनी अनोखी परंपरा और सांस्कृतिक महत्व के लिए देश-दुनिया में प्रसिद्ध है। यह त्योहार रावण वध या विजय का प्रतीक नहीं है, बल्कि देवी दंतेश्वरी और स्थानीय देवी-देवताओं की आराधना का एक जीवंत उत्सव है। इस पर्व का इतिहास लगभग 600 साल पुराना माना जाता है और इसे स्थानीय आदिवासी समुदायों की आस्था, शक्ति और परंपराओं का प्रतीक माना जाता है। बस्तर दशहरा का आरंभ हरियाली अमावस्या से होता है, जब विशालकाय रथों का निर्माण किया जाता है। स्थानीय आदिवासी इन रथों को साल की लकड़ी से बनाते हैं और उनके सजावट में फूल, धागे और पारंपरिक प्रतीक शामिल होते हैं। देश के गृह मंत्री अमित शाह भी 4 अक्टूबर 2025 को इस कार्यक्रम में शामिल होंगे और देवी मातेश्वरी का दर्शन पूजन करेंगे।
पर्व के दौरान मावली परघाव, काछिन गादी, निशा जात्रा और मूरिया दरबार जैसे अनेक अनुष्ठान और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। इनमें देवी की पूजा के साथ-साथ स्थानीय समाज की सामाजिक और राजनीतिक संरचना भी परिलक्षित होती है। श्रद्धालु मानते हैं कि इस पर्व में सम्मिलित होकर वे देवी की कृपा प्राप्त करते हैं, संकट और भय से मुक्ति पाते हैं और जीवन में सुख-शांति और समृद्धि लाते हैं।

बस्तर दशहरा का ऐतिहासिक महत्व
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा भारत के सबसे अनूठे और लंबे त्योहारों में से एक है। बस्तर दशहरा का पर्व 75 दिनों तक चलता है। यह पर्व लगभग 600 वर्ष पुराना माना जाता है और इसकी शुरुआत 14वीं सदी में चालुक्य वंश के शासक राजा पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में हुई थी। मान्यता के अनुसार, राजा ने जगन्नाथपुरी की यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ से एक विशेष रथ प्राप्त किया था, जिसे उन्होंने अपनी इष्ट देवी दंतेश्वरी को समर्पित किया। तब से यह पर्व बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन गया है।

मुख्य मान्यता
बस्तर दशहरा रावण वध पर आधारित नहीं है। यह पर्व देवी दंतेश्वरी और अन्य स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। यहां रावण को बुरा नहीं माना जाता, बल्कि उसे वीर योद्धा और शिव भक्त के रूप में सम्मानित किया जाता है।

मुख्य कार्यक्रम:
रथ निर्माण और रैनी (रथ यात्रा):
पर्व की शुरुआत हरियाली अमावस्या से होती है, जब रथ निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। विशालकाय रथों का निर्माण स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोग साल की लकड़ी से करते हैं। यह रथ लगभग 35 फीट ऊंचे होते हैं और इन्हें परिक्रमा के लिए निकाला जाता है।
मावली परघाव:
यह एक विशेष अनुष्ठान है जिसमें देवी दंतेश्वरी को उनके मायके डंकेल गांव से लाकर पूजा अर्चना की जाती है। यह अनुष्ठान बस्तर की सांस्कृतिक और धार्मिक एकता का प्रतीक माना जाता है।
काछिन गादी और निशा जात्रा:
काछिन गादी परंपरा में एक नाबालिक लड़की पर काछिन देवी का प्रभाव गहराया जाता है। निशा जात्रा में आधी रात को भैंसों की बलि दी जाती है, जो कृषि और पशुधन की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
मूरीया दरबार:
यह परंपरा 600 साल पुरानी है, जिसमें आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधि राजा या प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर अपनी समस्याएं साझा करते हैं। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया बस्तर की सामाजिक संरचना को दर्शाती है।
समाप्ति और सांस्कृतिक समापन
बस्तर दशहरा का समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को होता है, जब देवी दंतेश्वरी की विदाई होती है। इस दिन देवी की पूजा अर्चना के साथ-साथ रथों की परिक्रमा और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।