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क्या है 'विंड ड्रॉट्स'? इससे भारत में कैसे ऊर्जा उत्पादन संकट में है?

दुनिया में क्लामेट चेंज की वजह से हवाओं के बहने की गति में परिवर्तन हो रहा है जिसकी वजह से विंड एनर्जी संकट में पड़ सकता है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब न केवल तापमान वृद्धि और बर्फबारी के पिघलने तक सीमित हैं, बल्कि यह ऊर्जा उत्पादन में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले पवन संसाधनों पर भी गंभीर असर डाल रहे हैं। हाल ही में Nature Climate Change में प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि दुनिया भर में 'विंड ड्रॉट्स' यानी हवा की रफ्तार में लंबे समय तक गिरावट आने की घटनाएं बढ़ रही हैं। यह न केवल अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए चिंता का विषय है, बल्कि वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा और कार्बन न्यूट्रल लक्ष्यों के लिए भी एक गंभीर खतरा है।

 

भारत जैसे देश, जो अपनी नवीकरणीय ऊर्जा की रणनीति में पवन ऊर्जा को एक मजबूत स्तंभ मानते हैं, वहां इस तरह की घटनाएं ऊर्जा आपूर्ति को बाधित कर सकती हैं। इस लेख में खबरगांव इसी बात की पड़ताल करेगा कि विंड ड्रॉट्स क्या हैं, क्यों बढ़ रहे हैं, और इनका वैश्विक व भारत के ऊर्जा तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि पॉलिसी बनाने वालों के लिए और ऊर्जा कंपनियों के लिए इसमें क्या संकेत छिपे हैं?

 

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विंड ड्रॉट्स क्या होते हैं?

विंड ड्रॉट्स उस मौसम संबंधी स्थिति को कहा जाता है जब किसी क्षेत्र में हवा की औसत गति सामान्य से लगातार कम बनी रहती है। यह स्थिति कुछ दिनों से लेकर कई हफ्तों तक बनी रह सकती है और खासकर उन क्षेत्रों के लिए बड़ी चुनौती होती है जो पवन ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर होते हैं। हवा की गति में अचानक और लंबे समय तक आई गिरावट से टर्बाइनों की उत्पादन क्षमता घट जाती है, जिससे न केवल बिजली उत्पादन में कमी आती है, बल्कि ऊर्जा ग्रिड की स्थिरता भी प्रभावित होती है। बदलते जलवायु पैटर्न और वैश्विक वायुमंडलीय असंतुलन की वजह से विंड ड्रॉट्स की घटनाएं अब अधिक बार और तीव्रता के साथ देखने को मिल रही हैं।

 

वर्ष 2021 में यूके और जर्मनी जैसे देशों में आई विंड ड्रॉट्स के चलते पवन ऊर्जा उत्पादन में 20 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई थी, जिससे इन देशों को कोयला और गैस जैसे परंपरागत स्रोतों की ओर रुख करना पड़ा। भारत में भी यह समस्या सामने आई है। जुलाई-अगस्त 2022 के दौरान तमिलनाडु और गुजरात जैसे पवन ऊर्जा पर आधारित राज्यों में औसत हवा की गति में 12 प्रतिशत तक की कमी देखी गई, जिससे वहां के ग्रिड संचालन और ऊर्जा आपूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। ऊर्जा सुरक्षा और अक्षय स्रोतों की विश्वसनीयता के लिए विंड ड्रॉट्स एक गंभीर खतरा बनकर उभरे हैं। इस कारण अब वैज्ञानिक और नीति-निर्माता दोनों ही इस पर शोध और रणनीति निर्माण की दिशा में गंभीरता से प्रयासरत हैं।

रिपोर्ट में क्या है?

Nature Climate Change पत्रिका में प्रकाशित हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर हवा की गति में गिरावट एक चिंताजनक रुझान बनता जा रहा है। यह गिरावट सामान्य मौसमी उतार-चढ़ाव का हिस्सा नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित एक स्थायी बदलाव मानी जा रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण वायुमंडलीय परिसंचरण प्रणाली में बड़ा बदलाव आ रहा है, जिसके चलते हवा की रफ्तार और दिशा प्रभावित हो रही है। इसका प्रत्यक्ष असर विंड ड्रॉट्स यानी हवा की कमी की स्थितियों की बढ़ती आवृत्ति और अवधि पर देखा जा रहा है।

 

रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन दर पर नियंत्रण नहीं पाया गया, तो वर्ष 2040 तक दुनिया के कई हिस्सों में साल के 30 प्रतिशत समय तक विंड ड्रॉट्स जैसी स्थितियां बनी रह सकती हैं। इसका सीधा असर उन देशों की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ेगा जो पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों पर निर्भर हैं। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अगर तापमान वृद्धि को सीमित करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो न केवल जलवायु असंतुलन और बढ़ेगा, बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों की विश्वसनीयता और आपूर्ति भी खतरे में पड़ सकती है। इस रिपोर्ट ने ऊर्जा संबंधी पॉलिसी बनाने वालों और को स्पष्ट संकेत दिया है कि उन्हें भविष्य की ऊर्जा योजनाओं में जलवायु जोखिमों को शामिल करना होगा, ताकि स्थायी और भरोसेमंद ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

 

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भारत में असर

Nature Climate Change पत्रिका में प्रकाशित हालिया रिपोर्ट में यह बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर हवा की गति में गिरावट एक चिंताजनक रुझान बनता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के चलते दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत में विंड ड्रॉट की घटनाएं भविष्य में काफी मात्रा में बढ़ सकती हैं। भारत की ऊर्जा जरूरतों में नवीकरणीय स्रोतों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। 2024 तक भारत की कुल स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता 45 गीगावाट से अधिक थी, जो कुल नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लगभग 34% है। लेकिन विंड ड्रॉट की स्थिति में यह उत्पादन 20-30% तक गिर सकता है। उदाहरण के लिए, 2021 की गर्मियों में तमिलनाडु में पवन ऊर्जा उत्पादन में काफी गिरावट दर्ज की गई थी, जिससे राज्य को कोयला आधारित आपूर्ति पर निर्भर होना पड़ा।

 

विशेषज्ञों के अनुसार, जून से सितंबर तक का मानसून काल भारत में पवन ऊर्जा उत्पादन का चरम समय होता है, लेकिन विंड ड्रॉट के कारण इसी अवधि में उत्पादन अनिश्चित हो सकता है। इससे ग्रिड अस्थिरता, बिजली की कटौती और डीज़ल/कोयला आधारित बिजली संयंत्रों पर बोझ बढ़ सकता है।

 

तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र पवन ऊर्जा पर सबसे अधिक निर्भर राज्य, जहां विंड ड्रॉट से औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है। इससे ऊर्जा लागत में वृद्धि होगी और वैकल्पिक स्रोतों पर निर्भरता बढ़ेगी व से उपभोक्ता शुल्क बढ़ सकते हैं।

क्या कहते हैं आंकड़े

भारत के मौसम विभाग (IMD) के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो दशकों में भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों—विशेषकर गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में—औसत हवा की गति में हर वर्ष गिरावट दर्ज की गई है। लंबे समय तक चलने वाले इस रुझान का पवन ऊर्जा उत्पादन पर गहरा असर पड़ता है। यह गिरावट केवल एक संस्था का विश्लेषण नहीं है। Copernicus Climate Data Store और NASA के MERRA-2 जैसे अंतरराष्ट्रीय जलवायु मॉडल भी इसी ट्रेंड की पुष्टि करते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह परिवर्तन वैश्विक जलवायु प्रणाली में गहरे बदलाव का संकेत है।

 

खासकर जुलाई 2023 में, जब भारत के कई हिस्सों में मानसून सक्रिय था, गुजरात और महाराष्ट्र में हवा की औसत गति सामान्य से लगभग 15 प्रतिशत कम रही। इसका सीधा प्रभाव इन राज्यों में स्थित विंड फार्मों के उत्पादन पर पड़ा, जिससे उनकी आउटपुट क्षमता घट गई और ग्रिड में ऊर्जा की आपूर्ति बाधित हुई। यह डेटा यह दर्शाता है कि जलवायु परिवर्तन के चलते न केवल तापमान, बल्कि हवा की गतिशीलता भी प्रभावित हो रही है, और यह नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की दीर्घकालिक विश्वसनीयता के लिए एक नई चुनौती बनकर उभर रही है। इसलिए, अब जरूरी हो गया है कि नीति-निर्माण, ऊर्जा योजना और जलवायु मॉडलिंग में हवा से जुड़ी प्रवृत्तियों को भी गंभीरता से शामिल किया जाए।

क्या है समाधान?

विंड ड्रॉट्स जैसी बढ़ती जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए ऊर्जा नीति में व्यापक बदलाव और तकनीकी नवाचार की आवश्यकता है। सबसे पहले, हाइब्रिड ग्रिड मॉडल को बढ़ावा देना जरूरी है, जिसमें पवन और सौर ऊर्जा दोनों को एकीकृत कर एक लचीली और स्थिर ग्रिड प्रणाली तैयार की जाए। यह मॉडल तब विशेष रूप से कारगर होता है जब हवा की गति कम हो लेकिन सूरज की रोशनी उपलब्ध हो, जिससे ऊर्जा आपूर्ति में संतुलन बना रहता है। इसके साथ ही, स्मार्ट ग्रिड और बैटरी स्टोरेज तकनीकों का तेज़ी से विकास और विस्तार आवश्यक है। स्मार्ट ग्रिड से न केवल ऊर्जा का कुशल प्रबंधन संभव है, बल्कि यह अचानक आई विंड ड्रॉट जैसी परिस्थितियों में ग्रिड को स्थिर बनाए रखने में भी मदद करता है।

 

तीसरा समाधान है पवन टरबाइन डिज़ाइन में सुधार, ताकि वे कम हवा की स्थिति में भी प्रभावी रूप से कार्य कर सकें। ऐसी तकनीकें विकसित की जा रही हैं जो लो-विंड-कंडीशन में भी ऊर्जा उत्पादन को बनाए रखती हैं। अंततः, जलवायु अनुकूलन नीति के तहत विंड ड्रॉट्स को राष्ट्रीय जलवायु जोखिम मानचित्र में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि यह समस्या नीति-निर्माताओं और योजना आयोग के एजेंडा में शामिल हो। इससे दीर्घकालिक रणनीति बनाना आसान होगा और जलवायु जोखिमों को समय रहते पहचाना जा सकेगा। इन उपायों से ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत किया जा सकता है और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की विश्वसनीयता को बनाए रखा जा सकता है।

 

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जलवायु परिवर्तन के कई अप्रत्यक्ष प्रभाव हैं, और विंड ड्रॉट्स उनमें से एक गंभीर संकेतक के रूप में उभर रहे हैं। यह केवल ऊर्जा आपूर्ति की बात नहीं है, बल्कि ऊर्जा के टिकाऊ विकास और जलवायु अनुकूलन की व्यापक रणनीतियों से जुड़ा हुआ मुद्दा है। यदि भारत और दुनिया समय रहते सतर्क नहीं हुए, तो पवन ऊर्जा जैसी स्वच्छ ऊर्जा स्रोत भी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। नीति, तकनीक के साथ-साथ व्यवहारिक तौर पर भी हमें तीनों मोर्चों पर जल्द से जल्द और ठोस कदम उठाने होंगे।

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