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खो-खो: सैकड़ों साल पुराना हिंदुस्तानी खेल, जो अचानक से बन गया ग्लोबल

गली-मोहल्ले में खेले जाने वाला देसी खेल खोखो, इंटरनेशनल कैसे हुआ, क्या आपको इसके बनने का इतिहास पता है, अगर नहीं तो जानिए इसका दिलचस्प किस्सा।

Kho Kho Indian Sports

खो-खो खेलते हुए खिलाड़ी. (फोटो क्रेडिट- facebook.com/hokhoWC)

साल था 1936। एक खेल, जिसे भारत के गली-मोहल्लों में खेला जा रहा था, अचानक उसके इंटरनेशनल होने की बारी आ गई। बर्लिन ओलंपिक में इस खेल को पहला वैश्विक मंच मिला। इस खेल की तब वहां प्रदर्शनी हुई थी। जिन दिग्गजों के सामने लोग इस खेल को खेल रहे थे, उनमें एक नाम, दुनिया के सबसे कुख्यात तानाशाह एडोल्फ हिटलर का भी नाम शामिल था। वह दौर, हिटलर का दौर था और तानाशाह, जर्मनी का चांसलर बन चुका था। क्या है इस सामान्य से खेल के असली कहानी, कहां ये खेल पैदा हुआ, आइए समझते हैं।

 

खो-खो खेल, भारत के पारंपरिक खेलों में से एक है। साल 1914 के दौर में पुणे में दक्कन जिमखाना नाम का एक स्थानीय स्पोर्ट क्लब हुआ करता था। यहां खोखो खेल भी खेला जाता था। कुछ बड़े घरों के साहब लोग भी इस खेल को खेल रहे थे। दक्कन जिमखाना से ही इस खेल के कुछ नियम कानून तय किए गए।

 

साल 1935 में अखिल महाराष्ट्र शरीरिक शिक्षण मंडल ने इस खेल के कुछ नए मानक बनाए। खोखो को देश के अलग-अलग हिस्सों में हजारों साल से खेला जा रहा है। महाराष्ट्र के कई जिलों में ये खेल जिला स्तर पर खेला जा रहा था। साल 1943 में बृहण महाराष्ट्र शीरीरिक शिक्षण मंडल ने खेल में एक जैसे नियम-कानूनों को लेकर कुछ नए मानक तय किए। 


कब खो-खो को मिली राष्ट्रीय पहचान?

खो-खो खेल, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, केरल, गुजरात, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में नियमित रूप से खेला जाने लगा। राष्ट्रीय स्तर पर इस खेल को लेकर कोई एक संस्था नहीं थी, जो इसके नियम कानून तय कर सके। साल 1945 तक, महाराष्ट्र के एक खेल प्रेमी काशीनाथ उर्फ भाई नेरुरक की कोशिशों के बाद साल 1954 में ओडिशा के बाराबत्ती स्टेडियम में खो-खो फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। 

देखते ही देखते छा गया ये देसी खेल

खो-खो खेल के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार 1960 में आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में एक राष्ट्रीय चैम्पियनशिप की घोषणा की गई। यह पहल काम आई। स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालयों में एक खेल के तौर पर इसे मान्यता दे दी गई। केंद्र सरकार ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स पटियाला (NIS) में खो-खो को एक कोर्स के तौर पर मान्यता दे दी। महाराष्ट्र सरकार ने राज्य खो-खो एसोसिएशन की मदद से पहले ही NIS में शामिल होने का प्रस्ताव भेज दिया था। 

 

क्यों ओलंपिक तक नहीं पहुंचा ये गेम?
यह गेम भी वैश्विक खेलों की राजनीति का शिकार है। इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन ने खो-खो को मान्यता दी है। राज्य ओलंपिक निकायों ने भी इसे स्वीकार किया है। यह खेल देशभर में प्रसिद्ध है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और नेशलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) चीफ शरद पवार ने इस खेल को आगे बढ़ाने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। 

 

कब दुनिया में फेमस हुआ खो-खो?
आजाद भारत में खो-खो को पहली बार वैश्विक स्तर पर 1987 में खेला गया था। कोलकाता में हुए तीसरे दक्षिण एशियाई खेलों में खो-खो भी खेला गया था। यह खो-खो की वैश्विक खेलों में आधिकारिक एंट्री थी। तब से लेकर अब तक खो-खो की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है।  यह दक्षिण एशियाई देशों में खूब खेली जाती है। भारत, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देश इस खेल में अच्छा काम कर रहे हैं। यह खेल अब यूरोपीय देशों में भी खेला जा रहा है।

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