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त्रिवेणी संघ से मंडल तक: बिना जातीय समीकरण नहीं चलती बिहार की सियासत

बिहार की सियासत में जातिगत राजनीति हमेशा हावी रही है। सभी दल इसको ध्यान में रखकर ही अपने समीकरण बैठाते हैं। बिहार में जातिगत सियासत की जड़ें आजादी से पहले तक जाती हैं।

Bihar Election News.

बिहार की सियासत। (AI Generated Image)

संजय सिंह/पटना: बिहार के कई नेताओं का सियासी भविष्य जातीय राजनीति पर टिका है। हर चुनाव से पहले जातीय लामबंदी का खेल शुरू हो जाता है। बिहार की सियासत में जातीय समीकरण साधने का इतिहास काफी पुराना है। मंडल आंदोलन के समय से ही नहीं, बल्कि बिहार में जातीय सियासत का उदय आजादी से पहले हो चुका था। उस वक्त त्रिवेणी संघ बनाया गया था। इसमें तीन जातियां शामिल थी। बाद में भी समय-समय पर नेता अपनी जातियों के सम्मलेन के दौरान शक्ति प्रदर्शन करते हैं। सियासी दलों में भी इन्हीं नेताओं की खूब सुनी जाती है।

 

बिहार में आजादी के पहले बने त्रिवेणी संघ में कुर्मी, यादव और कोइरी नेताओं को जोड़ा गया था। 70 और 80 के दशक में पिछड़ा आंदोलन तेज हुआ। बाद में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं का उदय इसी त्रिवेणी संगम की देन है। मौजूदा समय में भले ही त्रिवेणी संघ का उतना महत्व न बचा हो लेकिन बिहार की सियासत को जाति से अलग नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में भी नेताओं का कद जातीय समीकरण के मुताबिक तय होता है। 

 

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मंडल आंदोलन के समय भी मिला बढ़ावा

पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समय मंडल आंदोलन की शुरुआत हुई। अलग-अलग बैनर तले जातीय गोलबंदी होने लगी। इस आंदोलन के समय भी आबादी के हिसाब से सत्ता में भागीदारी की मांग उठने लगी थी। मांग के आगे विभिन्न राजनीतिक दल के नेताओं को झुकना पड़ा। पिछड़ों की सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ गई। अब अगड़े नेताओं की जगह अब पिछड़े नेताओं ने सत्ता की बागडोर थाम ली और बिहार की सियासत में अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति शुरू हो गई। 

भोजपुर में नक्सली आंदोलन का उदय

भोजपुर में शहीद जगदेव प्रसाद ने पिछड़ों को जगाने का काम किया। उनका नारा था पिछड़ा पावे सौ में साठ। उस समय के माहौल में पिछड़ों के बीच यह नारा बढ़ चढ़कर बोल रहा था। उन्होंने जमींदारी प्रथा का भी जमकर विरोध किया। दरअसल, अधिकांश जमीनें अगड़ जातियों के पास थी। पिछड़ों के हिस्से में सिर्फ मजदूरी आती थी। जगदेव प्रसाद ने इस परिस्थिति का बेहतर अध्ययन किया और फिर एक नया नारा गढ़ा। यह नारा था 'अबकी बेरिया भादो में, गोरी कलइया कादो में'। इस नारे के बाद किसानों और मजदूरों के बीच दूरी बढ़ने लगी। धीरे-धीरे भोजपुर का इलाका नक्सली आंदोलन की तरफ बढ़ने लगा।

 

जातिगत सियासत से कोई दल अछूता नहीं

बिहार की सियासत में जाति से कोई अछूता नहीं है। बीजेपी भी यहां जातीय समीकरण का खासा ध्यान रखती है। जाति समीकरण के मुताबिक प्रदेशाध्यक्ष का चेहरा तय होता है। कभी कमान अगड़ा तो कभी पिछड़ा को दी जाती है। मौजूदा समय में बिहार में दो डिप्टी सीएम हैं। दोनों बिहार के हैं। एक का ताल्लुक अगड़ी और दूसरे का  मंत्रिमंडल में भी जातीय समीकरण का पूरा ध्यान रखा जाता है। वर्तमान सरकार में भाजपा के दो उप मुख्यमंत्री हैं। एक अगड़ी जाति का है तो दूसरा पिछड़ी जाति का है।

 

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विभूतियों के नाम पर बने जातीय संगठन

इतिहास की महान विभूतियों के नाम पर बिहार में कई जातीय संगठन बने हैं। इन संगठनों के जरिए नेता अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। यही शक्ति प्रदर्शन पार्टी में उनके कद को निर्धारित करता है। 

 

  • सम्राट अशोक मंच - कुशवाहा 
  • स्वामी सहजानंद मंच - भूमिहार
  • परशुराम मंच - ब्राह्मण 
  • महाराणा प्रताप मंच - राजपूत
  • बाबा चोहरमल मंच - पासवान
  • रैदास मंच - रविदास
  • फूलन देवी मंच - सहनी

 

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