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दक्षिण में हिंदी का विरोध क्यों? 'थ्री लैंग्वेज वॉर' की पूरी कहानी

केंद्र और तमिलनाडु सरकार के बीच तीन भाषा नीति को लेकर विवाद बना हुआ है। अब तेलंगाना सरकार ने भी सभी स्कूलों के लिए तेलुगु भाषा अनिवार्य करने की घोषणा कर दी है।

Tamil Nadu Language War

हिंदी भाषा, Photo Credit: Pixabay

'केंद्र हमारे ऊपर हिंदी न थोपे', तीन भाषा विवाद के बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने यह बयान दिया है। स्टालिन ने यह भी कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो उनका राज्य एक और लैंग्वेज वॉर (भाषा युद्ध) के लिए तैयार है।

 

दक्षिण राज्यों और केंद्र के बीच तीन-भाषा नीति को लेकर कई समय से विवाद बना हुआ है। जब 2019 में नई शिक्षा नीति लागू हुई तो इससे तनाव और भी अधिक बढ़ गया। दरअसल, नई शिक्षा की नीति के तहत हर राज्य के छात्रों को तीन भाषा पढ़नी और सीखनी होगी जिसमें से एक हिंदी भाषा भी है। 

 

DMK ने किया तीन भाषा नीति का विरोध

बता दें कि एमके स्टालिन के नेतृत्व वाली द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने लगातार तीन-भाषा नीति का विरोध किया है। हमेशा से इस बात पर जोर दिया जाता है कि तमिलनाडु में तमिल अंग्रेजी भाषा ही जारी रहेगी। सत्तारूढ़ पार्टी ने 1965 के हिंदी विरोधी आंदोलनों का हवाला दिया जिसमें द्रविड़ आंदोलन ने हिंदी को थोपने का विरोध किया था। स्टालिन ने भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पर राज्य पर हिंदी थोपने का प्रयास करने का आरोप लगाया है।

 

दरअसल, तमिलनाडु की भाषा नीति ऐतिहासिक रूप से दो-भाषा फॉर्मूला (तमिल और अंग्रेजी) को प्राथमिकता देती आई है और हिंदी को अनिवार्य रूप से लागू करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाता रहा है। आखिर क्या है यह बवाल, समझिए...

 

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तीन-भाषा नीति पर बवाल क्यों?

तमिलनाडु में हिंदी विरोध का एक लंबा इतिहास रहा है। राज्य में 1937 से ही हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रयासों का विरोध होता रहा है। इसके अलावा तमिल भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए स्थानीय पार्टियां हिंदी को थोपे जाने के रूप में देखती हैं। डीएमके और अन्य द्रविड़ पार्टियां हिंदी के विरोध को अपने क्षेत्रीय और राजनीतिक एजेंडे के रूप में इस्तेमाल करती हैं। वहीं, तमिलनाडु में अंग्रेजी को हिंदी के बजाय संपर्क भाषा के रूप में प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय अवसर प्रदान करती है।

 

तमिलनाडु हिंदी को प्राथमिकता क्यों नहीं देता?

दरअसल, ऐतिहासिक हिंदी विरोध आंदोलनों की वजह से राज्य सरकार हिंदी को जबरदस्ती लागू करने के प्रयासों का विरोध करती आ रही है। राज्य का तर्क है कि हिंदी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अंग्रेजी पहले से ही एक व्यापक रूप से हर जगह इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बन गई है। वहीं, क्षेत्रीय पहचान और तमिल भाषा की समृद्धि को बनाए रखने के लिए राज्य हिंदी से दूरी बनाए रखता है। 

 

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तमिलनाडु के बाद तेंलगाना सरकार का ये आदेश

हिंदी भाषा विवाद के बीच तेलंगाना सरकार ने कहा कि छात्रों को उनकी मातृभाषा सीखने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से, सभी स्कूलों के लिए तेलुगु अनिवार्य कर दी जाएगी। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि क्लास 9वीं और 10वीं के छात्रों के लिए सिलेबस से स्टैंडर्ड तेलुगु से हटाकर सिंपल तेलुगु में शिफ्ट कर दिया जाएगा। तेलंगाना सरकार का यह आदेश तीन-भाषा नीति को लेकर तमिलनाडु और  केंद्र सरकार के बीच चल रहे 'भाषा युद्ध' के बीच आया है। बता दें कि तेलंगाना में, तेलुगु प्रमुख भाषा है। 

 

इन राज्यों में भी हिंदी भाषा का विरोध

बता दें कि तमिलनाडु के अलावा केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदी भाषा के अनिवार्य थोपे जाने को लेकर समय-समय पर विरोध होता रहा है। इन राज्यों में स्थानीय भाषाओं को बचाने और हिंदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए कई आंदोलन भी हुए हैं।

 

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केरल की प्राथमिक भाषा मलयालम है और कई बार राज्य सरकार और स्थानीय संगठनों ने हिंदी अनिवार्यता के खिलाफ आवाज उठाई है। कर्नाटक में 'हिंदी इम्पोजिशन' (हिंदी थोपने) के खिलाफ विरोध होता रहा है। पश्चिम बंगाल में बंगाली भाषा को प्राथमिकता दी जाती है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने कई बार हिंदी थोपने के प्रयासों का विरोध किया है। इसके अलावा महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए समय-समय पर हिंदी के प्रभाव का विरोध किया जाता रहा है।

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