नीतीश कुमार ने 2005 से 2010 के बीच बिहार की तस्वीर पूरी तरह बदलने की कोशिश की। उनके पहले के वर्षों में राज्य में सड़कों, पुलों और आम इंफ्रास्ट्रक्चर की हालत बेहद खराब थी, भ्रष्टाचार और घोटालों का बोलबाला था। नीतीश कुमार के नेतृत्व में नई सरकार बनी तो प्राथमिकता के आधार पर सड़क निर्माण, पुराने रास्तों का जीर्णोद्धार और पुलों का चौड़ीकरण हुआ। नए पुलों और सड़क नेटवर्क के विस्तार के साथ-साथ, ग्रामीण इलाकों में बारहमासी संपर्क बढ़ा। इन पांच वर्षों में गंगा, कोसी, सोन और गंडक जैसी प्रमुख नदियों पर कई नए पुल बनाए गए, रेल ओवरब्रिजों की संख्या बढ़ाई गई और उसके दीर्घकालीन मरम्मत की नीति लागू की गई, जिससे यातायात, कारोबार और आम जनजीवन में उल्लेखनीय सुधार आया।​

 

2010 के चुनाव में इन विकास कार्यों का प्रभाव साफ तौर पर दिखा। चुनाव के वक्त परिस्थितियां बदल चुकी थीं – जनता में विश्वास था कि कानून-व्यवस्था बेहतर हुई है, ‘जंगलराज’ का दौर खत्म हुआ और विकास की रफ्तार तेज है। राजनीति में जातिगत समीकरणों के साथ-साथ सुशासन, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर वोटिंग हुई। नीतीश कुमार और उनके गठबंधन ने प्रचंड बहुमत हासिल किया, पूरे राज्य में उनकी छवि ‘सुशासन बाबू’ की बन चुकी थी।​

 

यह भी पढ़ें: बिहार चुनाव 1995: EC ने ऐसा क्या किया कि लालू ने 'पागल सांड' कह दिया?

 

चुनाव परिणाम आने के बाद आरजेडी ने हार स्वीकार की, लेकिन अपनी हार को नीतीश सरकार द्वारा की गई सोशल इंजीनियरिंग, अति पिछड़ों तथा महादलितों को साधने की रणनीति और कानून-व्यवस्था की बहस तक सीमित किया। आरजेडी ने इसे ईवीएम की गड़बड़ी समेत कई तर्कों से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन जनता का रुख और 2010 की प्रचंड जीत ने नीतीश कुमार की विकासवादी राजनीति की पुष्टि की।

लालू ने लगाए आरोप

2010 का बिहार विधानसभा चुनाव राज्य की राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ लेकर आया था। इस चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने अप्रत्याशित रूप से भारी बहुमत हासिल किया। कुल 243 सीटों में से गठबंधन को 206 सीटें मिलीं, जबकि आरजेडी-एलजेपी गठबंधन महज 25 सीटों पर सिमट गई। यह परिणाम उस समय बिहार की राजनीतिक दिशा को पूरी तरह बदल देने वाला साबित हुआ। नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि, महिलाओं और युवाओं में उनकी लोकप्रियता तथा ग्रामीण विकास, सड़कों और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्यों का असर मतदाताओं पर स्पष्ट रूप से दिखाई दिया।

 

हालांकि इस चुनावी नतीजे को लेकर आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने गंभीर सवाल उठाए। उन्होंने दावा किया कि चुनाव में 'गड़बड़ी' हुई है और ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की गई है। लालू ने कहा था कि 'यह परिणाम जनता के मतदान का नहीं, मशीनों के मनमुताबिक आंकड़ों का नतीजा है।' उनका आरोप था कि प्रशासन और सत्ताधारी गठबंधन ने चुनाव प्रक्रिया को अपने पक्ष में मोड़ दिया।

 

यह भी पढ़ें- बिहार विधानसभा 2005: विभाजन, जंगलराज, कैसे जनता ने RJD के पतन की इबारत लिख दी?

 

फिर भी, चुनाव आयोग और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों ने पूरे चुनाव को निष्पक्ष, शांतिपूर्ण और पारदर्शी बताया। किसी भी स्तर पर धांधली के प्रमाण नहीं मिले। नीतीश कुमार ने इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि यह जनता का जनादेश है, जिसे कुछ लोग पचा नहीं पा रहे। अंततः लालू प्रसाद यादव के आरोप राजनीतिक बयानबाज़ी तक सीमित रह गए, जबकि नीतीश कुमार की यह जीत बिहार में 'विकास और सुशासन' की राजनीति की नई पहचान बन गई।

कैसे मिली जीत

इस चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने विकास और सुशासन को मुख्य मुद्दा बनाया, जबकि आरजेडी-एलजेपी गठबंधन ने पारंपरिक जातीय समीकरणों पर भरोसा किया। नीतीश कुमार ने पिछले शासनकाल की ‘जंगलराज’ छवि को मुद्दा बनाते हुए खुद को ‘विकास पुरुष’ के रूप में पेश किया। उनके शासनकाल में सड़क, बिजली, कानून-व्यवस्था और शिक्षा के क्षेत्र में दिखे सुधारों ने जनता का भरोसा जीत लिया। यही कारण रहा कि चुनाव में जनता ने जाति से ऊपर उठकर काम और स्थिरता के नाम पर मतदान किया।

महिलाओं की भागीदारी

इस चुनाव की एक बड़ी विशेषता महिलाओं की ऐतिहासिक भागीदारी रही। पहली बार बिहार में महिला मतदाताओं का प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा। नीतीश सरकार की साइकिल योजना, बालिका प्रोत्साहन योजना और पंचायतों में 50% आरक्षण जैसी नीतियों ने महिलाओं को सीधे राजनीति और मतदान की प्रक्रिया से जोड़ा। इसी दौरान युवा मतदाताओं ने भी ‘विकास’ को प्राथमिकता दी और जातिवादी राजनीति को नकार दिया।

सेक्युलर छवि बनाने की कोशिश

बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की एकजुटता ने भी निर्णायक भूमिका निभाई। हालांकि, नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं को प्रचार से दूर रखकर अपनी ‘मॉडरेट’ छवि बनाए रखने की कोशिश की। माना जाता है कि इससे अल्पसंख्यक वर्ग का भी कुछ वोट उन्हें मिला। नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। दूसरी ओर, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान का गठबंधन जनता के बीच पुराने “भय और अव्यवस्था” के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा था, जिससे उन्हें नुकसान हुआ।

किसको मिली कितनी सीट

 

पार्टी सीट
जेडीयू 115
बीजेपी 91
आरजेडी 22
कांग्रेस 4
एलजेपी 3
वामदल 3
निर्दलीय व अन्य 7
कुल सीटें 243
बहुमत 122

 

 

इस तरह से जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को कुल 206 सीटें मिलीं जो कि बिहार की राजनीति में अब तक की सबसे बड़ी जीतों में से एक थी। आरजेडी और एलजेपी को मिलाकर कुल लगभग 10 प्रतिशत वोट और कुल 25 सीटें ही मिलीं।

 

यह भी पढ़ें: बिहार विधानसभा चुनाव 1985: जब खून-खराबे के बीच बिहार में चली कांग्रेस की आंधी

 

कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा और वह केवल 4 सीटें हासिल कर सकी। इस जीत के बाद बिहार में नीतीश कुमार के ‘सुशासन और विकास’ के एजेंडे की पूर्ण स्वीकृति और लालू-राज के युग के अंत का प्रतीक माना गया।