बिहार विधानसभा 2005: विभाजन, जंगलराज, कैसे जनता ने RJD के पतन की इबारत लिख दी?
फरवरी 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने 15 सालों से चली आ रही आरजेडी सरकार को हटाने का फैसला कर लिया था।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: Khabargaon
बिहार में 2005 का विधानसभा चुनाव राज्य में काफी बड़े राजनीतिक बदलाव की बानगी थी। 1900 से ही लालू प्रसाद यादव की सरकार बनने के बाद से राज्य में अराजकता और 'जंगल राज' होने के आरोप लग रहे थे। लालू प्रसाद यादव के शासन को लेकर जब जनता दल में ही उनके खिलाफ स्वर मुखर होने लगे थे। ऐसे में 1997 में स्थितियां यह बन गई थीं कि लालू प्रसाद यादव ने जनता दल को तोड़कर आरजेडी बना ली और राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया, क्योंकि चारा घोटाले के आरोप के कारण लालू प्रसाद यादव के ऊपर पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा था।
इसके बाद बिहार की सत्ता पर राबड़ी देवी अगले सात सालों तक मुख्यमंत्री के रूप में काबिज रही थीं। लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के 15 सालों के शासन काल की वजह से राज्य में एक बड़े वर्ग में जन आक्रोश की भावना और एंटी इंकंबेंसी की स्थिति बन गई थी। बिहार में लगातार 'जंगल राज' होने के आरोप लग रहे थे और लालू के ‘भूरा बाल साफ करो’ के नारे ने राज्य के तथाकथित उच्च जातियों में भी काफी असंतोष भर दिया था।
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राबड़ी देवी और राज्य का विभाजन
राबड़ी देवी के कार्यकाल में प्रशासनिक ढांचे की कमजोरी और अपराध का बोलबाला बढ़ गया। 'जंगलराज' शब्द इसी दौर में बिहार की पहचान बन गया। अपहरण उद्योग फल-फूल रहा था, सड़कों की हालत खस्ता थी, और बेरोजगारी चरम पर थी। राज्य से उद्योग पलायन कर रहे थे।
जनता में धीरे-धीरे यह भावना घर कर गई कि लालू-राबड़ी राज सामाजिक न्याय से ज्यादा 'राजनीतिक संरक्षण' का प्रतीक बन चुका है। इसी बीच, नीतीश कुमार, जो कभी लालू के साथी हुआ करते थे, अब एक नए विकल्प के रूप में उभरने लगे।
इधर बीच साल 2002 में बिहार से झारखंड भी टूटकर अलग हो गया था, जिससे बोकारो, धनबाद, जमशेदपुर और रांची जैसे औद्योगिक जिले झारखंड में चले गए थे। साथ ही पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहे देश के सबसे गरीब राज्य बिहार के हाथ से उसका खनिज संपन्न क्षेत्र झारखंड भी चला गया था। राबड़ी देवी की सरकार पहले से ही भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता के आरोपों में घिरी थी, अब उसके पास आर्थिक पुनर्निर्माण की कोई ठोस योजना नहीं थी।
विभाजन के बाद राज्य में सीटों की संख्या घटकर सिर्फ और सिर्फ 243 रह गई थी अब किसी भी पार्टी को बहुमत हासिल करने के लिए 122 सीटों की जरूरत थी। उधर विभाजन के बाद का बिहार एक तरह से 'राजनीतिक ठहराव' और 'विकासहीनता' का प्रतीक बन गया था। इसी पृष्ठभूमि में 2005 के विधानसभा चुनाव की जमीन तैयार हुई। ऐसे में किसी को भी यह नहीं पता था कि क्या होने वाला है। इन परिस्थितियों में 2005 के विधानसभा चुनावों की घोषणा की गई।
जेडीयू का गठन
1997 में आरजेडी बनने के बाद से ही जनता दल में आंतरिक कलह बढ़ता जा रहा था और हर राज्य में क्षेत्रीय नेता काफी तेजी से उभर रहे थे। ऐसे में जनता दल लगभग टूट के कगार पर पहुंच चुकी थी। उधर केंद्र में एनडीए गठबंधन मजबूत हो रहा था। 1997 से ही एनडीए केंद्रीय परिदृश्य में काफी तेजी से उभर रहा था।
इस बात को लेकर भी जनता दल में दो अलग-अलग गुट हो गए थे। एक गुट एनडीए के साथ जाना चाहता था और दूसरा गुट अलग रहना चाहता था। एक गुट एच डी देवेगौड़ा की अगुवाई में जनता दल (सेक्युलर) बना जिसने एनडीए से दूरी बनाई और दूसरा गुट शरद यादव की अगुवाई में जनता दल (यूनाइटेड) बना जो कि एनडीए के साथ बन गया। उधर नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नाडीज़ ने जनता दल से ही अलग होकर समता पार्टी बनाई थी जिसका कि बाद में 2003 में जनता दल में विलय कर दिया गया और जॉर्ज फर्नांडीज़ इसके पहले अध्यक्ष बने। इस तरह से बिहार की राजनीति में 2005 से पहले जेडीयू का आगमन हो चुका था। अब बिहार में जनता दल के ही दो धड़े और बीजेपी आमने सामने थे।
फरवरी 2005 का चुनाव
लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार दोनों ही नेता बिहार से 1990 से उभरे थे। नीतीश कुमार भारत की राजनीति में एक बड़ा चेहरा बन चुके थे, लेकिन आमतौर पर वह केंद्र की राजनीति में ही सक्रिय रहे थे। हालांकि, 2005 का चुनाव उनके चेहरे पर लड़ा जा रहा था और लालू प्रसाद यादव के ‘जंगल राज’ के विरुद्ध सुशासन का नारा उठाया जा रहा था।
2005 तक बिहार एक बहुत बड़े अस्थिरता और गतिरोध से गुजर रहा था। चुनाव के बाद आए नतीजों ने सभी को चौंका दिया था। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन गई थी। 75 सीटें जीतकर आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अब भी जीतकर आई थी लेकिन उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। जेडीयू को 55 सीटें आई थीं और बीजेपी को 37 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस को मात्र 10 ही सीटें मिली थीं। इस चुनाव में एलजेपी ने सबको चौंकाते हुए 29 सीटें जीत ली थीं।
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एलजेपी अपनी इन जीती हुई सीटों की वजह से किंगमेकर की भूमिका में आ गई थी लेकिन उसने घोषित किया कि वह न तो एनडीए के साथ जाएगी और न ही आरेजेडी के साथ। इसके बाद जब सरकार के गठन की कोई सूरत नहीं बन पाई तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। दोनों तरफ से जोड़तोड़ के कई प्रयास किए गए लेकिन कोई समीकरण नहीं बन पाया। नतीजतन 23 मई 2005 को विधानसभा भंग कर दिया गया और दोबारा चुनाव कराने की घोषणा कराई गई। उच्चतम न्यायालय की गाइडलाइंस के अनुसार, छह महीने के भीतर नया चुनाव अनिवार्य था। इसी कारण अक्टूबर-नवंबर 2005 में फिर से विधानसभा चुनाव कराए गए ताकि बिहार में लोकतांत्रिक और स्थायी सरकार बन सके।
फरवरी 2005 किसने कितनी सीटें जीती
| पार्टी | जीती हुई सीटें |
| राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) | 75 |
| जनता दल (यूनाइटेड) – जेडीयू | 55 |
| भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) | 37 |
| लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) | 29 |
| भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) | 10 |
| सीपीआई (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) | 3 |
| सीपीएम (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया - मार्क्सवादी) | 1 |
| झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) | 4 |
| राष्ट्रीय लोक समता पार्टी / समाजवादी जनता दल (डेमोक्रेटिक) | 2 |
| निर्दलीय | 17 |
| अन्य छोटे दल | 10 |
नतीजा: कोई भी पार्टी या गठबंधन बहुमत (122 सीटें) नहीं पा सका। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।
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