केरल में नदी के किनारे रेत खनन पूरी तरह से प्रतिबंधित है। साल 2016 से ही केरल में रेत खनन पर रोक लगी है। केंद्र सरकार ने तटों से रेत निकालने का एक आदेश जारी किया था लेकिन राज्य सरकार ने इससे इनकार कर दिया था। पोन्नानी, चावक्कड़, अलप्पुझा और कोल्लम के पास समुद्र में 750 मिलियन टन रेत मिलने के बाद जनवरी 2025 में केंद्र सरकार ने जब नीलामी की प्रक्रिया शुरू की तो केरल सरकार ने इसे रोक दिया। अब केरल में रेत खनन पर पूरी तरह से रोक है। रेत खनन पर तो रोक लगी लेकिन केरल, नए पर्यावरण संकट में फंसता नजर आ रहा है।
केरल सरकार का कहना है कि नदियों के 'इकोसिस्टम' के लिए रेत और नदी तट का होना जरूरी है। अगर किनारा डूबा तो लोगों का जीवन प्रभावित होगा, मछुआरों की आजिविका प्रभावित होगी। रेत निकालने पर रोक के फैसले के बाद अब केरल के पर्यावरणविदों का कहना है कि खदानों के पहाड़ खड़े हो रहे हैं, जिनका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ रहा है। जंगल और पहाड़ दोनों मिट रहे हैं, जिनका असर पर्यावरण पर पड़ना तय है।
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केरल में क्या हो रहा है?
केरल में नदियों से रेत खनन पर रोक है। 'द हिंदू' ने NIT कालीकट की एक रिपोर्ट का जिक्र करके लिखा है कि रेत पर बैन की वजह से पत्थर की खदानें ज्यादा बढ़ गईं हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई खदानें संरक्षित इलाकों के पास बनी हुईं हैं। केरल ने जनवरी 2016 में नदी की रेत माइनिंग पर बैन लगा दिया था। सरकार का कहना था कि नदियों और उनके इकोसिस्टम को ज्यादा रेत निकालने से होने वाले नुकसान से बचाया जा सके।
बैन का असर क्या हुआ?
बैन के बाद, निर्माण सेक्टर में कृत्रिम रेत की जरूरत बढ़ गई। ग्रेनाइट जैसे कड़े पत्थरों को बारीक कणों में पीसकर रेत तैयार की जा रही है। रेत के विकल्प में इस उद्योग की मांग बढ़ गई है। अब पत्थर की खदानें अचानक से बढ़ गई हैं।
अब कैसे तैयार हो रही है रेत?
पत्थरों से रेत निकालने के लिए 'मैन्युफैक्चर्ड सैंड' का इस्तेमाल किया जा रहा है। ग्रेनाइट पत्थरों को बड़े स्टोन क्रशिंग मशीनों से कुचलकर तैयार किया जा रहा है। पत्थर की खदानें अब बेतहाशा बढ़ रहीं हैं। मशीनें चट्टानों को क्रशर में तोड़कर रेत जैसा बारीक पाउडर में बदल देती हैं। यह नदी की रेत का सस्ता और कानूनी विकल्प है। केरल में इस रेत की मांग इतनी बढ़ गई कि 2016 में ही कई खदानें दोगुनी से ज्यादा बड़ी हो गईं।
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बेतहाशा बढ़ने लगीं हैं खदानें
NIT कालीकट के वैज्ञानिकों ने 72 खदानों पर अध्ययन किया। ये खदानें संरक्षित क्षेत्रों के 10 किलोमीटर के दायरे में हैं। बैन से पहले ये खदानें हर साल औसतन थोड़ा-थोड़ा बढ़ती थीं। लेकिन 2016 में अचानक 174 फीसदी तक बढ़ गईं। कुछ खदानें तो एक साल में ढाई गुना तक बड़ी हो गईं।
खतरा क्यों मंडरा रहा है?
कई खदानें वन्यजीव अभयारण्यों और नेशनल पार्क के पास हैं। कोझिकोड-वायनाड के मलाबार वन्यजीव अभयारण्य के पास तीन खदानें 232 फीसदी तक बढ़ गईं हैं।
साइलेंट वैली नेशनल पार्क के बफर जोन में भी खदानें दोगुनी हो गईं। इनसे जंगली जानवरों का रहवास, पानी के स्रोत और जैव-विविधता को भारी नुकसान हो रहा है।
नदियां तो बच गईं, पहाड़ गंवा बैठे
नदियां अपने साथ खूब मिट्टी और रेत लेकर आती हैं। रेत निकालने से तल और गहरा हो जाता था। नदी के किनारे टूट थे, नदियों का रूट प्रभावित होता था। मछलियों और जलीय जीवों पर भी इसका असर देखने को मिलता है। इस पर रोक लगाने के लिए रेत खनन पर रोक लगाई गई थी। अब पहाड़ और जंगलों खोदे जा रहे हैं। वैज्ञानिकों की चिंता है कि इससे तो पर्यावरण और प्रभावित होगा।
नई चुनौती से कैसे निपट सकते हैं?
पर्यावरण के जानकारों का मानना है कि इस तरह की वैकल्पिक रेत की मांग को पूरा करने के लिए टिकाऊ खदानों की जरूरत पड़ेगी। संरक्षित क्षेत्रों के पास नई खदानों के खुलने पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत है। पुरानी खदानों को बंद करने के बाद 'इकोसिस्टम' नहीं तो नदी तो बच जाएगी, पहाड़ और जंगल खतरे में पड़ जाएंगे।
