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किडनैपिंग का ऐसा केस जिसने ‘रंगा-बिल्ला’ को गंदा नाम बना दिया

किसी को रंगा-बिल्ला तभी कहा जाता है जब वह शरारती हो। इसकी वजह यही है कि रंगा और बिल्ला नाम के दो लोगों ने कुछ ऐसा कारनामा कर दिया था। इन दोनों को आखिर में फांसी की सजा हुई।

Famous Gita and Sanjay Kidnaping and Murder Case

गीता और संजय की हत्या के बाद हुआ था जोरदार प्रदर्शन, Image Credit: Social Media

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चार नाम हैं। एक घटना है और इन नामों की जबरदस्त कहानी है। आज से ठीक 46 साल पहले यानी साल 1978 में हुआ अपहरण कुछ ही समय के बाद हत्या में बदल गया। वजह यह थी कि जिन बच्चों का किडनैप किया गया वे नेवी अफसर के बच्चे थे। इन बच्चों ने अपनी जान बचाने के लिए साहस दिखाया लेकिन उनकी जान नहीं बच सकी। किडनैप करने वालों ने जो क्रूरता दिखाई उसके चलते उनका नाम अपराध की दुनिया में एक विशेषण की तरह कुख्यात हो गया। वहीं, ये बच्चे हमेशा के लिए अमर हो गए। यह कहानी है गीता और संजय चोपड़ा हत्याकांड की और उससे भी ज्यादा रंगा और बिल्ला नाम के बदमाशों की जिनके अपराधों के चलते आज भी लोग बदमाशों को रंगा-बिल्ला कहकर बुलाते हैं।

कौन थे रंगा और बिल्ला?

 

रंगा का असली नाम कुलजीत सिंह था। वहीं, बिल्ला का नाम जसबीर सिंह था। इस मशहूर हत्याकांड से पहले भी दोनों अपराध की दुनिया में सक्रिय थे। दरअसल, साल 1975 तक ट्रक चलाने वाले रंगा का मन ऊबा तो वह ट्रक छोड़कर मुंबई में टैक्सी चलाने पहुंच गया। यहां भी मन नहीं लगा तो उसने शाम सिंह नाम के अपने दोस्त से कहा कि कुछ अलग करना है। इसी शाम सिंह ने उसे बिल्ला यानी जसबीर सिंह के बारे में बताया। शाम सिंह ने बताया कि बिल्ला दो विदेशियों की हत्या कर चुका है। यह सुनकर रंगा और प्रभावित हुआ और उसी शाम बिल्ला से मिलने पहुंच गया। 

 

हाथ मिलाते ही दोनों ने कार चुराने का काम शुरू किया। कार चुराने का काम आगे बढ़ा और फिर उन्हीं कारों में बच्चों को किडनैप करने लगे। फिल्मी अंदाज में बच्चों को उठाते, उनके परिवार से पैसे लेते और फिर बच्चों को छोड़ देते। ऐसे ही अपराधों के चलते बिल्ला पुलिस की गिरफ्त में आ गया। वह ठाणे जेल भेजा गया लेकिन वहां से फरार हो गया। पुलिस की नजर में आने के बाद दोनों ने मुंबई शहर ही छोड़ दिया और दिल्ली आ गए। दिल्ली में किए गए एक अपराध ने इन दोनों को आखिर में फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया।

क्या है गीता और संजय के हत्याकांड की कहानी? 

 

अपने आम अपराधों की तरह हील इन दोनों ने दिल्ली के अशोक होटल के सामने से अशोक शर्मा की फिएट कार चुरा ली थी। इसी कार से निकले इन दोनों ने 26 अगस्त 1978 को नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा के बेटे संजय चोपड़ा (14 साल) और बेटी गीता (16 साल) का गोल डाकखाना के पास से अपहरण कर लिया। अपहरण भी लिफ्ट देने के बहाने किया गया। घर में बैठे मम्मी-पापा को इंतजार था कि गीता और संजय की आवाज 8 बजे रेडियो पर सुनाई देगी। हालांकि, 8 बज गए और न तो बच्चे घर लौटे और न ही उनकी आवाज रेडियो पर आई। दरअसल, इन बच्चों को ऑल इंडिया रेडियो के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने जाना था।

 

दोनों अपनी ही कॉलोनी के एक शख्स की कार में लिफ्ट लेकर गोल डाकखाना तक पहुंचे थे। वहां दूसरी गाड़ी का इंतजार ही कर रहे थे कि रंगा-बिल्ला वहां पहुंचे और गीता, संजय को अपनी कार में बिठा लिया। जब तक दोनों को कुछ समझ आता तब तक गाड़ी दूसरे रास्ते पर चल पड़ी थी। गीता और संजय ने गाड़ी रुकवाने की कोशिश की और शोर मचाया तो बिल्ला ने किसी हथियार से संजय को मार दिया। गाड़ी नहीं रुकी और जब रुकी तब तक शायद देर हो चुकी थी।

 

हालांकि, गीता और संजय की जान बचाने की कोशिश को स्कूटर सवार भगवान दास ने देख लिया था। उन्होंने तुरंत ही पुलिस को फोन करके बताया कि गाड़ी का नंबर MRK-8930 है जिसमें बच्चों का अपहरण किया गया है। एक इंजीनियर इंदरजीत ने भी कमोबेश ऐसी ही सूचना दी थी। उधर 9 बजते-बजते मदन मोहन चोपड़ा आकाशवाणी पहुंच चुके थे। वहां उन्हें पता चला कि बच्चे तो आए ही नहीं। किसी अनहोनी की आशंका लिए मदन चोपड़ा भागे-भागे धौलाकुआं थाने पहुंचे। उनके पहुंचने से पहले ही पुलिस तक सूचना पहुंच चुकी थी लेकिन पुलिस ने वही किया जो हर बार करती थी। एसएचओ ने गंगा स्वरूप ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि यह भी कह दिया कि यह इस थाने का मामला ही नहीं है। जब मदन चोपड़ा के साथ कई नेवी अफसर थाने पहुंच गए तो पुलिस के कानों पर जूं रेंगी लेकिन देर हो गई।

 

दबाव बनने के बाद पुलिस की 30 अलग-अलग गाड़ियों से 140 पुलिसकर्मी पूरी दिल्ली छानने में जुट गए। बारिश के बीच छानबीन जारी रही लेकिन गीता और संजय का कुछ पता नहीं चला। 26 अगस्त की रात बीती, 27 का दिन बीता। 27 को हरियाणआ और उत्तर प्रदेश की पुलिस भी काम पर लग गई। मामला बढ़ा तो उत्तराखंड, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी दोनों को तलाशा जाने लगा। हरियाणा का नंबर था इसलिए नंबर के हिसाब से पता किया तो जानकारी मिली कि जो नंबर HRK-8930 है उस गाड़ी के मालिक का नाम रविंदर गुप्ता हैं लेकिन उनकी गाड़ी फिएट नहीं थी। यानी यहां भी रंगा-बिल्ला ने खेल किया था। दो दिन बीत चुके थे और उम्मीदें दम तोड़ रही थीं। इसी बीच एक खबर आती है। इस खबर ने मदन चोपड़ा के साथ-साथ देश के हजारों परिवारों का हौसला तोड़ दिया।

 

29 अगस्त को एक चरवाहे ने पुलिस को सूचना दी। उसने सड़क के पास ही एक लाश पड़ी देखी थी। पुलिस मदन चोपड़ा को लेकर वहां पहुंची। आसपास ही गीता और संजय की लाश पड़ी थी। मदन चोपड़ा अपने बच्चों का ऐसा हाल देखते ही जड़ हो गए। दोनों का पोस्टमॉर्टम हुआ तो पता चला कि गीता के शरीर पर 5 और संजय के शरीर पर 21 गहरे घाव थे। इधर पहले से ही पुलिस इन दोनों को ढूंढ रही थी और खोजबीन ने यह कंफर्म कर दिया था कि इस अपहरण और हत्याकांड में रंगा और बिल्ला का हाथ था। ऐसे में इन दोनों की तस्वीरें पूरे देश में फैला दी गई थीं।

 

उधर पुलिस उस फिएट कार तक पहुंच गई थी जिसमें इन दोनों का अपहरण हुआ था। असली फिएट कार का नंबर DHD 7034 था और इसके मालिक अशोक शर्मा थे। अशोक शर्मा ने बताया कि उनकी कार तो अशोक होटल के सामने से ही चोरी हो गई थी। कार मजलिस पार्क के पास मिली थी। अशोक शर्मा ने अपने पास पड़ी चाबियों से इसे खोला तो वह खुल गई। कार में जो चीजें मिलीं उनमें फर्जी नंबर प्लेट भी थीं जिससे रंगा-बिल्ला की कारस्तानी खुलकर सामने आ गई।

मोरारजी देसाई, अटल बिहारी और दिल्ली का गुस्सा

 

देश की राजधानी से बच्चों का अपहरण हुआ, पुलिस खोजती रही और बच्चों की जान चली गई। यह सब जानने के बाद जनता सड़कों पर थी। संसद में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का इस्तीफा मांगा गया लेकिन उसी रात वह नैरोबी की यात्रा पर चले गए। लोगों ने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर का घर घेर लिया। भारी भीड़ थी और सरकार की ओर से लोगों को मनाने पहुंचे थे उस समय के विदेश मामलों के मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। वह प्रदर्शनकारियों को समझा ही रहे थे कि कुछ लोगों ने पत्थरबाजी कर दी। इससे अठल को चोट लगी और उनका कुर्ता खून से लाल हो गया। अगले दिन अटल संसद पहुंचे तो उनके सिर पर पट्टी बंधी थी।

 

मामला बिगड़ता देख यह केस सीबीआई को सौंप दिया गया। सीबीआई ने ही पता लगाया कि यह कारनामा रंगा और बिल्ला का है। उधर रंगा बिल्ला दिल्ली से फरार होकर पहले मुंबई गए थे और फिर वहां से आगरा आ गए थे। आगरा से ये दोनों कालका मेल में चढ़े। इनकी गलती ये थी कि ये दोनों सेना के जवानों के लिए रिजर्व डिब्बे में चढ़ गए। उनसे भी गुंडई करने लगे तो पीटे भी गए। इसी बीच लांस नायक ए वी शेट्टी ने इन दोनों को पहचान लिया क्योंकि उन्होंने इनकी तस्वीर अखबार में देखी। दोनों को वहीं पकड़कर रस्सी से बांध दिया गया। 8 सितंबर 1978 को इन दोनों को गिरफ्तार किया गया था।

 

पुलिस ने दोनों से पूछताछ की। डीएनए जांच की गई तो इनका दोष भी साबित हुआ। सेशन्स कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई। हाई कोर्ट ने भी यही किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी दो टूक कह दिया कि फांसी से कम कुछ नहीं। तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने दया याचिका भी ठुकरा दी। इस केस के दौरान बिल्ला खूब रोता और बार-बार कहता था कि रंगा ने उसे फंसा दिया। वहीं, रंगा कहता कि भगवान जानता है कि उसने कुछ किया ही नहीं। आखिर में 31 अक्तूबर 1982 को इन दोनों को तिहाड़ जेल में इन दोनों को फांसी दे दी गई।

 

साल 1978 में ही भारतीय कल्याण परिषद ने बच्चों के लिए वीरता पुरस्कारों की शुरुआत की थी। ये पुरस्कार आज भी गीता चोपड़ा पुरस्कार और संजय चोपड़ा पुरस्कार नाम से हर साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिए जाते हैं और इन बच्चों को याद किया जाता है।

 

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