भारत में GST को लागू हुए अब आठ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। हर महीने केंद्र सरकार GST कलेक्शन के नए-नए रिकॉर्ड गिनाती है। कभी 1.6 लाख करोड़, कभी 1.7 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा। इन आंकड़ों को भारतीय अर्थव्यवस्था की ‘मजबूती’ का प्रमाण बताया जाता है। लेकिन इस चमकदार तस्वीर के पीछे एक दूसरा, कम दिखने वाला सच भी है और वह यह है कि राज्यों की वित्तीय हालत पहले के मुकाबले ज्यादा दबाव में है।

 

सवाल यह है कि जब टैक्स कलेक्शन बढ़ रहा है, तो फिर राज्य सरकारों के पास पैसे की कमी क्यों है? क्यों राज्यों का कर्ज़ बढ़ रहा है? और क्यों वे बार-बार केंद्र से मुआवज़े या ज्यादा हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं? इसका जवाब GST के ढांचे और उसके बाद बदली हुई वित्तीय संरचना में छिपा है।

 

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GST से पहले क्या?

GST लागू होने से पहले राज्यों के पास अपनी आमदनी बढ़ाने के कई स्वतंत्र साधन थे। वैट (VAT), एंट्री टैक्स, परचेज टैक्स और स्थानीय बिक्री कर राज्यों के राजस्व की रीढ़ हुआ करते थे। RBI की State Finances रिपोर्ट के मुताबिक, 2012–13 से 2016–17 के बीच राज्यों की Own Tax Revenue सालाना औसतन 14 से 17 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी।

 

इस दौर में VAT अकेले राज्यों के टैक्स राजस्व का 55–60 प्रतिशत तक हिस्सा देता था। ज़रूरत पड़ने पर राज्य टैक्स दरों में बदलाव कर सकते थे। यानी खर्च बढ़े तो आय बढ़ाने का रास्ता भी राज्यों के पास था। यही वजह थी कि राज्य अपेक्षाकृत कम कर्ज़ लेकर अपने विकास कार्य चला पा रहे थे।

मुआवजे का वादा

1 जुलाई 2017 को GST लागू करते वक्त राज्यों को भरोसा दिया गया कि अगर इस नए टैक्स सिस्टम से उनके राजस्व को नुकसान होता है, तो केंद्र सरकार 14 प्रतिशत सालाना ग्रोथ की गारंटी देगी। इसके लिए GST Compensation की व्यवस्था की गई, जो पांच साल तक चलनी थी।

 

शुरुआती वर्षों में यह मुआवज़ा राज्यों के लिए एक सुरक्षा कवच की तरह रहा। लेकिन इसी दौरान यह भी साफ़ होने लगा कि GST के तहत राज्यों की टैक्स ग्रोथ पहले जैसी नहीं रही।

GST के बाद क्या?

PRS Legislative Research के आंकड़े बताते हैं कि GST लागू होने के बाद राज्यों की Own Tax Revenue Growth घटकर 7–9 प्रतिशत रह गई। कई वर्षों में यह ग्रोथ महंगाई दर के आसपास ही रही, जिससे वास्तविक आय (Real Revenue) लगभग स्थिर हो गई।

 

PRS के अनुसार, GST में शामिल किए गए टैक्सों से राज्यों को मिलने वाला राजस्व 2015–16 में GDP का लगभग 6.5% था जो 2023–24 में घटकर करीब 5.5% रह गया। यह गिरावट मामूली नहीं है। GDP के अनुपात में देखें तो राज्यों की टैक्स पकड़ कमजोर हुई है।

VAT खत्म होने का बड़ा झटका

GST से पहले VAT सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला टैक्स था। कई राज्यों में VAT की ग्रोथ 18–20 प्रतिशत तक रही। GST के बाद VAT पूरी तरह खत्म हो गया और उसकी जगह SGST आया, जिसकी ग्रोथ औसतन 8–10 प्रतिशत के आसपास रही।

 

यानी राज्यों ने एक हाई-ग्रोथ टैक्स खो दिया और उसकी जगह कम रफ्तार वाला राजस्व स्रोत मिला। यह संरचनात्मक नुकसान था, जिसकी भरपाई सिर्फ मुआवज़े से हो रही थी।

मुआवज़ा खत्म, दबाव शुरू

2017–18 से 2021–22 के बीच केंद्र सरकार ने राज्यों को लगभग लाखों करोड़ GST कंपेनसेशन दिया। कोविड के दौरान जब राज्यों का खर्च अचानक बढ़ गया, तब भी यह मुआवज़ा उनकी जीवनरेखा बना रहा।

 

लेकिन जून 2022 में यह व्यवस्था खत्म हो गई। इसके बाद राज्यों के सामने कड़वी सच्चाई आ गई। अब उन्हें बिना किसी गारंटी के GST सिस्टम पर निर्भर रहना है। जहां पहले 14 प्रतिशत ग्रोथ सुनिश्चित थी, वहीं अब वास्तविक ग्रोथ 8–9 प्रतिशत तक सीमित है।

 

अगर किसी राज्य का टैक्स बेस 1 लाख करोड़ रुपये है, तो 14% ग्रोथ पर उसे 14,000 करोड़ मिलते जबकि 8% ग्रोथ पर सिर्फ 8,000 करोड़ रुपये ही मिलेंगे। यानी हर साल लगभग 6,000 करोड़ रुपये का सीधा नुकसान होगा।

टैक्स कलेक्शन बढ़ा, लेकिन किसका?

GST कलेक्शन भले रिकॉर्ड बना रहा हो, लेकिन इसका लाभ समान रूप से बंटा नहीं। केंद्र सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में सेस (Cess) और सरचार्ज (Surcharge) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ाया है। 2023–24 में केंद्र के कुल टैक्स में इनका हिस्सा 18–20 प्रतिशत तक पहुंच गया।

 

समस्या यह है कि इन टैक्सों में राज्यों को कोई हिस्सा नहीं मिलता। एक्सपर्ट्स के मुताबिक, अगर ये टैक्स सामान्य टैक्स की तरह साझा किए जाते, तो राज्यों को हर साल ₹2–3 लाख करोड़ अतिरिक्त मिल सकते थे। इससे यह धारणा मजबूत होती है कि टैक्स सिस्टम अधिक केंद्रीकृत होता जा रहा है।

वित्तीय आत्मनिर्भरता में कमी

GST से पहले राज्यों के कुल राजस्व में Own Tax Revenue का हिस्सा 48–50 प्रतिशत था। GST के बाद यह घटकर 40–42 प्रतिशत रह गया। यानी राज्यों की निर्भरता केंद्र से मिलने वाले ट्रांसफर और उधारी पर बढ़ गई।

 

यह गिरावट सिर्फ आंकड़ों की नहीं है, बल्कि नीति-निर्माण की स्वतंत्रता की भी है। अब राज्य अपनी जरूरत के हिसाब से टैक्स नीति नहीं बना सकते।

खर्च बढ़ा संसाधन नहीं

GST के बाद राज्यों की जिम्मेदारियां कम नहीं हुईं। स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, कृषि सहायता और कानून-व्यवस्था जैसे क्षेत्रों में खर्च लगातार बढ़ा है। कोविड महामारी ने इस दबाव को कई गुना बढ़ा दिया।

 

लेकिन आय के स्रोत सीमित होने के कारण राज्यों ने कर्ज़ लेना शुरू किया। RBI के अनुसार, कई राज्यों का Debt-to-GSDP ratio 30–35 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुका है।

राज्यों की आवाज दबी

GST काउंसिल को सहकारी संघवाद का मंच कहा गया था, लेकिन कई राज्यों का अनुभव अलग रहा है। टैक्स दरों में बदलाव या छूट हटाने जैसे फैसलों में राज्यों के पास सीमित विकल्प होते हैं। छोटे और वित्तीय रूप से कमजोर राज्यों की बात अक्सर दब जाती है।

 

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इस तरह से GST ने टैक्स सिस्टम को सरल बनाया, इसमें शक नहीं। टैक्स चोरी घटी और औपचारिक अर्थव्यवस्था बढ़ी। लेकिन यह भी सच है कि GST के बाद राज्यों की वित्तीय स्थिति मजबूत नहीं, बल्कि ज्यादा नाज़ुक हुई है।

 

टैक्स कलेक्शन बढ़ा है, पर राज्यों की आय की रफ्तार धीमी हो गई। मुआवज़ा खत्म हो चुका है, टैक्स नीति पर नियंत्रण सीमित है और खर्च का बोझ बढ़ता जा रहा है।

जब तक GST ढांचे में राज्यों को ज्यादा लचीलापन या मुआवजे का नया सिस्टम या Cess-Surcharge पर हिस्सेदारी नहीं दी जाती है, तब तक यह सवाल बना रहेगा कि GST ने भारत के संघीय ढांचे को मजबूत किया या कमजोर।