1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करने वाली कांग्रेस ने महज तीन साल बाद ही प्रचंड वापस की। आंतरिक कलह के कारण जनता पार्टी की सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस ने बिहार में अपनी खोई जमीन को दोबारा हासिल कर लिया। 

 

1977 के चुनाव में जहां कांग्रेस को सिर्फ 57 सीटों पर जीत मिली तो वहीं तीन साल बाद 1980 के चुनाव में उसके विधायकों की संख्या 169 तक पहुंच गई। यह आंकड़ा बहुमत से 6 सीट ज्यादा था। वहीं तीन साल पहले करिश्माई जीत हासिल करने वाली जनता पार्टी अर्श से फर्श पर आ गई। 1980 विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी की करारी हार के पीछे कई वजहें थीं। कांग्रेस को सीधे इसका फायदा भी हुआ।

1980 के मध्यावधि चुनाव की पृष्ठभूमि

1977 में जनता पार्टी की प्रचंड जीत के बाद से ही बिहार में 1980 विधानसभा चुनाव की पटकथा लिखी जाने लगी थी। जून 1977 में तीन चरणों में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए। 24 जून 1977 को कर्पूरी ठाकुर ने दूसरी बार सीएम पद की शपथ ली। अगले महीने यानी जुलाई 1977 में पटना जिले के बेलची गांव में 10 अनुसूचित जाति के लोगों की निर्मम हत्या से देश का सियासी पारा चढ़ गया।

 

छह महीने पहले सत्ता से बेदखल होने वाली इंदिरा गांधी ने न केवल इस मुद्दे को लपका, बल्कि हाथी पर सवार होकर बेलची गांव का दौरा भी किया। इंदिरा गांधी ने बिहार की जनता पार्टी सरकार को आड़े हाथों लिया और सीएम कर्पूरी ठाकुर की सरकार पर हत्या का आरोप मढ़ा। अपनी पार्टी के अंदर ही कर्पूरी ठाकुर घिरने लगे।

आरक्षण पर घिरे कर्पूरी ठाकुर

9 मार्च 1978 को कर्पूरी ने सरकारी नौकरी में अन्य पिछड़ा वर्ग को 26 फीसद आरक्षण देने का फैसला किया। 10 नवंबर को सीएम कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने तीन प्रस्तावों को हरी झंडी दी। इसके तहत अन्य पिछड़ा वर्ग को 12 फीसद, अति पिछड़ा वर्ग को 8%, महिलाओं को 3% और आर्थिक रूप से पिछड़ों को 3% आरक्षण का प्रावधान था। कर्पूरी ठाकुर के इस आरक्षण मॉडल का उच्च जातियों के अलावा जनता पार्टी के कई नेताओं ने विरोध किया।

मोरारजी से खफा हो गए थे कर्पूरी

3 नवंबर 1978 को पटना के गांधी मैदान में आयोजित एक रैली में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सीएम कर्पूरी ठाकुर के सामने आरक्षण के खिलाफ लंबा चौड़ा भाषण दिया। सीएम कर्पूरी ठाकुर को मोरारजी का यह भाषण पसंद नहीं आया। वे इतना खफा थे कि रात साढ़े आठ बजे पिछड़े वर्ग के आरक्षण से जुड़ी अधिसूचना जारी कर दी। उनके फैसले के बाद पार्टी के कई विधायकों ने बगावत कर दी।

जब अपनों ने की बगावत 

बिहार में आंदोलन और जातीय हिंसा का एक नया दौर शुरू हुआ। उच्च और अन्य जातियों के बीच संघर्ष की खबरें आनी लगीं। स्कूल और कॉलेज तक बंद का असर दिखने लगा। सड़क पर आरक्षण विरोधी भीड़ उतरी तो कई विधायक और नेताओं ने विपक्ष का साथ देना उचित समझा। 1979 के अप्रैल महीने तक कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल के कई मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया। कुछ विधायकों ने भी पाला बदल लिया। 19 अप्रैल 1979 को कर्पूरी सरकार के खिलाफ बिहार विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। 

कर्पूरी की जगह रामसुंदर दास बने सीएम

वोटिंग में कर्पूरी के हिस्से में 105 वोट आए हैं, जबकि विपक्ष में 135 विधायकों ने वोटिंग की। नतीजा यह हुआ कि एक साल 301 दिन बाद कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिर गई। इसके बाद जनता पार्टी ने सोनपुर से विधायक रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री बनाया। दास ने कर्पूरी ठाकुर से अलग राह पकड़ी। उन्होंने अपने कैबिनेट में 50 फीसद से अधिक उच्च जातियों के मंत्रियों को जगह दी। हालांकि उनकी सरकार एक साल भी नहीं चली।

इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी

सीएम पद से कर्पूरी ठाकुर को हटाने से जनता पार्टी के 18 सांसद खफा थे। उन्होंने मोरारजी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। मोरारजी देसाई की सरकार ढही तो जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी हुई। उन्होंने 18 फरवरी 1980 को बिहार की रामसुंदर दास सरकार समेत 9 राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकार को बर्खास्त करके मध्यावधि चुनाव का ऐलान कर दिया। इस तरह बिहार में 1980 विधानसभा चुनाव का मार्ग प्रशस्त हुआ।

टुकड़ों में बंटी जनता पार्टी

चुनाव की तारीखों का ऐलान होने के बाद सभी दलों ने अपनी-अपनी कमर कसनी शुरू कर दी। 1977 में एकजुट होने वाली जनता पार्टी पांच हिस्सों में बंट गई। नतीजा यह हुआ कि गैर-कांग्रेसी वोट का बिखराव हुआ और कांग्रेस को सीधे फायदा पहुंचा। 1980 के चुनाव में जनता पार्टी से टूटे पांच दल चुनावी मैदान में थे। इन दलों में जनता पार्टी (JNP), जनता पार्टी जयप्रकाश (जनता पार्टी जेपी), जनता पार्टी सेक्युलर (चरण सिंह), जनता पार्टी सेक्युलर (राजनारायण) और लोक दल शामिल थे।

कांग्रेस के दो गुट, लेकिन इंदिरा ने मारी बाजी

1980 का चुनाव कई मायनों में खास है। एक ओर जहां जनता पार्टी पांच हिस्सों में टूट गई तो वहीं कांग्रेस के दो गुटों ने एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकी। हालांकि इंदिरा गांधी ने अपने दम पर कांग्रेस (आई) को न केवल बहुमत दिलाया, बल्कि असली कांग्रेस के तौर पर स्थापित भी किया। दूसरे गुट कांग्रेस (यू) को सिर्फ 14 सीटों से संतोष करना पड़ा।

एक नारे से कांग्रेस ने पलटी हारी बाजी

बिहार की जनता पार्टी सरकार में राजनीतिक हत्याएं और जातीय हिंसा का सिलसिला नहीं थमा। आए दिन हो रही वारदातों ने लोगों के मन में जनता पार्टी सरकार के खिलाफ आक्रोश भर दिया। पार्टी की अंदरूनी कलह भी उसे ले डूबी। बेलची कांड को इंदिरा गांधी ने अवसर के तौर पर इस्तेमाल किया। उन्होंने नारा दिया कि 'जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।' कांग्रेस का यह नारा काम कर गया। लोगों ने जाति की सियासत से इतर कांग्रेस को वोट दिया। इंदिरा गांधी के इस नारे ने न केवल बिहार, बल्कि लोकसभा चुनाव में भी जातीय गोलबंदी को तोड़ने का काम किया।

पांच साल में दो बार बदले सीएम

कांग्रेस (आई) ने कुल 311 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे। उसे 34.2 फीसद वोट शेयर के साथ 169 सीटों पर जीत मिली। 92 सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे और 33 सीटों पर तीसरे स्थान पर रहे। चौधरी चरण सिंह की पार्टी जनता दल (सेक्युलर) दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन 50 का आंकड़ा पार नहीं कर सकी। 

 

1980 के चुनाव में निर्दलीयों का दबदबा रहा। 23 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। 33 स्थानों पर निर्दलीय दूसरे स्थान पर रहे। प्रंचड जीत मिलने के बाद कांग्रेस ने जगन्नाथ मिश्र को 8 जून 1980 को दूसरी बार बिहार का मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि वे पांच साल तक सीएम नहीं रहे। 14 अगस्त 1983 को कांग्रेस ने चंद्रशेखर सिंह के तौर पर बिहार को एक और सीएम दिया। वे 12 मार्च 1985 तक सीएम रहे। इसके बाद बिहार में एक और चुनाव यानी 1985 विधानसभा चुनाव का आगाज हो गया। 

 

 

1980 विधानसभा चुनाव: किसे-कितनी सीटें मिलीं?
दल कितने सीटों पर चुनाव लड़ा कितनी सीटें जीतीं
कांग्रेस (आई) 311 169
जनता पार्टी (सेक्युलर) 254   42
निर्दलीय 1347 23
सीपीआई   135 23
बीजेपी 246 21
कांग्रेस (यू)   185 14
जनता पार्टी (JP) 240 13
झारखंड मुक्ति मोर्चा 31 11
सीपीआई (मार्क्सवादी) 27 06