डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो (DR कॉन्गो) इस वक़्त ज़बरदस्त हिंसा से जूझ रहा है। विद्रोही गुट एम-23 नॉर्थ किवु प्रांत की राजधानी गोमा पर क़ब्ज़े के बाद दूसरे शहर की तरफ़ बढ़ रहे हैं। उनका मक़सद है, DR कॉन्गो में तख़्तापलट करना। एम-23 को रवांडा का समर्थन मिला हुआ है जबकि उनको रोकने में DR कॉन्गो की मदद बुरुंडी कर रहा है। इसके चलते एक तरफ़ सिविल वॉर जबकि दूसरी तरफ़ रीजनल वॉर की आशंका तेज़ हो गई है। DR कॉन्गो में चल क्या रहा है? इस लड़ाई के किरदार कौन-कौन हैं और थर्ड वर्ल्ड वॉर का बार-बार ज़िक्र क्यों आ रहा है? इसे विस्तार से समझते हैं।
डी आर कॉन्गो अफ़्रीकी महाद्वीप का दूसरा सबसे बड़ा देश है। एरिया और पॉपुलेशन दोनों में। वैसे, एरिया में पहले नंबर पर अल्जीरिया है। पॉपुलेशन में पहला नंबर नाइजीरिया का है। DR कॉन्गो की ज़मीनी सीमा 09 देशों से मिलती है। उत्तर में सेंट्रल अफ़्रीकन रिपब्लिक और साउथ सूडान। दक्षिण में अंगोला और ज़ाम्बिया। पश्चिम में रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो और, पूरब में तंज़ानिया, बुरुंडी, रवांडा और युगांडा हैं। अभी जो लड़ाई चल रही है, उसका फ़ोकस पूर्वी सीमा पर है। बॉर्डर पर DR कॉन्गो का नॉर्थ किवु प्रांत है। इस प्रांत की पूर्वी सीमा रवांडा और युगांडा से लगी है। गोमा इसी नॉर्थ किवु प्रांत की राजधानी है। जहां पर एम-23 ने कोहराम मचाया हुआ है।
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अब तक क्या-क्या हो चुका है?
- जनवरी 2025 में विद्रोही गुट एम-23 ने नॉर्थ किवु में मिलिटरी कैंपेन शुरू किया।
- 24 जनवरी को नॉर्थ किवु के गवर्नर मोर्चे का निरीक्षण करने पहुंचे। वहां उनको गोली लगी। कुछ घंटे बाद अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
- 27 जनवरी को एम-23 ने गोमा पर क़ब्ज़े का एलान किया। DR कॉन्गो की आर्मी को पीछे हटना पड़ा।
- फिर 8 फ़रवरी को तंज़ानिया में ईस्ट अफ़्रीकन कम्युनिटी (EAC) की इमरजेंसी बैठक हुई। मीटिंग का फ़ोकस DR कॉन्गो के हालात पर था। मीटिंग में अपील की गई कि सभी पक्ष युद्धविराम पर ध्यान दें और आपस में बैठकर मसला सुलझाएं।
- दो दिन बाद ही इस अपील को ठुकरा दिया गया। DR कॉन्गो ने कहा कि हम एम-23 से सीधे बात नहीं करेंगे।
- फिर 11 फ़रवरी को एम-23 ने साउथ किवु प्रांत पर हमला तेज़ कर दिया। उनकी नज़र साउथ किवु की राजधानी बुकावु पर है। बुकावु का एयरपोर्ट DR कॉन्गो की आर्मी के लिए बेहद अहम है। वे इसी एयरपोर्ट के ज़रिए पूर्वी इलाक़ों में सैनिक भेजते हैं। अगर वहां एम-23 का क़ब्ज़ा हो गया। फिर ये इलाक़ा DR कॉन्गो के हाथ से निकल सकता है।
- अब तक M-23 के हमले में लगभग तीन हज़ार लोग मारे जा चुके हैं। इनमें UN पीसकीपिंग फ़ोर्स के 20 सैनिक भी शामिल थे।
- इस जंग ने सात लाख से ज़्यादा लोगों को विस्थापित किया है जबकि लाखों लोगों पर अनिश्चितता की तलवार लटक रही है।
M-23 क्या है?
इसका पूरा नाम है, मार्च 23 मूवमेंट। दरअसल, 23 मार्च 2009 को DR कॉन्गो की सरकार और तुत्सी विद्रोही गुट CNDP के बीच एक समझौता हुआ था। इसके तहत, CNDP ने हथियार छोड़कर पॉलिटिक्स जॉइन कर ली और उसके लड़ाकों को रेगुलर फ़ोर्स में शामिल कर लिया गया। इसके अलावा, सरकार ने तुत्सी लोगों के अधिकारों पर ध्यान देने का वादा भी किया था लेकिन 2012 आते-आते समझौता टूटने लगा। CNDP के सैनिकों ने धीरे-धीरे विद्रोह करना शुरू कर दिया। फिर उन्होंने एकजुट होकर एम-23 की स्थापना की। उन्होंने दावा किया, कि कॉन्गो सरकार समझौते का पालन नहीं कर रही है। इसीलिए, हमें मजबूरी में हथियार उठाना पड़ रहा है।
स्थापना के कुछ समय बाद ही गोमा पर एम-23 का क़ब्ज़ा हो चुका था लेकिन उन्हें बहुत जल्द पीछे हटना पड़ा। DR कॉन्गो और यूएन की फ़ोर्स ने मिलकर एम-23 को हरा दिया। और, उसके लड़ाकों को देश से बाहर खदेड़ दिया गया। इस करारी हार के बाद एम-23 ने सरकार के साथ समझौता कर लिया। समझौते के तहत, एम-23 के फ़ाइटर्स सेना में शामिल हुए। बदले में सरकार ने वादा किया कि तुत्सी समुदाय की सुरक्षा का ध्यान रखा जाएगा लेकिन 2021 में ये समझौता भी टूट गया। एम-23 ने आरोप लगाया, कि सरकार अपने वादे पर ध्यान नहीं दे रही है। इसके बाद उन्होंने दोबारा हथियार उठा लिए। तब से वे कॉन्गो आर्मी के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। उन्हें रवांडा से सपोर्ट मिलता है। इसी सपोर्ट के दम पर वे लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहते हैं।
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रवांडा एम-23 को सपोर्ट क्यों करता है?
इस विवाद की जड़ 1994 के रवांडा नरसंहार में छिपी है। रवांडा में मुख्यतौर पर दो समुदाय हैं - हुतू और तुत्सी। हुतू संख्या में ज़्यादा हैं लेकिन ज़्यादातर संसाधनों पर तुत्सी लोगों का क़ब्ज़ा है। इसके चलते हुतू लोगों में गुस्सा पैदा हो रहा था। प्रभावशाली हुतू नेताओं ने इस गुस्से को जमकर भड़काया। फिर अप्रैल 1994 में एक प्लेन हादसा हुआ। इसमें रवांडा के तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबियारिमाना की मौत हो गई। हुतू गुटों ने इसका दोष तुत्सी समुदाय पर लगाया। इसके बाद पूरे देश में हिंसा फैली। अगले 100 दिनों में 10 लाख से ज़्यादा लोगों की हत्या हुई। मरने वालों में 80 फीसदी से ज़्यादा तुत्सी थे।
ये नरसंहार तब तक चलता रहा, जब तक कि तुत्सी गुट रवांडा पैट्रिअटिक फ़्रंट (RPF) ने सत्ता पर क़ब्ज़ा नहीं कर लिया। RPF को पॉल कगामे लीड कर रहे थे। जो अभी रवांडा के राष्ट्रपति हैं। बहरहाल, RPF की जवाबी कार्रवाई के बाद दस लाख से ज़्यादा हुतू रवांडा छोड़कर भाग गए। उन्हें डर था कि उनसे बदला लिया जाएगा। उन्हें DR कॉन्गो में शरण मिली।
जिस इलाक़े में उन्हें शरण मिली, वहां पर बड़ी संख्या में तुत्सी रहते थे। लाखों की संख्या में हुतू के आने से तुत्सी लोगों में डर पैदा हुआ। फिर जब हुतू भगोड़ों ने ने डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेस फ़ॉर द लिबरेशन ऑफ़ रवांडा (FLDR) बनाया। इस गुट का मक़सद रवांडा में हुतू समुदाय का गौरव लौटाना था। वे DR कॉन्गो में आज भी एक्टिव हैं। रवांडा का आरोप है, कि DR कॉन्गो की सरकार इस गुट के साथ मिली हुई है। वे रवांडा में अशांति फैलाने की साज़िश कर रहे हैं। इससे हमारी सुरक्षा को ख़तरा है।
DR कॉन्गो, FLDR के साथ किसी भी तरह के संपर्क से इनकार करता है लेकिन रवांडा इसको नहीं मानता। वो दो दफ़ा DR कॉन्गो में घुसकर हमला भी कर चुका है। इसके अलावा, रवांडा M23 और दूसरे तुत्सी गुटों को मिलिटरी सपोर्ट भी देता है। ऑफ़िशियली वो इससे इनकार करता है। लेकिन जब भी M23 के हमले तेज़ होते हैं, वो बॉर्डर पर अपने सैनिकों की तैनाती बढ़ा देता है। कई दफ़ा उनकी तरफ़ से लड़ने भी भेज चुका है।
वैसे, रवांडा का दखल सिर्फ़ हुतू और तुत्सी तक सीमित नहीं है। DR कॉन्गो का नॉर्थ किवु प्रांत मिनरल्स और नेचुरल रिसोर्सेस से भरा है। वहां सोने और कॉल्टन की काफ़ी खदानें हैं। कॉल्टन का इस्तेमाल मोबाइल फ़ोन से लेकर कैमरे और कार तक में होता है। एम-23 ने DR कॉन्गो की कई खदानों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। इससे रवांडा के ज़रिए पूरी दुनिया में बेचा जा रहा है। दिसंबर 2024 में यूनाइटेड नेशंस ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था, कि एम-23 हर महीने 120 टन कॉल्टन रवांडा भेज रहा है। इसी अनुपात में रवांडा का मिनरल एक्सपोर्ट बढ़ रहा था। इनमें से ज़्यादातर मिनरल्स DR कॉन्गो से चुराकर लाए गए थे।
लड़ाई में कौन-कौन शामिल?
- पहला नाम बुरुंडी का है। बुरुंडी की सीमा रवांडा और DR कॉन्गो, दोनों से लगी है। वहां भी रवांडा जैसा एथनिक इक़्वेशन है। हुतू बहुतसंख्यक और तुत्सी अल्पसंख्यक हैं। बुरुंडी में अलग बस इतना है, कि वहां बहुसंख्यक हुतू सत्ता में हैं। रवांडा में तुत्सी अल्पसंख्यक हैं। लेकिन 1994 से वे सत्ता में हैं। इसी वजह से दोनों देशों के बीच राइवलरी चलती रहती है। दोनों देश एक-दूसरे के यहां तख़्तापलट की साज़िश रचने के आरोप लगाते हैं। बुरुंडी का मानना है, कि एम-23 के विद्रोह से उसके यहां के तुत्सी गुट भड़क सकते हैं। इससे वहां तख़्तापलट की संभावना पैदा होगी। इसीलिए, बुरुंडी ने अपने चार हज़ार सैनिक साउथ किवु प्रांत में तैनात कर रखे हैं। ताकि वे एम-23 के कैंपेन को बुरुंडी तक पहुंचने से रोक सकें।
- इस लड़ाई में एक किरदार युगांडा का भी है, वह खु़द को DR कॉन्गो के साथ दिखाता है लेकिन रिपोर्ट्स हैं कि वह बैकडोर से एम-23 की भी मदद कर रहा है। ईस्टर्न कॉन्गो में युगांडा के कई चरमपंथी रहते हैं। वे युगांडा सरकार के लिए ख़तरा हैं। एम-23 इस ख़तरे से निपटने में मदद कर सकता है। युगांडा ने अपने रवांडा और DR कॉन्गो से लगी सीमा पर सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है। लेकिन वो अभी खुलकर लड़ाई में नहीं उतरा है।
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- अब अगले किरदार की तरफ़ चलते हैं। यह साउथ अफ़्रीका है। साउथ अफ़्रीका की कोई सीमा रवांडा या DR कॉन्गो से नहीं लगती। फिर भी वो दिलचस्पी क्यों ले रहा है? दरअसल, साउथ अफ़्रीकन रीजनल फ़ोर्स (SARF) में सबसे ज़्यादा सैनिक साउथ अफ़्रीका के हैं। जनवरी 2025 में एम-23 के हमले में 14 साउथ अफ़्रीकी सैनिक मारे गए थे। इसके बाद वह भड़क गया। उसने अपने सैनिकों की मौत का आरोप रवांडा पर लगाया था और रवांडा के राष्ट्रपति कगामे को धमकी दी थी कि अगर हमारा एक और सैनिक मरा तो जंग होगी।
रवांडा ने इसपर कड़ी आपत्ति जताई थी। उसने कहा था कि साउथ अफ़्रीका की पीसमेकर या मेडिएटर बनने की हैसियत नहीं है। और, जहां तक जंग की बात है। हम उसके लिए भी तैयार हैं। सैनिकों के अलावा, साउथ अफ़्रीका, DR कॉन्गो के सबसे बड़े ट्रेडिंग पार्टनर्स में से एक है। वहां की अस्थिरता से उसके बिजनेस इंटरेस्ट्स को नुकसान पहुंचता है। इसलिए भी वो DR कॉन्गो में दिलचस्पी ले रहा है।
इस लड़ाई का भविष्य क्या है?
- DR कॉन्गो सीधे एम-23 से बात करने के लिए तैयार नहीं है। वो रवांडा पर चाबी भरने का आरोप लगा रहा है।
- रवांडा का कहना है, कि हम एम-23 को सपोर्ट नहीं कर रहे हैं। बात करनी है तो सीधे उनसे करो। हमको इसमें मत घसीटो।
- उधर, बुरुंडी ने साउथ किवु में अपने सैनिकों को भेज दिया है। युगांडा बॉर्डर पर भी हलचल बढ़ी हुई है।
अगर जल्दी ही कोई समझौता नहीं हुआ तो जंग का दायरा और बढ़ सकता है। इसकी चपेट में अफ़्रीका के और भी देश आ सकते हैं। कई जानकार इसे तीसरे कॉन्गो वॉर की दस्तक के तौर पर देख रहे हैं। कॉन्गो वॉर को अफ़्रीका का वर्ल्ड वॉर भी कहते हैं। पहला कॉन्गो वॉर 1996 से 1997 तक चला था। ये जंग तब शुरू हुई थी, जब रवांडा की सेना हुतू विद्रोहियों के ख़िलाफ़ कैंपेन चलाने DR कॉन्गो में घुसी थी। बाद में इसमें और भी कई देश और विद्रोही गुट शामिल हुए। इस लड़ाई में एक लाख से ज़्यादा लोग मारे गए थे।
दूसरा कॉन्गो वॉर अगस्त 1998 में शुरू होकर 2003 तक चला। ये जंग भी रवांडा की वजह से ही शुरू हुई थी। उसने DR कॉन्गो की तत्कालीन सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर रहे तुत्सी गुटों को सपोर्ट दिया था। धीरे-धीरे जंग फैलती गई। इस लड़ाई के चलते 54 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए थे। इसको दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद का सबसे ख़तरनाक कॉन्फ़्लिक्ट माना जाता है।
उम्मीद यही की जानी चाहिए कि अबकी दफ़ा शांति का हाथ हिंसा की चाह पर भारी पड़े। वरना क़यामत तय है।