जब से ईरान और इज़रायल की लड़ाई चल रही है, तब से बार-बार इस बात को रेखांकित किया जा रहा है कि इज़रायल के साथ तो अमेरिका है, यूरोप है एक तरह से पूरा पश्चिम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इज़रायल के पाले में है लेकिन ईरान अकेला है। एक ऐसा मुल्क, जहां इस्लामिक क्रांति हुई। जिसने पूरी दुनिया में इस्लामिक क्रांति को एक्सपोर्ट करना चाहा, वह ईरान अकेला है जबकि दुनिया में कुल आबादी का लगभग 25 फीसदी माने 190 करोड़ मुसलमान हैं। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म।
ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉपरेशन यानी OIC में कुल 57 मुस्लिम देश हैं। जिनमें से 49 में मुस्लिम बहुल आबादी है। कई ऐसे मुस्लिम देश भी हैं जिनके पास अथाह पैसा है, तेल है और शक्ति भी है। वह भी ईरान के पड़ोस में- सऊदी अरब, कतर, यूएई, तुर्की। फिर भी ईरान अकेला नज़र आ रहा है।
ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली ख़ामेनई को भी आपने ‘एक मुस्लिम उम्माह’ की गुहार लगाते सुना होगा। वह अक्सर जुमे की नमाज़ के खुतबे में यह बात करते सुने जाते हैं। इसी हफ्ते एक ईरानी सीनियर कमांडर ने भी मुस्लिम उम्माह का वास्ता देते हुए पाकिस्तान की तरफ से आने वाली मदद का दावा कर दिया। उन ईरानी जनरल का नाम है मोहसीन रेज़ई। वह ईरान की नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के मेंबर भी हैं। 15 जून को इन्होंने दावा किया कि अगर इजरायल हमारे खिलाफ़ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा तो पाकिस्तान इजरायल पर परमाणु बम गिराने से भी गुरेज़ नहीं करेगा। बता दें कि पाकिस्तान इकलौता मुस्लिम देश है जिसके पास परमाणु बम है।
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ईरानी कमांडर ने यह भी कहा कि इस समय मुस्लिम उम्माह को ईरान का साथ देना चाहिए लेकिन जैसे ही इस बयान ने सुर्खियां बनानी शुरू कीं पाकिस्तान ने फ़ौरन सफ़ाई दे डाली। उसने कहा, 'यह झूठा दावा है, हमने कभी ऐसी बात की ही नहीं। हम एक ज़िम्मेदार देश हैं जो परमाणु शक्ति का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर करेंगे।' यानी पाकिस्तान ने भी मुस्लिम उम्माह का वास्ता नकार दिया। पर यह मुस्लिम उम्माह है क्या? क्यों ईरान इसकी दुहाई देता है? क्या उम्माह की बात महज एक रेटरिक है। मिडिल ईस्ट में तमाम देशों में से कोई भी ईरान के पक्ष में क्यों खड़ा नहें हो रहा है? आइए समझते हैं।
क्या है मुस्लिम उम्माह?
ईरान इजरायल संघर्ष के बीच मुस्लिम उम्माह की चर्चा आप लगातार सुन रहे होंगे, इसलिए पहले समझते हैं , यह उम्माह है क्या? मुस्लिम उम्माह को आसान भाषा में पूरी दुनिया का मुस्लिम समुदाय कहेंगे। थ्योरी में यह ऐसा समुदाय जो अपने फेथ यानी आस्था की बुनियाद पर एक है। मुस्लिम उम्माह का हिस्सा दुनिया के हर मुसलमान को माना जाता है, भले ही वे दुनिया के किसी भी देश में हो। उसकी नागरिकता कहीं की हो। उसका रंग या शक्ल दूसरे मुसलमानों से अलग हो। वह चाहे अरब में रहता हो या चीन में, इजरायल में रहता हो या अफ्रीका में। वह अपनी धार्मिक मान्यता के बुनियाद पर मुस्लिम उम्माह का हिस्सा है। अब यह है थ्योरी। प्रैक्टिकल दुनिया अलग तरीके से काम करती है। क्यों? धीरे-धीरे आपको सारे जवाब मिल जाएंगे।
हम उम्मा के प्रिंसिपल्स पर और इसके क्रिटिक्स पर जाएं उससे पहले थोड़ा बेसिक्स क्लियर कर लेते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई? इस्लाम में मान्यता है कि मानवता के लिए ईश्वर ने अपने संदेश वाली किताबें और लगभग 1 लाख 24 हज़ार पैगंबर या ईशदूत भेजे थे। इनमें से आखिरी हुए पैगंबर मोहम्मद, जो 540 में पैदा हुए। यानी आज से लगभग साढ़े 14 सौ साल पहले। उन पर कुरान नाज़िल हुई। कुरान को ही ईश्वर के फाइनल वर्ड्स बताया गया। यानी पैगंबर मोहम्मद ईश्वर के अंतिम दूत हैं और कुरआन ईश्वर की भेजी आख़िरी किताब।
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पैगंबर मोहम्मद और कुरआन में जिन्होंने यकीन किया वह कहलाए मुसलमान। अब इस्लाम में मानने वालों के लिए 3 चीज़ें तय की गईं।
पहली, तौहीद यानी एक ईश्वर में यकीन करना। दूसरी रिसालत, यानी इस बात पर यकीन करना कि ईश्वर ने समय-समय पर अपने दूत भेजे हैं। जैसे ईसा, मूसा, इब्राहीम लेकिन पैगंबर मोहम्मद आख़िरी ईशदूत हैं। और तीसरी शर्त है आख़िरत, यानी डे ऑफ़ जजमेंट में यकीन करना। इसका मतलब कि मरने के बाद ईश्वर आपके अच्छे बुरे का फैसला करेगा और आपको आपके कर्मों के मुताबिक स्वर्ग या नर्क मिलेगा।
ये तो हुईं वे मान्यताएं जो हर मुसलमान को माननी लाज़मी थीं। इन्हीं की बुनियाद पर आया मुस्लिम उम्माह का कॉन्सेप्ट लेकिन यह कुछ साल ही ढंग से चल सका। कब तक, क्यों और कैसे? अब यह समझते हैं।
कुछ साल ही क्यों चल पाया मुस्लिम उम्माह?
पैगंबर मोहम्मद एक ईशदूत थे तो उन्होंने ईश्वर का संदेश तो लोगों तक पहुंचाया ही साथ में एक स्टेट भी बनाया - रियासत ए मदीना। जिसका पावर सेंटर मदीना में था। पैगंबर मोहम्मद ने यह स्टेट इस्लामिक मूल्यों से चलाया और ज़ाहिर सी बात है वही उस समय मुसलमानों के सबसे बड़े फिगर थे तो उस स्टेट के मुखिया भी वही थे लेकिन उनके दुनिया से जाने के बाद डिबेट शुरू हुई कि अब इस स्टेट या रियासत को कौन आगे चलाएगा?
इसलिए पैगंबर मोहम्मद के जाने के बाद उनके साथियों से आपस में सुलह करके अबू बक्र को अपना नेता चुना और इस तरह अबू बक्र बने इस्लाम के पहले खलीफा। वह न सिर्फ मुसलमानों के पॉलिटिकल नेता थे बल्कि वही मुसलमानों के सबसे बड़े रूहानी लीडर भी थे। अब भी स्टेट चलाने में इस्लामिक मूल्यों का इस्तेमाल हो रहा था।
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पैगंबर मोहम्मद के जाने के बाद इस्लाम भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचा। इस समय तक भी मुस्लिम उम्माह वाली बात भी कायम रही। मुसलमान दुनिया के किसी भी कोने में होते लेकिन आस्था की बुनियाद पर एक थे। अबू बक्र की मृत्यु के बाद उमर दूसरे खलीफ़ा चुने गए। इनके ज़माने में इस्लामिक रियासत ख़ूब फली फूली और बड़ी हुई। उन्होंने सासानी, बाइजेंटाइन जैसे मज़बूत एम्पायर पर जीत हासिल की और मौजूदा मिडिल ईस्ट जिसमें इराक, ईरान, अफगानिस्तान, सीरिया, अजरबैजान, आर्मेनिया, जॉर्जिया, जॉर्डन, फिलिस्तीन, लेबनान, मिस्र, अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और दक्षिण-पश्चिमी पाकिस्तान के कुछ हिस्सों को अपनी रियासत में शामिल किया।
उमर के बाद उस्मान तीसरे खलीफा बने और फिर उस्मान के कत्ल के बाद अली को चौथा खलीफ़ा बनाया गया। इन चार खलीफ़ा के कालखंड को खिलाफत-ए-राशिदा कहा गया। यह खिलाफत लगभग 30 साल चली। उसके बाद से उमय्यद खिलाफत की शुरुआत हो गई।
पर ज़्यादातर इस्लामिक विद्वान खिलाफत-ए-राशिदा को खिलाफ़त का अंत मानते हैं। मौलाना मौदूदी अपनी किताब खिलाफ़तो मलूकियत में लिखते हैं कि खिलाफत ए राशिदा के बाद सभी हुकूमतें किंगशिप में तब्दील हो गईं। वह इस्लाम के उन मूल्यों से दूर होते गए, जो पैगंबर मोहम्मद ने स्थापित किए थे।
कैसे हुआ बदलाव?
इसके बाद की हुकूमतों में बस नाम मुसलमानों का रह गया। जैसे इन हुकूमतों में अपने परिवार और रिश्तेदारों को ख़ास जगह दी जाने लगी बिना मैरिट के। बाप अपने बेटे को उत्तराधिकारी बनाने लगा। जो इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ़ था।
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कट टू 1 नवंबर 1922। यह वह दिन था जब मुसलमानों की आख़िरी खिलाफत भी चली गई। भले ही विद्वानों के नज़रिए से यह खिलाफ़त उतनी काबिल नहीं थी लेकिन रिवायत के लिए ही सही। खिलाफत तो थी। पर पहले विश्व युद्ध में इसका खात्मा हो गया। हम बात कर रहे हैं ओटोमन एम्पायर की। जानकारों का मानना है कि इस ख़िलाफ़त तक भी मुस्लिम उम्माह का कॉन्सेप्ट काम कर रहा था लेकिन पहले और ख़ास तौर पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद से इसका ऐसेंस खत्म सा होने लगा था। उसकी सबसे बड़ी वजह थी नेशन स्टेट। यानी इसके बाद से दुनिया में नए नए देश अस्तित्व में आ रहे थे।
मिडिल ईस्ट के देशों से फ्रांस और ब्रिटेन अपना कब्ज़ा छोड़कर जा रहे थे। अफ्रीका के भी मुस्लिम देश आज़ाद हो रहे थे। 1947 में भारत का भी बंटवारा हो गया और पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया और फिर नेशनलिज्म यानी राष्ट्रवाद ने मुस्लिम उम्माह की भावना को और चोट पहुंचाई।
उस समय अल्लामा इक़बाल जैसे विद्वानों ने मुसलमानों को राष्ट्रवाद से दूर रखने की बात तो कही लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। फिर कुछ विद्वानों ने नेशनलिज्म की काट के रूप मुस्लिम नेशनलिज्म को आगे किया। इसे इस्लामिक नेशनलिज्म भी कहा गया। अब इसका मकसद भी कुछ कुछ इस्लामिक उम्माह जैसा था लेकिन इसका केंद्र एक नेशन स्टेट ही होता तो इसे ऐसे समझिए कि नेशन स्टेट माने आधुनिक राष्ट्र बनने के बाद उम्माह का ऐसेंस लगभग खत्म हो गया। भले ही लोग दूसरे देश के मुसलमानों के लिए हमदर्दी रखते लेकिन जब बात उनके देश पर आती तो उन्हीं मुसलमानों को मारने काटने पर भी राज़ी हो जाते।
उदाहरणों से समझें बात
4 छोटे-छोटे उदाहरण आपके लिए दे देते हैं। पहला, 17 वीं शताब्दी में पहला सऊदी राज्य बना। धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता गया। इससे ओटोमन्स असहज हुए क्योंकि वही अरब ज़मीन पर राज करना चाहते थे। दोनों के बीच तकरार बढ़ी और 1811 में दोनों के बीच जंग शुरू हुई। इस लड़ाई में दसियों हज़ार मुसलमान मारे गए। इसका स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं था पर मुसलमानों के हाथों मुसलमान तो कत्ल हुए ही थे। यह नेशन स्टेट बनने के बाद शुरुआती मुस्लिम vs मुस्लिम लड़ाई में से एक था।
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दूसरा उदाहरण आधुनिक दौर का देते हैं आपको। ईरान और इराक की जंग। बता दें कि 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई। अयातुल्लाह ख़ुमैनी सुप्रीम लीडर बने। उन्होंने यह क्रांति एक्सपोर्ट करने की बात कही। यानी अब इसी तरह का इस्लामी इंकलाब दूसरे मुस्लिम देशों में भी आएगा। इससे बगल के देश इराक में दहशत हुई। सद्दाम हुसैन को लगा कि ऐसे उनकी सत्ता जा सकती है। इसलिए उन्होंने ईरान पर हमला कर दिया। दोनों देशों की भयानक जंग हुई। इसमें दोनों तरफ के मिलाकर लगभग 5 लाख लोग मारे गए थे।
तीसरा उदाहरण, ईरान और सऊदी अरब का है। दोनों प्रॉक्सी के ज़रिए लड़ते हैं। ईरान शिया देश है पर वह फिलिस्तीन के सुन्नी संगठनों को पैसा और हथियार देता है। लेबनान में हिज्बुल्लाह को समर्थन देता है। यमन में हूतियों को ईरान का पूरा समर्थन मिला हुआ है। यमन के ज़्यादातर इलाकों में हूतियों का ही कब्ज़ा है। अन्तरराष्ट्रीय मान्यता सरकार भी है यहां। इसको सऊदी अरब समर्थन देता है। 2014 में भयंकर जंग हुई थी यहां। जिसे सऊदी अरब और ईरान ने अप्रत्यक्ष तौर पर लड़ी थी।
चौथा उदाहरण सीरिया का ले लीजिए। हाफिज़ अल असद ने हमा शहर में 40 हज़ार मुसलमानों का कत्लेआम करवाया, उनके बेटे बशर अल असद ने सत्ता संभाली तो भी वही हथकंडे अपनाए। अपने ही देश के हज़ारों नागरिकों को मरवा दिया। फिर सीरिया के अंदर ही कई गुट खड़े हुए। इस्लामिक स्टेट भी बना। सब एक दूसरे से लड़ रहे थे। मुसलमान ही मुसलमान को मार रहा था। यहां भी मुस्लिम उम्माह वाला विचार काम नहीं आया। इसके अलावा भी दर्जनों उदाहरण हम आपको इसी तरह का दे सकते हैं।
क्या उम्माह की वजह से अकेला पड़ गया है ईरान?
मुस्लिम उम्माह धर्म से उपजा विचार है लेकिन जैसा अभी दिए उदाहरणों से आप देख सकते हैं, मॉडर्न नेशन स्टेट्स ऐसे बर्ताव नहीं करते। देशों की सियासत अलग तरीके से काम करती है इसलिए ईरान के आइसोलेशन को हम सिर्फ़ उम्माह के नजरिए से नहीं देख सकते। असली दिक्कत ख़ुद ईरान की है। 1979 में अमेरिका समर्थित शाह रिजीम को उखाड़ फेंकने के बाद ईरान के लीडर्स को लगा था कि वे यही मॉडल बाकी देशों में भी एक्सपोर्ट कर सकते है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे सोवियत संघ करता है और अमेरिका डेमोक्रेसी एक्सपोर्ट करने का दावा करता है। मिडिल ईस्ट में फिलिस्तीन का मुद्दा सबसे ज्वलंत मुद्दा है। इस पर ईरान ने दशकों से ख़ुद को रहनुमा बनाकर पेश करने की कोशिश की है।
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लेबनान में हेजबुल्ला को मिली सफलता से ईरान की यह सोच मजबूत हुई। सीरिया, यमन, लेबनान के रास्ते ईरान ने एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस बनाया। इन देशों में ईरान समर्थित गुटों का मजबूत होना, ईरान के लिए सक्सेस थी लेकिन यहीं पर उसकी आँखों में ब्लिंकर्स लग गए। सऊदी अरब, जॉर्डन, मिस्र जैसे देशों से रिश्तो में सुधार की उतनी कोशिश हुई नहीं। कम से कम शीर्ष लेवल पर जबकि ये तमाम देश 1970 के बाद इजरायल से संबंध सुधार रहे हैं। कहने का मतलब ईरान ने एक मिडिल ईस्ट में वह गठजोड़ तैयार नहीं किया, जो इस वक्त मिलिट्री नहीं तो कूटनीतिक तरीकों से ही उसकी मदद कर सकता था। इसके बजे ईरान ने नॉन स्टेट एक्टर्स को बढ़ावा देने की कोशिश की। साथ की चीन और रूस से उम्मीद लगाई कि अमेरिका के ख़िलाफ़ वह आएंगे लेकिन चीन और रूस दोनों के मिडिल ईस्ट में अपने हित हैं। हो सकता है दोनों अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी हों लेकिन इजरायल के साथ दोनों के अच्छे संबंध है। ऐसी स्थिति में ये दोनों देश खुलकर इजरायल के पक्ष में नहीं आने वाले। कुल मिलाकर बात यह कि माया मिली ना राम।
1979 की क्रांति की सफलता ने ईरान की फॉरेन पालिसी को एक ऐसे रास्ते में डाल दिया, जहां मिलिट्री छोड़ो, डिप्लोमेटिक गठबंधन की भी संभावना नहीं बन पाई। कम से कम तब तो नहीं जब आपके दुश्मनों में अमेरिका जैसी महाशक्ति और उसका ऑल वेदर दोस्त इजरायल हो। इसलिए जानकार कहते हैं कि आधुनिक दौर में मुस्लिम उम्माह की बात सिर्फ़ रेटरिक है। जबसे ग़ज़ा में जंग शुरू हुई है तब से मुस्लिम देशों के सिर्फ बयान आ रहे हैं। ख़ासकर मिडिल ईस्ट में। जो करने के काम हैं वह दूसरे देश कर रहे हैं, जैसे साउथ अफ्रीका ने इजरायल को अन्तरराष्ट्रीय कोर्ट में घसीटा है। वह एक ईसाई बहुल मुल्क है पर किसी भी मुस्लिम देश की तरफ से ऐसा कुछ अब तक नहीं किया गया है।