नेपाल में सोशल मीडिया पर लगे बैन के बाद हुए Gen Z प्रोटेस्ट ने केपी शर्मा ओली की सरकार गिरा दी। फिलहाल नेपाल में नेतृत्व को लेकर भ्रम की स्थिति है। देश के प्रधानमंत्री इस्तीफा दे चुके हैं, राष्ट्रपति कहां हैं, यह कोई नहीं जानता। अब नेपाल अपना नया नेता चुनने की तैयारी कर रहा है। नेपाल में इस तरह की चर्चा पहली बार नहीं हो रही है। नेपाल की शुरुआत से ही उसमें कई बार उतार चढ़ाव आए हैं। नेपाल एक ऐसा देश है जहां सैकड़ों साल तक राजशाही रही।
भारत और नेपाल के बीच 1,751 किलोमीटर लंबा बॉर्डर है। यह हिस्सा सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से होकर गुजरता है। नेपाल दुनिया में सबसे गरीब देशों में शामिल है। इसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आर्थिक मदद और टूरिज्म पर निर्भर करती है। बात करते हैं नेपाल के इतिहास की।
18वीं सदी से शुरुआत
नेपाल का इतिहास 18वीं सदी से शुरू होता है। उस समय नेपाल छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था। गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने ही इन रियासतों को जोड़कर एक राष्ट्र की नींव रखी। नेपाल पर लंबे समय तक शाह वंश ने शासन किया लेकिन 1846 में हुआ कोत कांड ने इतिहास को पूरी तरह से बदल दिया। 14 सितंबर 1846 को तत्कालीन काजी जंग बहादुर कुवर और उनके भाइयों ने नेपाल के महल पर हमला किया। महल में मौजूद करीब 30-40 लोगों की हत्या कर दी गई। इसमें कई सेना के अधिकारी, नागरिक और देश के प्रधानमंत्री चौतरिया फतेह जंग शाह भी मारे गए। इसके बाद यहां राणा वंश का दौर शुरू हो गया। इस वंश ने भी 104 साल शासन किया। राणा वंश ने अपनी तानाशाही के जोर पर नेपाल को और पीछे धकेल दिया।
ये भी पढ़ें- नेपाल में हिंसा का नया दौर; जेल तोड़कर भाग रहे कैदी, 15000 हो गए फरार
20वीं सदी में पड़ी लोकतंत्र की नींव
राणा वंश के शासन के समय स्कूल, कॉलेज और प्रेस पर पूर्ण रूप से पाबंदी थी। 20वीं सदी के बीच भारत के साथ-साथ नेपाल में भी आजादी के लिए आवाज उठने लगी। 1950 में राजा त्रिभुवन ने भारत की मदद से राणा शासन को समाप्त कर दिया। साल 1951 में राणा शासन खत्म होने के बाद नेपाल ने पहली बार लोकतंत्र को जाना। देश में 1959 में पहली बार आम चुनाव हुए और बीपी कोइराला देश के पहले चुने हुए प्रधानमंत्री बने।
उसके बाद फिर से एक निर्णय ने सब कुछ बदल दिया। 1960 में उस समय के राजा महेंद्र ने अचानक संसद को भंग करके देश में पंचायत प्रणाली लागू कर दी। इस व्यवस्था में भी राजा ही सब कुछ था। तीन दशक बाद 1990 में एक और जनआंदोलन हुआ जिसने देश को फिर से नई दिशा दी।
इस आंदोलन ने राजा बीरेन्द्र को जनता के सामने झुकने पर मजबूर कर दिया। राजा ने संविधान में बदलाव कर देश में बहुदलीय सरकार की स्थापना की। उस समय देश के प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टराई चुने गए।
21वीं सदी में नरसंहार का दौर फिर से वापस
नेपाल में पहले से ही लोकतंत्र सीधे तौर पर लोगों को फायदा नहीं पहुंचा पाई है। नेपाल में भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक असमानता ने हमेशा नए आंदोलन को जन्म दिया है। 1996 में इसी असमानता का फायदा उठाकर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया। उन्होंने ग्रामीण इलाके में अपनी पैठ बना ली और देश में अपनी एक समानांतर सरकार चलाने लगे। इस बदलाव ने देश में हिंसा और अस्थिरता का दौर फिर से शुरू कर दिया। 2001 में देश में ऐसा कुछ हुआ जिसने पूरे देश में फिर से अस्थिरता का माहौल बना दिया। शाही परिवार के सदस्यों समेत राजा बीरेंद्र की हत्या हो गई। नेपाल के युवराज दीपेंद्र ने ही शराब के नशे में अपने पूरे परिवार को मार डाला।
ये भी पढ़ें- सुशीला कार्की हो सकती हैं नेपाल की अंतरिम PM, सरकार बनाने की राह साफ
राजा बीरेंद्र की मृत्यु के बाद उनके भाई राजा ज्ञानेंद्र ने पूरी तरह से सत्ता अपने हाथ में ले ली। 2005 में फिर से एक बड़ा जनआंदोलन हुआ जिसमें लाखों लोग सड़क पर उतरकर ‘राजा हटाओ, लोकतंत्र लाओ’ का नारा मजबूत किया। इस भारी दबाव के आगे राजा ज्ञानेंद्र को झुकना पड़ा।
2008-15 का नया नेपाल
2008 में संविधान सभा ने एक बड़ा और ऐतिहासिक फैसला लिया जिसने देश को राजतंत्र से मुक्त कर लोकतंत्र में बदल दिया। देश के अंतिम राजा ज्ञानेंद्र सिंह को महल छोड़ना पड़ा। 2015 में नया संविधान लागू किया गया जिसने देश को 7 प्रांतों में बांटा। फिर से राजनीतिक अस्थिरता, गठबंधन की सरकार और 2015 के भयानक भूकंप ने देश के सामने कई बड़ी चुनौतियां खड़ी कर दी।
नेपाल में अभी हुआ युवाओं का इतने बड़े प्रदर्शन ने केपी शर्मा ओली की सरकार गिरा दी और देश में फिर से अस्थिरता का माहौल खड़ा कर दिया। नेपाल के इतने लंबे इतिहास ने देश में मजबूत सरकार का सपना अभी भी अधूरा है।
