जरूरत से ज्यादा समय तक चुप रहना, अकेले रहना, अकेले खेलना और बिना बात के रोते रहना। इन सारे असामान्य लक्षणों को ऑटिज्म का नाम दिया गया है। ज्यादातर यह बच्चों में होता है। ऑटिज्म का पूरा नाम ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) है। यह एक तरीके की समस्या है। जिसमें बच्चों का दिमाग समान्य दिमाग से थोड़ा अलग होता है। इस डिसऑर्डर के लक्षण बच्चों में जरूरत से ज्यादा फोन चलाने की वजह से भी आ जाते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बहुत से लोग ऐसी स्थिति में सफलता से अपनी जिंदगी जी रहे हैं। ऐसे लोगों को ऑटिस्टिक (Autistic) भी कहते हैं। 

 

ऑटिस्टिक लोग कुछ मामले में काफी प्रोडक्टिव होते है। वहीं, कहीं-कहीं इन्हें पता ही नहीं होता कि यह काम कैसे कर सकते हैं। जब परिवार को लगता है कि अब इस स्थिति में परिवार और समाज में रहना मुश्किल होगा। तब इसपर लोग काम करने के बारे में सोचते हैं। डॉक्टरों के मुताबिक, अगर लक्षण बचपन में ही पता चल जाए तो बच्चों को जरूरत की स्किल्स सिखाना काफी आसान होता है। साथ ही, उनकी कमियों को भी काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

 

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कैसे होता है ऑटिज्म?

न्यूक्लियर फैमिली

जब फैमिली में मां-बाप दोनो वर्किंग हों और बच्चे से बात करने के लिए घर में परिवार का कोई भी सदस्य नहीं होता। उस स्थिति में बच्चे घर में रखी निर्जीव (नॉन लिविंग थिंग्स) चीजों को ही अपनी दुनिया समझने लगते हैं। इसके बाद बच्चे इन्हीं से बात करते हैं और बच्चों के दिमाग में इन चीजों को लेकर इमोशन डेवलप हो जाते हैं। ऐसे बच्चे फिर लोगों से बोलना, उन्हें सुनना और समझना छोड़ देते हैं।

जेनेटिक कारण

प्रेग्नेसी के वक्त जब बच्चे अपनी मां के पेट में रहते हैं, उस समय जब उनके न्यूरो का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता तब यह बीमारी हो जाती है। कई बार जेनेटिक परेशानी की वजह से भी यह बीमारी हो सकती है। गर्भावस्था में किसी खतरनाक वायरल इंफेक्शन की वजह से, किसी जरूरी पोषक तत्व के कमी की वजह से, नशे की लत, बहुत ज्यादा प्रदूषण की वजह से भी यह बीमारी बच्चों में आ सकती है।

ज्यादा स्क्रीन टाइमिंग

जब बच्चे समय से पहले और जरूरत से ज्यादा फोन चलाते हैं। उस स्थिति में बच्चों का मानसिक विकास रुक जाता है या फिर उनके दिमाग का विकास धीरे होता है। इसकी वजह से बच्चे अपनी उम्र से पीछे हो जाते हैं और उनके सोचने समझने की क्षमता कम हो जाती है। 

 

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क्या हैं ऑटिजम के लक्षण?

डॉक्टरों के मुताबिक, जब बच्चे 3 साल के हो जाएं और दूसरे बच्चों के साथ खेलना न पसंद करें, 4 साल की उम्र तक बच्चे का अपने आप में कुछ बनने का लक्ष्य न हो जैसे- डॉक्टर, इंजीनियर या फिर सुपरहीरो। वहीं, अगर बच्चा 5 साल का हो गया और वह कोई भी काम बार-बार करे, एक ही बर्ताव बार-बार दोहराए इसे रिपिटेटिव बिहेवियर कहा जाता है। जिन बच्चों में ऐसे लक्षण होते हैं, उनमें ऑटिज्म होने के 90 प्रतिशत से ज्यादा चांस होते हैं।

 

डॉक्टरों ने बताया कि अगर बच्चा बार-बार एक ही शब्द या वाक्य दोहराए, जैसे- 'खा लिया, खा लिया, खा लिया...' तो इसे ऑटिजम में इकोलालिया कहा जाता है। ऐसे बच्चे जो एक ही तरह के खेल खेलते हों, एक ही तरह के खिलौने खेलते हों, टोकने या मना करने पर बहुत ज्यादा गुस्सा करते हों, अचानक से हाइपर हो जाते हों, कुछ भी उठाकर फेंक देते हों, बार-बार बिना मतलब ताली बजाते हों, ऐसे लक्षण वाले बच्चों में भी ऑटिज्म डाइग्नोस होने के चांस बढ़ जाते हैं।

 

डॉक्टरों के अनुसार, अगर बच्चा 18 महीने की उम्र पूरी करने के बाद भी एक भी शब्द न बोलता हो, जैसे- पानी, खाना, चाय। वहीं, 19 से 35 महीने तक बच्चा शब्दों को जोड़कर फ्रेज न बना पाता हो, जैसे- मुझे दे दो, यह खा लो,आदि। ऐसे बच्चे ज्यादातर ऑटिज्म के शिकार होते हैं।

किस उम्र में बच्चों को देना चाहिए फोन?

अगर जरूरी न हो तो बच्चों को मोबाइल फोन नहीं ही देना चाहिए। फोन देना कितनी भी बड़ी मजबूरी ही हो लेकिन 2 से 3 साल तक के बच्चों को बिल्कुल भी फोन न दें। 5 साल से लेकर 14 साल तक के बच्चों को जितनी उनकी उम्र है उतने ही मिनट उन्हें फोन देना चाहिए। जब बच्चा 15 साल का हो जाए तो उसकी उम्र के दोगुने समय तक यानी 15 साल के बच्चे को 30 मिनट तक फोन देना चाहिए।

 

लगातार फोन की स्क्रीन में देखने से बच्चों की आंखों पर असर पहुंचता है इसलिए हमें दिन भर में 20:20:20 का तरीका अपनाना चाहिए। जैसे हर 20 मिनट में 20 बार पलकें झपकानी चाहिए, फिर लगातार 20 सेकेंड तक 20 फिट दूर देखना चाहिए। आजकल बच्चों में मायोपिया (दूर की चीजें देखने में परेशानी) बहुत ही कॉमन हो चुका है। अगर मोबाइल के लिए टाइमटेबल सही तरीके से फॉलो हो रहा है तो पढ़ाई के अलावा कंप्यूटर या लैपटॉप भी इतने ही वक्त के लिए इस्तेमाल करने देना चाहिए।