बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव हैं और आरक्षण की सियासत शुरू हो गई है। बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम और RJD नेता तेजस्वी यादव का कहना है कि तमिलनाडु की तरह ही हम भी 65% आरक्षण को 9वीं अनुसूची में शामिल कराकर ही दम लेंगे।


तेजस्वी ने कहा, 'हम तमिलनाडु की तर्ज पर 65% आरक्षण को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल कराकर ही दम लेंगे। महागठबंधन सरकार ने आरक्षण को 49.5% से बढ़ाकर 65% किया था। इसे 9वीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव भी केंद्र सरकार को दिया था लेकिन कोई पहल नहीं हुई। इस कारण पिछड़ा-अति पिछड़ा, अनुसूचित जाति-जनजाति को लगभग 16% आरक्षण से वंचित होना पड़ रहा है।'


तेजस्वी ने दावा करते हुए कहा कि नीतीश चाहते तो 65% आरक्षण को 9वीं अनुसूची में शामिल करवा सकते थे लेकिन उसके लिए कोई पहल नहीं की। 

 

यह भी पढ़ें-- कहानी कश्मीर की... कुछ पाकिस्तान के पास तो कुछ चीन के पास

नीतीश ने तो 75% आरक्षण कर दिया था!

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में आरक्षण बढ़ाकर 75% कर दिया था। उन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अति पिछड़ा वर्ग (EBC), अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) का कोटा बढ़ा दिया था। 


इसके बाद OBC को 18%, EBC को 25%, SC को 20% और ST को 2% आरक्षण दे दिया था। कुल मिलाकर ये 65% आरक्षण हो गया था। इनके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण भी मिलता है। इस हिसाब से बिहार में 75% आरक्षण तय हो गया था।


हालांकि, नीतीश सरकार के इस फैसले को कानूनी चुनौती मिली। जून 2024 में पटना हाईकोर्ट ने नीतीश सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी। बाद में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। अभी मामला सुप्रीम कोर्ट में ही है।

 

यह भी पढ़ें-- भारत कैसे भाषा पर लड़ने लगा? पढ़ें हिंदी विरोध की पूरी कहानी

तय है आरक्षण की सीमा

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। 


शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए ही थी। फिर 1959 में 8वां संविधान संशोधन कर इसे 10 साल के लिए और बढ़ा दिया। इसके बाद 1969 में 23वां संशोधन कर 10 साल के लिए और बढ़ा दिया। तब से हर 10 साल बाद आरक्षण की सीमा को 10 साल के लिए बढ़ा दिया जाता है।


आरक्षण को लेकर 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50% तय कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

तमिलनाडु का जिक्र क्यों कर रहे तेजस्वी?

तमिलनाडु में 1971 तक 41% आरक्षण मिलता था। उसके बाद जब डीएमके के करुणानिधि मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पिछड़ों के वेलफेयर के लिए सत्तनाथन आयोग का गठन किया। आयोग की सिफारिश के आधार पर करुणानिधि ने आरक्षण बढ़ा दिया। इसके बाद तमिलनाडु में आरक्षण की सीमा 49% हो गई। 


1980 में तमिलनाडु में जब AIADMK की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने पिछड़ा वर्ग के लिए 50% आरक्षण कर दिया। इससे तमिलनाडु में कुल आरक्षण 68% हो गया।


साल 1989 में जब करुणानिधि दोबारा सीएम बने तो उन्होंने अति पिछड़ा वर्ग की एक कैटेगरी बना दी। 1990 में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के बाद करुणानिधि सरकार ने ST के लिए भी अलग से 1% आरक्षण की व्यवस्था कर दी। इससे आरक्षण की सीमा बढ़कर 69% हो गई।


तमिलनाडु में पिछड़ा वर्ग को 26.5%, अति पिछड़ा वर्ग को 20% और पिछड़ी मुस्लिम जातियों को 3.5% आरक्षण मिलता है। इनके अलावा अनुसूचित जाति को 18% और जनजाति को 1% आरक्षण मिलता है।

 

यह भी पढ़ें-- ट्रंप का टैरिफ अटैक चीन के लिए 'आपदा' तो भारत के लिए 'अवसर' कैसे?

तमिलनाडु में ऐसे पक्का हुआ 69% आरक्षण

1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50% तय कर दी। तमिलनाडु की जयललिता सरकार तुरंत मद्रास हाईकोर्ट पहुंची और बताया कि आरक्षण लागू हो गया है। इसके बाद हाईकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में 1993-94 में इसी आरक्षण को लागू करने की इजाजत दे दी। हालांकि, मामला अदालत में फंसा रहा।


1993 में जयललिता सरकार 69% आरक्षण के लिए एक नया बिल लेकर आई। जयललिता सरकार ने इस बिल को संविधान की 9वीं अनुसूची के तहत पेश किया, ताकि इसे किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। संविधान का अनुच्छेद 31B कहता है कि 9वीं अनुसूची के तहत आने वाले कानून या प्रावधान को न तो अमान्य घोषित किया जा सकता है और न ही किसी अदालत में चुनौती दी जा सकती है। इस तरह से राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद तमिलनाडु में 69% आरक्षण लागू हो गया।


हालांकि, पिछले कुछ सालों में संविधान की 9वीं अनुसूची को भी सुप्रीम कोर्ट में असंवैधानिक बताते हुए चुनौती दी गई है। हालांकि, कोर्ट ने इस पर अभी तक सुनवाई शुरू नहीं की है।