भारत कैसे भाषा पर लड़ने लगा? पढ़ें हिंदी विरोध की पूरी कहानी
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन एक बार फिर हिंदी के विरोध में खड़े हो गए हैं। हालांकि, तमिलनाडु या दक्षिणी राज्यों में हिंदी के विरोध की कहानी नई नहीं है। आजादी के बाद या यूं कहें कि इससे भी पहले से यह लड़ाई शुरू हो गई थी।

प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)
'अगर संख्या ही पैमाना है तो मोर की जगह कौए को राष्ट्रीय पक्षी बना लेना चाहिए।' यह बात सीएन अन्नादुरई ने तब कही थी, जब भारत को आजाद हुए दो दशक भी नहीं हुए थे और हिंदी को राजभाषा बनाने की तैयारी चल रही थी। हिंदी को राजभाषा बनाए जाने के समर्थन में तर्क देने वालों को अन्नादुरई ने मजाक में ऐसा जवाब दिया था।
अन्नादुरई को 'अन्ना' भी कहा जाता था, जो तमिलनाडु में अक्सर 'बड़े भाई' को कहा जाता है। अन्ना का मानना था, 'हिंदी में कोई खास बात नहीं है, बल्कि वह तो कई भारतीय भाषाओं से भी ज्यादा पिछड़ी है।' उनकी राय थी कि हिंदी भाषा हर पल बदलती दुनिया में फिट होने के लायक नहीं है।
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1965 की वह 26 जनवरी...
संविधान ने 1949 में ही हिंदी को 'राजभाषा' का दर्जा दे दिया था। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिल जाना था लेकिन इसे 15 साल के लिए इसलिए टाल दिया क्योंकि उस समय लगभग सारा काम अंग्रेजी में ही होता था।
1965 की 26 जनवरी को 15 साल की वह मियाद पूरी होने वाली थी। इससे पहले एकेडमी ऑफ तमिल कल्चर ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें मांग की कि केंद्र और राज्यों के बीच होने वाले पत्राचारों में अंग्रेजी भाषा के इस्तेमाल को जारी रखा जाना चाहिए। हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के विरोध में द्रविण मुनेत्र कझगम (DMK) सबसे बड़ा चेहरा थी। डीएमके का मानना था कि हिंदी को जबरदस्ती थोंपा जा रहा है।
26 जनवरी की तारीख नजदीक आते ही हिंदी के विरोध में आंदोलन तेज होता जा रहा था। तब डीएमके के बड़े नेता सीएन अन्नादुरई ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को चिट्ठी लिखी। इसमें अन्ना ने लिखा, '26 जनवरी को उनकी पार्टी शोक दिवस के रूप में मनाएगी। हालांकि, अगर हिंदी को लागू करने का फैसला हफ्तेभर के लिए भी टाल देते हैं तो 26 जनवरी का जश्न खुशी-खुशी मनाया जाएगा।'
हिंदी के विरोध में तमिलनाडु में आंदोलन भड़कता जा रहा था। शहरों, गांव और कस्बों में दुकानें बंद कराई जा रही थीं। सड़कें जाम हो रही थीं। लोग धरने पर बैठ रहे थे। अनशन पर अनशन हो रहे थे और वह सबकुछ हो रहा था जो हिंदी के विरोध में किया जा सकता था।
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भाषा और नेहरू का वह डर!
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का यह आंदोलन कोई पहली बार नहीं हुआ था। इसकी शुरुआत आजादी से पहले ही हो गई थी। आजादी से पहले से जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की बात कहते थे। महात्मा गांधी का मानना था कि भाषा के आधार पर ही राज्यों का गठन होना चाहिए।
1937 में जवाहरलाल नेहरू ने एक लेख में लिखा, 'भाषा ऐसी चीज है जो हमेशा बदलती रहती है, विकसित होती रहती है। हमारी प्राचीन भाषाएं हैं, जिनकी एक समृद्ध विरासत है। यह एक स्थापित सत्य है कि आम जनता सांस्कृतिक और शैक्षणिक रूप से तभी विकास कर सकती है, जब उसे उसकी भाषा में शिक्षा दी जाए।'
नेहरू की यह सोच 1937 में थी लेकिन 1947 तक यह बदल चुकी थी। नेहरू का मानना था कि धर्म के आधार पर बंट चुके मुल्क में अगर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया तो क्या देश के और टुकड़े नहीं हो जाएंगे? आजादी के बाद नेहरू चाहते थे कि भाषा के आधार पर राज्यों के गठन को फिलहाल के लिए टाल देना चाहिए और उन्होंने इसके लिए गांधीजी को भी मना लिया था। हालांकि, इसके बावजूद गांधीजी चाहते थे कि राज्यों का गठन भाषा के आधार पर ही हो।
अपनी हत्या से कुछ दिन पहले 25 जनवरी को गांधीजी ने प्रार्थना सभा के बाहर कहा, 'अगर भाषा के आधार पर नए प्रांत बनाए जाते हैं और उन्हें दिल्ली के अधीन रखा जाता है तो इसमें कोई हानि नहीं है लेकिन यह बात बहुत बुरी होगी कि अगर सब आजादी और केंद्रीय सत्ता से मुक्त होने की मांग करने लगें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि बंबई का बाकी महाराष्ट्र से कोई वास्ता न रहे, महाराष्ट्र का कर्नाटक से और कर्नाटक का आंध्र से। सभी को भाई की तरह रहना चाहिए। अगर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होता है तो इससे क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को बढ़ावा मिलेगा। हिंदी को देश के सभी हिस्सों में पठन-पाठन या प्रशासन की भाषा बनाने का विचार गलत होगा और इससे भी गलत होगा कि उसकी जगह अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जाए।'
नेहरू को डर था कि धर्म के आधार पर बंटवारा करने की वजह से लोगों में दूरी पहले ही बढ़ गई है और अब अगर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होता है तो यह दूरी और बढ़ जाएगी।
एक ओर नेहरू को चिंता सता रही थी तो दूसरी ओर भाषा के आधार पर अलग-अलग राज्य और कहीं-कहीं अलग मुल्क की मांग भी उठने रही थी। आखिरकार कांग्रेस झुकी और जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैया ने मिलकर एक कमेटी बनाई। इसे 'जेवीपी कमेटी' कहा जाता है।
कमेटी भाषा के आधार पर राज्यों के गठन पर काम कर रही थी तो देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भी हो रहे थे। अलग-अलग प्रांतों के नेता कांग्रेस पर दबाव बनाने लगे। तेलुगु अपने लिए आंध्र की मांग कर रहे थे तो तमिल मद्रास की। सिख पंजाब मांग रहे थे तो जाट भी अपना हिस्सा। मराठाओं की अपनी मांग थी तो गुजरातियों की अपनी।
22 मई 1952 को नेहरू ने संसद में कहा, 'हमारी सबसे बड़ी कोशिश देश को एकता के सूत्र में बांधे रखने की रही है। इस रास्ते में जो भी अड़चनें आएंगे, निजी तौर पर मैं उसे नहीं मानूंगा। कुछ मामलों में भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की मांग भले ही सही हो लेकिन अभी यह सही वक्त नहीं है। जब सही वक्त आएगा तो इसे पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।'
नेहरू के इस भाषण के बाद 'सही वक्त कब?' पर बहस छिड़ गई। 19 अक्टूबर 1952 को तेलुगू भाषियों के लिए अलग आंध्र की मांग को लेकर पोट्टी श्रीरामुल्लू भूख हड़ताल पर बैठ गए। 58 दिन बाद 15 दिसंबर 1952 को श्रीरामुल्लू की मौत के साथ ही अनशन खत्म हुआ। इसके साथ ही तेलुगु भाषियों का आंदोलन भड़क गया। जगह-जगह दंगे-फसाद हुए। श्रीरामुल्लू की मौत ने सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया। आखिरकार सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया।
राज्य पुनर्गठन आयोग के तीन सदस्य- फजल अली, केएम पाणिक्कर और एचएन कुंजरू ने देशभर का दौरा किया। हजारों लोगों से बात की। 18 महीने बाद आयोग ने 9 अक्टूबर 1955 को अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन कानून बना और 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों का गठन किया गया। दक्षिण भारत में तेलुगु भाषियों के लिए आंध्र, तमिलों के लिए मद्रास (अब तमिलनाडु), कन्नड़ बोलने वालों के लिए मैसूर (अब कर्नाटक) और मलयालियों के लिए केरल बना।
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राज्य बनने के बाद भी नहीं थमा विरोध
भाषा के आधार पर राज्यों का गठन तो हो गया था लेकिन हिंदी को लेकर दक्षिण में विरोध अब भी शांत नहीं हुआ था। जैसे-जैसे 1965 में 26 जनवरी की तारीख नजदीक आ रही थी, तमिलनाडु में हिंदी का विरोध बढ़ता जा रहा था। तमिल के सम्मान में लोग अपनी जान देने से भी नहीं कतरा रहे थे। अपनी जान देने से पहले लोग कह रहे थे- 'हम तमिल भाषा के सम्मान में मर रहे हैं।'
इन सबने कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री पर जबरदस्त दबाव डाला। हिंदी और तमिल की लड़ाई अब कांग्रेस में छिड़ चुकी थी। 26 जनवरी 1965 को तो हिंदी को लागू नहीं किया लेकिन इसे कब तक टाला गया है, इस पर भी सरकार ने रुख साफ नहीं किया था। हिंदी के विरोध में कांग्रेस में इस्तीफे होने लगे थे। बात तब और बिगड़ गई जब शास्त्री सरकार के दो मद्रासी मंत्री- सी. सुब्रमण्यम और ओवी अलागेस ने इस्तीफा दे दिया।
आखिरकार शास्त्री को झुकना पड़ा
हिंदी के विरोध ने पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी झुका दिया था। उनकी सरकार में 1963 में ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट पास किया गया और तय हुआ कि 1965 के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग हिंदी के साथ-साथ किया जा सकता है।
नेहरू के झुकने के बाद बारी लाल बहादुर शास्त्री की थी। 11 फरवरी 1965 की देर शाम लाल बहादुर शास्त्री ने ऑल इंडिया रेडियो से देश को संबोधित किया और 5 बड़े ऐलान किए।
- पहलाः हर राज्य को यह पूरा अधिकार होगा कि वह अपनी पसंद की किसी क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी में कामकाज कर सकता है।
- दूसराः दो राज्यों के बीच होने वाला पत्राचार या तो अंग्रेजी में होगा या फिर किसी क्षेत्रीय भाषा के साथ अंग्रेजी अनुवाद दिया जाएगा।
- तीसराः गैर-हिंदी भाषी राज्य को इस बात का पूरा अधिकार होगा कि वह केंद्र के साथ अंग्रेजी में पत्राचार करें। ऐसा तब तक चलेगा जब तक गैर-हिंदी भाषी राज्य सहमत न हो जाएं।
- चौथाः केंद्र सरकार के स्तर पर भी कामकाज की भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल जारी रहेगा।
- पांचवांः अखिल भारतीय स्तर पर सिविल सेवा की परीक्षाएं सिर्फ हिंदी ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी में भी होती रहेंगी।
लाल बहादुर शास्त्री के इस ऐलान के हफ्तेभर बाद संसद में तमिल बनाम हिंदी की लड़ाई देखने को मिली। समर्थन और विरोध में सबके अपने-अपने तर्क थे। हिंदी के समर्थक सांसदों ने तर्क दिया कि अगर हिंदी राजभाषा बनेगी तो दक्षिणी राज्यों के लोगों को दूसरे राज्यों में भी समान अवसर मिलेंगे। वहीं, तमिल के समर्थकों का कहना था कि हिंदी को जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता। हिंदी का विरोध करने वालों में कांग्रेस नेता जेबी कृपलानी भी थे। उन्होंने एक सांसद को जवाब देते हुए कहा था, 'अब तो भारतीय बच्चे भी अम्मा या अप्पा की जगह मॉम और डैड बोलते हैं। हम अपने कुत्तों से भी अंग्रेजी में बात करते हैं। याद रखिए, इंग्लैंड में अंग्रेजी खत्म हो सकती है लेकिन भारत में यह कभी खत्म नहीं होगी।'
आखिर में फिर वही बात कि जब यह तर्क दिया जाता था कि हिंदी बोलने वाले ज्यादा हैं, इसलिए हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। इसी तर्क पर अन्नादुरई ने कहा था, 'संख्या ही पैमाना है तो कौए को राष्ट्रीय पक्षी होना चाहिए।'
(रेफरेंसः रामचंद्र गुहा की 'भारतः नेहरू के बाद' और 'भारतः गांधी के बाद' किताब से।)
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