सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 27 जनवरी के लोकपाल के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि उसके पास हाई कोर्ट के  जजों के खिलाफ शिकायतों पर विचार करने का अधिकार है। शीर्ष अदालत ने इसे 'बहुत ही परेशान करने वाली बात' बताई। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अभय एस ओका की बेंच ने गुरुवार को मामले की सुनवाई की।

 

शीर्ष न्यायालय ने 27 जनवरी के आदेश का स्वत: संज्ञान लिया था और इसे जस्टिस बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया था, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस ए एस ओका भी शामिल थे।

 

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कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार, लोकपाल रजिस्ट्रा, शिकायतकर्ता को नोटिस जारी करते हुए निर्देश दिया कि 18 मार्च को अगली सुनवाई होगी। साथ ही शीर्ष अदालत ने शिकायतकर्ता को यह भी निर्देश दिया कि शिकायत का खुलासा नहीं करना है।

 

क्या था मामला

दरअसल, लोकपाल ने 27 फरवरी को एक आदेश जारी कर हाईकोर्ट के एक मौजूदा एडिशनल जज के खिलाफ दो शिकायतों पर कार्रवाई की बात कही थी। लोकपाल का कहना था कि हाईकोर्ट का जज लोकपाल अधिनियम की धारा 14 (1) (f) के दायरे में एक व्यक्ति के रूप में आता है।


लोकपाल के पास शिकायत की गई थी कि संबंधित जज ने एक निजी कंपनी के पक्ष में फैसला लेने के लिए एक अन्य जज और एडिशनल जज से सिफारिश की थी।


खास बात यह है कि जिस जज के खिलाफ ऐसा करने का आरोप लगा है वह खुद कभी इसी कंपनी के लिए वकालत कर चुके हैं।

 

जारी किया नोटिस

जस्टिस गवई ने कहा, 'यह बहुत ही परेशान करने वाली बात है।' न्यायालय ने मामले में केंद्र, लोकपाल और शिकायतकर्ता को नोटिस जारी किया।

 

सुप्रीम कोर्ट ने अपने रजिस्ट्रार ज्युडिशियस को निर्देश दिया कि वह 'शिकायतकर्ता की पहचान छिपाए और उसे उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार ज्युडिशियल के माध्यम से शिकायत भेजे, जहां शिकायतकर्ता रहता है।' 

 

इसके अलावा न्यायालय ने शिकायतकर्ता को उस जज का नाम बताने से मना किया, जिसके खिलाफ उसने शिकायत दर्ज की थी और अपनी शिकायत से संबंधित किसी भी कंटेंट का खुलासा करने से मना किया है। 

 

केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'मेरा तर्क उन ‘प्रासंगिक प्रावधानों’ पर आधारित जिनके आधार पर यह आदेश दिया गया है। हाई कोर्ट का जस्टिस कभी भी लोकपाल अधिनियम के दायरे में नहीं आएगा। यह दिखाने के लिए संवैधानिक प्रावधान और कुछ फैसले हैं।'

 

कपिल सिब्बल ने जताई सहमति 

सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने इस टिप्पणी से सहमति जताते हुए कहा कि यह 'बहुत ही परेशान करने वाला' है और उन्होंने कहा कि यह 'खतरे से भरा हुआ' है। उन्होंने आगे कहा कि कानून बनाना जरूरी था।

 

जस्टिस गवई और जस्टिस ओका ने यह विचार व्यक्त किया कि संविधान लागू होने के बाद, हाई कोर्ट के जस्टिस संवैधानिक अधिकारी हैं, न कि केवल वैधानिक पदाधिकारी, जैसा कि लोकपाल ने निष्कर्ष निकाला था। मेहता ने कहा, 'और प्रत्येक जज हाई कोर्ट है।'

 

'गुण-दोष पर विचार नहीं' 

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस ए एम खानविलकर की अध्यक्षता वाले लोकपाल के आदेश में कहा गया था कि 'यह तर्क देना बहुत मासूमियत भरा होगा कि हाई कोर्ट का जज (लोकपाल) अधिनियम 2013 की धारा 14(1) के खंड (एफ) में 'किसी व्यक्ति' की अभिव्यक्ति के दायरे में नहीं आएगा।' 

 

आदेश में मामले के गुण-दोष पर विचार नहीं किया गया और कहा गया, 'हम यह स्पष्ट करते हैं कि इस आदेश द्वारा हमने एक खास मुद्दे पर अंतिम रूप से निर्णय लिया है - कि क्या संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित हाई कोर्ट के न्यायाधीश 2013 के अधिनियम की धारा 14 के दायरे में आते हैं, सकारात्मक रूप से। न अधिक और न ही कम। इसमें, हमने आरोपों के गुण-दोष पर बिल्कुल भी गौर नहीं किया है।' अदालत मामले की अगली सुनवाई 18 मार्च को करेगी।


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