न्याय में देरी अन्याय है। अंग्रेजी में एक मशहूर कहावत है, जिसे लेकर भारतीय विधिशास्त्र (Jurisprudence) में भी खूब चर्चा होती है। कहावत है- 'Justice delayed is justice denied'। 13वीं शताब्दी में हेनरी डे बैक्टेन ने अपने लेखों में इसका जिक्र किया था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम ग्लैडस्टोन ने 19वीं शताब्दी में इस कहावत को लोकप्रिय कर किया। अगर इस कहावत को सच मानें तो देश में बढ़ती आपराधिक घटनाओं के बीच कई लोग न्याय की बाट जोहते रह जाते हैं, उनके साथ न्याय की जगह 'अन्याय' होता है। क्या आपको पता है कि भारत में कितने लोगों को न्याय देरी से मिलता है?
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के आंकड़े बताते हैं कि करोड़ों की संख्या में मुकदमे लंबित हैं। ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में हैं, जिन्हें समय से न्याय नहीं मिलता। सिविल और क्रिमिनल दोनों तरह के मामलों का निपटारा होने में कुछ महीनों से लेकर दशकों तक का वक्त लगता है। कई आपराधिक मुकदमों के निपटारे में कई साल लग जाते हैं। यह सिर्फ निचली अदालतों में नहीं होता है, लंबित मुकदमे, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पर बोझ हैं। देश में इंसाफ के इंतजार में करोड़ों लोग बैठे हैं, अदालतें जिन्हें समय से न्याय तक नहीं दे पा रही हैं।
जजों की किल्लत, कैसे मिले 'न्याय'
सुप्रीम कोर्ट में स्वीकृत जजों की संख्या 34 है। 10 फरवरी 2025 को विधि मंत्रालय ने राज्यसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा कि 2 पद रिक्त हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट में 160 स्वीकृत पद हैं लेकिन 81 पद रिक्त हैं। आंध्र प्रदेश के हाई कोर्ट में स्वीकृत पद 37 हैं लेकिन 7 पद रिक्त हैं। बंबई हाई कोर्ट में 94 स्वीकृत पद हैं लेकिन 26 पद रिक्त हैं। कलकत्ता हाई कोर्ट में 72 पद स्वीकृत हैं लेकिन 29 पद रिक्त हैं। छत्तीसगढ़ में स्वीकृत पद की संख्या 22 है लेकिन 6 पदों पर भर्तियां नहीं हुई हैं।
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कहां किस हाई कोर्ट में कितने पद हैं रिक्त?
दिल्ली हाई कोर्ट में स्वीकृत पदों की संख्या 60 है, वहीं 22 पद रिक्त हैं। गुवाहाटी हाई कोर्ट में 30 स्वीकृत पद हैं लेकिन 6 रिक्त हैं। गुजरात हाई कोर्ट में स्वीकृत पदों की संख्या 52 है, वहीं 20 पद रिक्त हैं। हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट में जजों की स्वीकृत संख्या 17 है लेकिन 5 पद रिक्त हैं। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट में स्वीकृत पदों की संख्या 17 है, वहीं 10 पद खाली हैं। झारखंड हाई कोर्ट में स्वीकृत पदों की संख्या 25 है लेकिन 9 पद रिक्त हैं। कर्नाटक में 62 पद स्वीकृत हैं लेकिन 13 पद रिक्त हैं।
केरल हाई कोर्ट में 47 पद स्वीकृत हैं, 2 पद रिक्त हैं, मध्य प्रदेश में 53 पद हैं, 20 नियुक्तियां खाली हैं, मद्रास में 75 पद स्वीकृत हैं और 10 पदों पर नियुक्ति नहीं हुई है। मणिपुर में 5 पद हैं, 1 रिक्त है। मेघालय हाई कोर्ट में 4 जज हो सकते हैं, 4 जज वहां नियुक्त है। ओडिशा हाई कोर्ट में 33 पद हैं लेकिन 15 पद रिक्त हैं। पटना हाई कोर्ट में 53 पद हैं लेकिन 19 पद रिक्त हैं। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में 85 स्वीकृत है, 34 पद रिक्त हैं।
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राजस्थान हाई कोर्ट में 50 पद स्वीकृत हैं, 17 पद रिक्त हैं। सिक्किम में 3 पद हैं, तीनों पर नियुक्ति है। तेलंगाना में 42 पद हैं लेकिन 12 पदों पर नियुक्ति नहीं है। उत्तराखंड में जजों के 11 पद स्वीकृत हैं लेकिन 3 पदों पर कोई नियुक्ति नहीं की गई है।
कोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या?
कोर्ट | सिविल केस | क्रिमिनल केस | कुल लंबित केस |
जिला अदालतें | 1,08,90,093 | 3,45,14,195 | 4,54,04,288 |
हाई कोर्ट | 44,15,714 | 18,35,413 | 62,51,127 |
सुप्रीम कोर्ट | 63,838 | 17,440 | 81,278 |
डेटा: scdg.sci.gov.in | |||
क्यों भारतीय अदालतों पर है इतना बोझ?
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड विशाल अरुण मिश्र बताते हैं कि भारत की आबादी 140 करोड़ के आसपास है। विवाद ज्यादा होंगे, यह स्वाभाविक है। हर साल लाखों मामलों का निपटारा होता है, अपील में नए विवाद दायर हो जाते हैं। कोई फैसला निचली अदालत से आता है, उसे हाई कोर्ट में चैलेंज कर दिया जाता है। हाई कोर्ट के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज कर दिया जाता है। एक बैकलॉग खत्म नहीं होता कि दूसरा भार अदालतों पर चढ़ जाता है। न्यायालयों में लंबित मामलों की एक वजह यह भी है।
साल 2022 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा था, 'अगर एक जज 50 मामले निपटाता है, तो 100 नए मामले दायर हो जाते हैं। यह असंतुलन बैकलॉग को बढ़ाता है।'
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दूसरी वजहें क्या हैं?
सिद्धार्थनगर बार एसोसिएशन में अधिवक्ता अनुराग ने कहा, '100 गुनाहगार छूट जाएं लेकिन एक निर्दोष को सजा न हो। भारत का विधि शास्त्र इस सिद्धांत पर चलता है। इसके नुकसान यह हैं कि किसी केस की छानबीन इतनी डीप होती है कि न्याय मिलने में कई साल बीत जाते हैं। सिविल मुकदमों में कभी एक पक्ष पेश होता है तो दूसरा नहीं होता। फैमिली कोर्ट का भी यही हाल होता। कभी जज नहीं होते, कभी वकील और कभी पक्षकार। कोई एक पक्ष नहीं होगा को बहस नहीं होगी। इस वजह से मामले लंबे खिंचते हैं और अदालत पर बैकलॉग बढ़ता जाता है। जजों की छुट्टियां भी बड़ी समस्या है।'
दिल्ली हाई कोर्ट में अधिवक्ता स्निग्धा त्रिपाठी बताती हैं, 'फर्जी मुकदमों के बोझ भी अदालत पर हैं, जिनकी छानबीन में अदालत का वक्त सबसे ज्यादा जाया होता है। जमीन अधिग्रहण, संपत्ति, नाला, पानी, कब्जा से जुड़े विवादों के मामले सबसे ज्यादा हैं। सिविल नेचर के इन मुकदमों में लंबी छानबीन होती है, जिसका निपटारा होने में कई बार दशक लग जाते हैं। हर केस का फास्ट ट्रैक कोर्ट में ट्रायल नहीं हो सकता। इस वजह से भी अदालतों पर बोझ बढ़ता जाता है।'