तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और राज्य के गवर्नर आर एन रवि के बीच ठन गई है। संवैधानिक पद पर आसीन राज्यपाल और जनता द्वारा चुना गई सरकार आमने-सामने हैं। मामला ऐसा है कि यह इससे पहले कई राज्यों में सामने आ चुका है। तमिलनाडु का यह पेचीदा मामला ऐसा फंसा है कि देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट को बीच-बचाव करने के लिए आना पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को लेकर मंगलवार को अहम टिप्पणी की है।

 

ये पूरा मामला तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि का राज्य विधानसभा की तरफ से पारित कई विधेयकों को मंजूरी ना देने के खिलाफ दायर याचिका से जुड़ा हुआ है। इन विधेयकों में तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से संबंधित विधेयक शामिल हैं। डीएमके सरकार ने आरोप लगाया है कि राज्यपाल ने विधानसभा में सर्व सम्मति से पारित होने के बाद भी विधेयकों को मंजूरी नहीं दी है, जिसकी वजह से विधेयक कानून नहीं बन पाए हैं। 

 

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

 

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (8 अप्रैल 2025) को फैसला सुनाया कि राज्यपाल तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित या फिर से पारित किए जाने के बाद विधेयकों पर अनिश्चित काल तक के लिए देरी या रोक नहीं सकते हैं। जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने यह फैसला सुनाया। यह फैसला डीएमके के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर एन रवि के बीच एक साल से ज्यादा समय तक चले संवैधानिक टकराव के बाद आया है। आरोप है कि राज्यपाल ने राज्य के 10 प्रमुख विधेयकों पर सहमति जताकर रोक लगा दी थी। इनमें से कुछ विधेयक तो साल 2020 से पहले के हैं।

 

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इन विधेयकों को राज्यपाल ने रोका

 

ये 10 विधेयक- राज्य विश्वविद्यालयों के प्रशासन में संशोधन से लेकर भ्रष्टाचार, राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्तियों को लेकर विधेयक, तमिलनाडु लोक सेवा आयोग नियुक्तियों में देरी, सार्वजनिक नियुक्तियों और कैदियों की समय से पहले रिहाई से संबंधित उपाय को लेकर हैं। मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने शीर्ष कोर्ट के फैसले को ऐतिहासिक निर्णय बताया है।

 

पिछली AIADMK सरकार द्वारा पारित विधेयक

 

इसके अलावा पिछली AIADMK सरकार के तहत जनवरी 2020 में पारित दो विधेयकों में तमिलनाडु मत्स्य पालन विश्वविद्यालय और तमिलनाडु पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय में संरचनात्मक परिवर्तन का प्रस्ताव दिया गया था, जिसमें सरकार को निरीक्षण और प्रशासनिक निगरानी के अधिकार देना और मत्स्य पालन विश्वविद्यालय का नाम बदलकर पूर्व सीएम जे जयललिता के नाम पर रखना शामिल है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने रवि की आलोचना की

 

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु विधानसभा से पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर न करने पर राज्यपाल एन रवि की आलोचना की, कहा राज्यपाल विधायिका द्वारा पारित विधेयक को लंबित नहीं रख सकते, 


राज्यपाल के पास वीटो का विकल्प नहीं है। कोर्ट ने कहा, 'राज्यपाल को विधेयक पर या तो सहमति देनी होगी या फिर आपत्ति जतानी होगी या राष्ट्रपति के पास भेजना होगा, वह विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रख सकते, विधानसभा ने विधेयक को राज्यपाल की आपत्ति के बाद दोबारा पारित कर दिया हो, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ नहीं भेज सकते, अगर विधेयक दूसरी बार प्रस्तुत किया गया हो तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी ही होती है।' 

 

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इस मामले पर जस्टिस जेबी पारदीवाला ने फैसला सुनाते हुए कहा कि उनके सामने ये सवाल है कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास कार्रवाई का कौन सा तरीका उपलब्ध है? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा कि राज्यपाल आर एन रवि को उस समय विधेयक को मंजूरी देनी चाहिए जब राज्य विधानसभा में दोबारा से सलाह-मशविरा के बाद कोई विधेयक उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। राज्यपाल केवल तभी विधेयक को मंजूरी देने से मना कर सकते हैं जब विधेयक अलग हो।

 

इसके बाद राज्यपाल की तरफ से 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने की कार्रवाई अवैध, मनमानी मानते हुए कोर्ट ने इस कार्रवाई को रद्द कर दिया है।

 

डीएमके की आई प्रतिक्रिया

 

वहीं, राज्यपाल रवि के रवैये को लेकर डीएमके कहा कहना है कि वह हद से ज्यादा अत्याचार कर रहे हैं। पार्टी नेता आर.एस.भारती ने कहा, 'इससे पहले भी कई राज्यपाल हुए हैं लेकिन मौजूदा राज्यपाल ने हद से ज्यादा अत्याचार किए हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट भी इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने सख्त फैसला देते हुए कहा है कि राज्यपाल का कृत्य अपराध है।'

 

माकपा ने फैसले स्वागत किया

 

वहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले का माकपा ने स्वागत किया है। पार्टी ने कहा कि तमिलनाडु के विधेयकों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला निरंकुशता के खिलाफ संघर्ष को मजबूती देगा। दूसरी तरफ केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने विधेयकों को रोके जाने को लेकर तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि के खिलाफ कोर्ट के फैसले की तारीफ कीष। उन्होंने कहा कि यह संघीय ढांचे और राज्य विधानसभा के लोकतांत्रिक अधिकारों को बरकरार रखता है।

 

'एक महीने के अंदर फैसले लीजिए'

 

सुप्रीम कोर्ट ने आखिर में स्पष्ट किया कि ये सभी 10 विधेयक राज्यपाल के समक्ष दोबारा से भेजे जाने की तारीख ही से स्पष्ट माने जाएंगे। कोर्ट ने कहा कि जब कोई समय सीमा नहीं होती है तो इसे सही समय सीमा के भीतर करना चाहिए। न्यायालयों को एक निश्चित समय के भीतर किसी काम को पूरा करने का निर्देश देने का पूरा अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत समय सीमा का निर्धारण मनमाने निष्क्रियता को कम करने के लिए है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर राज्यपालों के निर्णय लेने के लिए समय-सीमा में काम करने का सुझाव दिया है। फैसले में कोर्ट ने कहा कि राज्यपालों को मंत्रिपरिषद की सलाह के मुताबिक, एक महीने के अंदर विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का फैसला लेना चाहिए। वहीं, राज्यपालों को विधानसभा की तरफ से पारित विधेयकों पर सहमति न देने का फैसला तीन महीने के अंदर लेना चाहिए।