देश में घट रही कपास की पैदावार; वजह, असर और रास्ते क्या हैं?
देश में कपास की पैदावार पिछले 16 सालों की सबसे निचले स्तर पर है। इसकी वजह से देश में कपास के इम्पोर्ट की तुलना में एक्सपोर्ट घट रहा है। हालांकि, इसकी वजह खास है।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: PTI
भारत में कॉटन यानी कि कपास के प्रोडक्शन की स्थिति अच्छी नहीं है। यह पिछले 16 सालों से निचले स्तर पर है। भारत हमेशा से कपास का सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। भारत के कपास से बने हुए कपड़ों का देश ही नहीं विदेशों में भी निर्यात किया जाता था। इसका महत्त्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि स्वतंत्रता आदोलन के वक्त भी महात्मा गांधी ने चरखे से सूत कातने की प्रक्रिया को चुना जो कि दिखाता था कि भारत में कपास और उससे बने कपड़ों के उत्पादन का कितना महत्त्व है। स्वदेशी आंदोलन के दौरान भी विदेशी कपड़ों को सार्वजनिक तौर पर जलाया गया था और स्वदेशी को अपनाने पर जोर दिया गया था।
इस बात जिक्र सिर्फ इसलिए किया गया ताकि यह समझा जा सके कि भारत में कपास और उससे बने कपड़ों का कितना ज्यादा महत्त्व रहा है। वैसे तो इस वक्त भारत के अन्य सामानों सहित भारतीय कपड़ों पर लगा टैरिफ सबसे बड़ा चिंता का विषय है लेकिन उससे भी बड़ी चिंता इसका उत्पादन है।
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इस साल भारत का कॉटन उत्पादन 294 लाख बेल्स रहने का अनुमान है। एक बेल्स में 170 किलो कॉटन होता है यानी कि 49,980 लाख किलो कॉटन का उत्पादन होने की संभावना है। इससे पहले साल 2008-09 में सबसे कम उत्पादन हुआ था जब कुल 290 बेल्स उपज ही प्राप्त हुई थी। लेकिन फिर इसमें ग्रोथ देखने को मिली और 2013-14 में इसका प्रोडक्शन बढ़कर 398 बेल्स हो गया था। तो देखा जाए तो पिछले दस सालों में प्रोडक्शन का इस हिसाब से कम होना बहुत बड़ी बात है।
तीन गुना हो गई थी पैदावार
दरअसल,जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) कपास की वजह से भारत में इसका प्रोडक्शन तीन गुना बढ़ गया था। 2002-03 और 2013-14 के बीच निर्यात में भी 139 गुना की वृद्धि हुई और यह 0.8 पाउंड बेल्स से बढ़कर 117 पाउंड तक पहुंच गया।
उपज कम होने के कारण कपास के निर्यात में कमी आई है और इसका आयात बढ़ा है। इस साल भारत का कपास आयात 30 बेल्स पाउंड बेल्स है, जो कि इसके 17 पाउंड बेल्स के निर्यात को पार कर जाएगा।
क्यों घटा प्रोडक्शन
भारत में प्रोडक्शन घटने और निर्यात के बजाय आयात उन्मुख होने का सबसे कारण है पिंक बॉलवॉर्म। यह एक तरह का कीट है जिसका लार्वा कपास की बॉल्स या गोले में पाया जाता है। बॉल्स में ही कपास का बीज होता है जिससे कि सफेद चमकदार कपास निकलती है। यह कीट उसी को संक्रमित कर देते हैं जिसकी वजह से कपास के प्रोडक्शन में कमी आती है।
अभी भारत में जो कपास उगाई जाती है उसमें दो जीन हैं- ‘क्राई1एसी’ और ‘क्राई2एबी’। यह जीन अमेरिकी बॉलवर्म, स्पॉटेड बॉलवर्म और कपास लीफवर्म कीटों के लिए विषैले प्रोटीन बनाते हैं जिनसे इनकी मौत हो जाती है और फसल को नुकसान नहीं होता। पहले इन डबल-जीन हाइब्रिड की वजह से पी.बी.डब्ल्य यानी कि पिंक बॉलवॉर्म के खिलाफ भी कुछ सुरक्षा मिली लेकिन अब यह असरदार नहीं रह गया है।
क्यों विकसित हुआ रेजिस्टेंस
इसका कारण यह है कि PBW एक मोनोफेगस कीट है। यानी कि यह जिंदा रहने के लिए सिर्फ एक ही पौधे (कपास) पर ही निर्भर है। जबकि बाकी के कीट पॉलीफैगस हैं यानी कि वे दूसरे पौधों से भी भोजन ग्रहण कर लेते हैं।
मोनोफेगस होने के कारण PBW लार्वा ने धीरे-धीरे समय के साथ मौजूदा बीटी कॉटन हाइब्रिड से उत्पन्न होने वाले विषैले प्रोटीन के प्रति रेजिस्टेंस यानी कि प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली, क्योंकि अपना अस्तित्व बचाने के लिए ऐसा जरूरी था। इसलिए अब वह जीन इनके खिलाफ बहुत असरदार नहीं रह गया है।
फिर इन कीटों का जीवन चक्र (अंडे देने से लेकर वयस्क कीट बनने तक) 25-35 दिन का होता है। इस तरह से ये कपास के पूरे जीवन काल ( 180-270 दिनों तक ) के बीच इनकी कम से कम 3-4 जेनरेशन हो जाती है। इससे यह फसल को और ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं और धीरे-धीरे और ज्यादा तेजी से रोग प्रतिरोधक होते जा रहे हैं।
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घटी है पैदावार
अब यह नुकसान 'आर्थिक सीमा स्तर' तक पहुंच गया है यानी कि यह उस स्तर तक पहुंच गया है जहां से फसल के नुकसान का मूल्य उसकी लागत से ज्यादा होने लगी है।
इसकी वजह से अखिल भारतीय प्रति हेक्टेयर कपास लिंट की पैदावार, जो 2002-03 में औसतन 302 किलोग्राम से बढ़कर 2013-14 में 566 किलोग्राम हो गई थी, वह पिछले दो वर्षों में गिरकर 436-437 किलोग्राम हो गई है।
क्या है आगे का रास्ता
कुछ बड़ी भारतीय बीज कंपनियों ने कथित तौर पर बीटी से नए जीन का उपयोग करके जीएम कपास की संकर प्रजाति विकसित की है, जिसके बारे में उनका दावा है कि यह पीबीडब्ल्यू के प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करती है।
पर्यावरण मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग को स्वीकृति देने वाली समिति (जीईएसी) ने जुलाई 2024 के अंत में बायोसीड को मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में छह स्थानों पर अपने कार्यक्रम के बायोसेफ्टी रिसर्च लेवल-1 (बीआरएल-1) परीक्षण करने की अनुमति दी थी।
रेग्युलेटरी समस्या
इन सारे ट्रायल के बावजूद इन्हें किसानों तक पहुंचाने में समय लगेगा। साथ ही फील्ड ट्रायल के लिए पर्यावरणीय क्लियरेंस लेना, रेग्युलेटरी बैरियर को खत्म करना और राज्य सरकार सरकार से क्लियरेंस लेना आसान काम नहीं है। इसी वजह से मोसेंटो के बाद से नए किसी जीएम क्रॉप को भारत में कॉमर्शियल स्तर पर नहीं लाया जा सका।
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क्या है उपाय
उम्मीद की जा रहा है कि पीबीडब्ल्यू द्वारा मचाई गई तबाह के बाद केंद्र सरकार इस बात पर विचार करेगी कि प्रोऐक्टिव एप्रोच के साथ नए जीएम हाइब्रिड को लाया जाए। घटनाओं के संबंध में अधिक सक्रिय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती है। यह विशेष रूप से कपास में संभव है, जिसे सरसों या बैंगन के विपरीत खाद्य फसल के रूप में नहीं देखा जाता है।
अपने 2025-26 के केंद्रीय बजट भाषण में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पांच साल के ‘कपास उत्पादकता मिशन’ की घोषणा की थी। इसका उद्देश्य किसानों को 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी का सर्वोत्तम समर्थन' प्रदान करना और भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए 'गुणवत्तापूर्ण कपास की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करना' है।
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