बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने मतदाताओं के वेरिफिकेशन की प्रक्रिया शुरू की है। इस प्रक्रिया को लेकर कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) समेत तमाम विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं। इसी के खिलाफ बुधवार को 'बिहार बंद' का आयोजन किया गया। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है और आज इस पर सुनवाई होनी है। इससे पहले, पटना से लेकर दिल्ली तक चुनाव आयोग को शिकायतें दी गई हैं। इतना ही नहीं आरजेडी सांसद मनोज झा, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव और चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था ADR ने चुनाव आयोग के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। प्रशांत भूषण, अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल जैसे वकीलों ने शीघ्र सुनवाई के लिए दलील दी। 

 

जहां विपक्ष इसे लगातार एक साजिश बता रहा है तो चुनाव आयोग का कहना है कि यह एक जरूरी प्रक्रिया है और कोशिश यही है कि गैर भारतीयों को वोटर लिस्ट से बाहर किया जाए। बिहार के लोगों को इसके चलते समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है क्योंकि वेरिफिकेशन के लिए आधार और पैन कार्ड जैसे दस्तावेज ही मान्य नहीं हैं। आइए समझते हैं कि अब विपक्षी दल किन तर्कों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में इसका विरोध कर रहे हैं।

 

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क्या है मांग?

 

सुप्रीम कोर्ट में दायर रिट पिटिशन में चुनाव आयोग के 24 जून 2025 के आदेश को रद्द करने की मांग की गई है। इस आदेश में चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष गहन मतदाता सूची संशोधन (Special Intensive Revision of Electoral Rolls यानी SIR) कराने की जानकारी दी है। याचिकाकर्ताओं ने चुनाव आयोग के इस आदेश को संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 326 का उल्लंघन बताया है। अनुच्छेद 14 देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है जबकि 19 अभिव्यक्ति की आजादी और 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। इन अधिकारों के अलावा याचिकाकर्ताओं ने चुनाव आयोग के आदेश को संविधान के अनुच्छेद 325 और 326 के साथ-साथ पीपल्स रिप्रजेंटेटिव ऐक्ट 1950 और रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टर्स रूल 1960 के नियम 2A का भी उल्लंघन बताया है। 
  
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि अगर इस आदेश को रद्द नहीं किया गया तो बिना उचित प्रक्रिया के लाखों वोटर, अपने प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार से वंचित हो जाएंगे। जिससे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव बाधित होगा। जो कि संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर का हिस्सा है।

 

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याचिकर्ताओं ने इसके समर्थन में क्या-क्या तर्क दिए हैं, वे भी आपको बता देते हैं। 

 

  • चुनाव आयोग के आदेश में जरूरी दस्तावेजों को लेकर भ्रम है।
  • वोटर लिस्ट रिवाइज करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए वह नहीं अपनाई जा रही।
  • चुनाव आयोग ने अपनी जिम्मेदारी लोगों के कंधों पर डाल दी है।
  • चुनाव आयोग ने अपनी नागरिकता साबित करने के लिए आधार, वोटर आईडी या राशन कार्ड जैसे बेसिक दस्तावेजों को मानने से इनकार कर दिया है। जो लोगों के पास सहज रूप से उपलब्ध होते हैं। वे दस्तावेज चुनाव आयोग की लिस्ट में हैं ही नहीं। इससे हाशिए पर रहने वाले समुदाय और गरीब लोग वोटिंग की प्रक्रिया से और दूर हो सकते हैं।
  • इतने कम समय में हर किसी के लिए नए कागज बनवाकर जमा कर देना संभव नहीं है।
  • चुनाव आयोग, वोटर से अपनी और अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज मांगता है। ऐसा न करने पर नाम ड्राफ्ट वोटर लिस्ट से हटाया जा सकता है। याचिकाकर्ताओं ने इसे अनुच्छेद 326 का उल्लंघन बताया है।
  • बिहार में गरीबी और प्रवास की दर बाकी राज्यों की तुलना में काफी ज्यादा है। लोगों के पास जन्म प्रमाणपत्र या माता-पिता के दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। याचिकाकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि SIR के कड़े प्रावधानों की वजह से 3 करोड़ से ज्यादा वोटर वोटिंग का अधिकार खो सकते हैं। खासतौर पर दूसरे राज्यों में काम की तलाश में गए प्रवासी और SC, ST, OBC समुदाय के लोग।
  • SIR को तय समय-सीमा में पूरा करने के लिए चुनाव आयोग को करीब 1 लाख BLO को ट्रेनिंग देने की जरूरत होगी। 20 हजार को अभी भी काम पर रखा जाना है। एक हफ्ता बीत चुका है। बिहार, बाढ़ और मानसून की चपेट में है।
  • नागरिक दस्तावेजों की जरूरत, उन नियमों का उल्लंघन करती हैं जो किसी का नाम वोटर लिस्ट से हटाने का प्रावधान करती हैं।
  • अक्टूबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच विशेष सारांश संशोधन (SSR) पहले ही हो चुका है। इसके बाद SIR की जरूरत संदिग्ध है।

 

आखिर में एक तकनीकी तर्क भी है। पीपल्स रिप्रजेंटेटिव ऐक्ट 1950 की धारा 21(3), चुनाव आयोग को किसी भी समय वोटर लिस्ट के विशेष संशोधन का निर्देश देने की अनुमति देती है लेकिन चुनाव आयोग ऐसा क्यों कर रहा है, इसके पीछ की वजह भी लिखित में बतानी होगी। कानूनी भाषा में इसे कहा जाता है 'For the Reasons to be recorded'; याचिकाकर्ताओं का कहना है कि चुनाव आयोग के आदेश में इसका अभाव है। इस वजह से यह रद्द करने योग्य हो जाता है।