शादी की रस्मों में सबसे आकर्षक और यादगार पल मानी जाने वाली जयमाला को लेकर एक दिलचस्प तथ्य सामने आया है। आम धारणा है कि यह परंपरा वैदिक काल से जुड़ी है लेकिन आचार्य प्रेमनारायण मिश्र बताते हैं कि विवाह से पहले दूल्हा–दुल्हन के बीच माला बदलने की यह रस्म किसी भी वैदिक ग्रंथ या गृह्यसूत्रों में अनिवार्य विवाह-संस्कार के रूप में दर्ज नहीं है। आचार्य जी ने बताया कि जयमाला प्रक्रिया की शुरुआता सीता स्वयंवर से हुई थी, रामायण के अनुसार, शादी के बाद सीता स्वयंवर में जयमाला प्रक्रिया को पूरा किया गया था। 

 

आचार्य प्रेमनारायण मिश्र जी कहते हैं कि सामान्य विवाहों के लिए वेदों या फिर विवाह-संस्कार के किसी भी वैदिक किताब में जयमाला प्रक्रिया का कोई भी महत्व नहीं बताया गया है। आचार्य जी कहते है कि वेदों में स्वयंवर के दौरान शादी के बाद जयमाला प्रक्रिया का महत्व बताया गया है। जयमाला लोक-परंपराओं, महाकाव्यों और बाद के सामाजिक रिवाजो से विकसित हुई प्रथा है, जो समय के साथ आज के हिन्दू विवाह की अहम रस्म बन गई है।

 

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वैदिक विवाह प्रक्रिया क्या है?

वैदिक विवाह में जहां सप्तपदी, पाणिग्रहण और कन्यादान जैसे संस्कार मुख्य माने गए, वहीं जयमाला एक प्रतीकात्मक रस्म है, जो प्रेम, स्वीकृति और सम्मान का सार्वजनिक संकेत देती है। फूलों की माला अर्पण करने की प्राचीन परंपरा से निकली यह रस्म आधुनिक भारतीय शादियों में भव्यता और भावनात्मक जुड़ाव का प्रमुख हिस्सा बन चुकी है। 

 

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कैसे हुई जयमाला पहनाने की शुरुआत?

जयमाला की रस्म का उल्लेख पौराणिक कथाओं और ग्रंथों में देखने को मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, स्वयंवर के दौरान भगवान श्रीराम ने शिव जी के धनुष को तोड़ा था, जिसके बाद देवी सीता और राम जी शादी हुई थी और उसके बाद देवी सीता भगवान राम के गले में वरमाला पहनाई थीं और उन्हें अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया था। उसी समय से जयमाला की रस्म की शुरुआत मानी जाती है। आचार्य प्रेमनारायण मिश्र जी के मुताबिक,  'यह स्वयंवर की व्यवस्था है न की सामान्य विवाह की।'

कैसी होती है जयमाला?

जयमाला को कई तरह के फूलों की मदद से बनाई जाती है, क्योंकि फूलों को उत्साह, सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक माना जाता है। मान्यता के अनुसार, जयमाला सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। शादी के दौरान इस रस्म को प्राचीन समय से निभाया जा रहा है।