श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम् का पाठ देवी दुर्गा की विशेष कृपा की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यह प्राचीन संस्कृत स्तोत्र न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसे जीवन के संकटों से रक्षा करने वाला चमत्कारिक स्तोत्र माना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, यह स्तोत्र स्वयं भगवान शिव ने देवी पार्वती (उमा) को बताया था। इसमें देवी दुर्गा को जगत की रक्षिका, संकटों से तारने वाली और भय से मुक्त करने वाली देवी के रूप में वर्णित किया गया है।
पंडितों का मानना है कि जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे भय, रोग, शत्रु, आर्थिक संकट और दुखों से मुक्ति मिलती है। शास्त्रों में वर्णित है कि दिन में एक बार भी इसका पाठ करने से व्यक्ति भारी से भारी विपत्तियों से बच सकता है।
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श्री दुर्गा आपदुद्धार स्तोत्रम् भावार्थ सहित
नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे
नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे ।
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥1॥
भावार्थ:
हे करुणामयी शिवा (पार्वती)! आपको नमस्कार है।
आप सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं और अनेक रूपों में विराजमान हैं।
आपके चरण-स्पर्श से यह जगत धन्य है।
हे जग को तारने वाली माँ दुर्गे! हमें संकटों से बचाइए।
नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे
नमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे ।
नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपे
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥2॥
भावार्थ:
हे मां! आपका स्वरूप इतना महान है कि उसका चिंतन भी कठिन है।
आप महान योगिनी हैं, ज्ञान की प्रतिमूर्ति हैं और सदा आनंदस्वरूपा हैं।
हे संसार को पार लगाने वाली मां दुर्गे! हमें रक्षा दीजिए।
अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य
भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्ची
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥3॥
भावार्थ:
हे मां! जो जीव अनाथ है, दुखी है, प्यास से पीड़ित है,
भयभीत या बंधन में पड़ा हुआ है, उसके लिए आप ही एकमात्र आश्रय हैं।
आप ही सभी को पार लगाने वाली देवी हैं। कृपा कर हमें भी बचाइए।
अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्ये
ऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहे ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥4॥
भावार्थ:
हे मां दुर्गे! जब कोई व्यक्ति जंगल में, युद्धभूमि में,
शत्रुओं के बीच, आग में, समुद्र में या किसी संकट में फंस जाए,
तो आप ही उसकी एकमात्र रक्षा नौका हैं।
हमें पार लगाइए, हे जगदंबे।
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अपारे महादुस्तरेऽत्यन्तघोरे
विपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम् ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतु
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥5॥
भावार्थ:
हे मां! यह संसार विपत्तियों का अथाह सागर है,
जहां जीव निरंतर डूबते रहते हैं।
ऐसे डूबते प्राणियों के लिए आप ही पार लगाने का एकमात्र साधन हैं।
हमें भी इस दुख-सागर से पार करिए।
नमश्चण्डिके चण्डदुर्दण्डलीला
समुत्खण्डिता खण्डिता शेषशत्रोः ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजं
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥6॥
भावार्थ:
हे चण्डिका देवी! आपने अपने बल से असुरों का संहार किया,
सभी शत्रुओं को नष्ट किया।
आप ही इस संसार को मुक्त करने का बीज हैं।
हे मां दुर्गे, हमें भी संकटों से तार दीजिए।
त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला
क्रोधनात्क्रोधनिष्ठा ।
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥7॥
भावार्थ:
हे मां! आप सत्य की अधिष्ठात्री हैं,
आपका स्वरूप ही ब्रह्मज्ञान है।
आप ही शरीर की तीनों मुख्य नाड़ियां- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना हैं।
आपके बिना जीवन संभव नहीं। कृपा कर हमारी रक्षा कीजिए।
नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे
सदासर्वसिद्धिप्रदातृस्वरूपे ।
विभूतिः शची कालरात्री सती त्वं
नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥8॥
भावार्थ:
हे दुर्गे! हे शिवा! आपको नमस्कार है।
आप भीषण शक्ति वाली हैं और सभी सिद्धियां प्रदान करने वाली हैं।
आप शची, कालरात्रि और सती सब रूपों में विद्यमान हैं।
हे संसार को पार लगाने वाली देवी, हमारी रक्षा करें।
शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां
मुनिमनुजपशूनां दस्युभिखासितानाम् ।
नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानां
त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ॥9॥
भावार्थ:
हे मां दुर्गे! आप देवताओं, सिद्धों, विद्वानों,
मनुष्यों, पशुओं, चोरों द्वारा सताए गए लोगों,
राजमहल में संकट झेल रहे जनों और रोगों से पीड़ितों
सबकी एकमात्र शरण हैं। कृपा करें, हे देवी।
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इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम् ।
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा पठनाद्धोरसङ्कटात् ॥10॥
भावार्थ:
यह स्तोत्र मैंने संकटों से मुक्ति के लिए कहा है।
जो इसे तीनों संध्याओं में या कम से कम एक बार भी पढ़ता है,
वह भयंकर विपत्तियों से मुक्त हो जाता है।
मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले ।
सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान् सदा ॥11॥
भावार्थ:
इसमें कोई संदेह नहीं कि जो व्यक्ति इसे श्रद्धा से पढ़ता है
चाहे धरती पर हो, स्वर्ग में या किसी लोक में,
वह पापों और संकटों से मुक्त होता है,
चाहे पूरा स्तोत्र पढ़े या केवल एक श्लोक ही।
स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम् ।
पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले ।
स्तवराजमिदं देवि सङ्गेपात्कथितं मया ॥12॥
भावार्थ:
हे देवेश्वरी! इस स्तोत्र का पाठ करने वाला
अपने सभी पापों को त्यागकर परम पद (मोक्ष या शांति) प्राप्त करता है।
धरती पर ऐसा कुछ भी नहीं जो इस स्तोत्र के पाठ से सिद्ध न हो सके।
हे मां, यह स्तोत्रराज मैंने संक्षेप में प्रस्तुत किया है।


