भारत में एक बार फिर सरकारी बैंकों के बड़े मर्जर की चर्चा तेज़ हो गई है। अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार अगले कुछ वर्षों में बैंकों का ढांचा ऐसा बना सकती है कि देश में केवल दो से चार बड़े सरकारी बैंक ही प्रमुख रूप से रह जाएं। सरकार का मानना है कि बैंकिंग सेक्टर को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए मजबूत पूंजी वाले बड़े और स्थिर बैंक बनाना समय की मांग है। पिछले एक दशक में कई छोटे सरकारी बैंकों में खराब वित्तीय हालत, NPA का बोझ और तकनीकी पिछड़ापन देखा गया, जिसने सरकार को इस दिशा में सोचने के लिए मजबूर किया है।
सरकार की मुख्य मंशा यह है कि भारत के बैंक केवल घरेलू बाजार तक सीमित न रहें, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रभाव डालने की क्षमता रखें। बड़े प्रोजेक्ट्स जैसे हाईवे, रेलवे कॉरिडोर, ग्रीन एनर्जी, एयरपोर्ट, डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर और रक्षा उत्पादन को फंड करने के लिए बैंकिंग सेक्टर का मजबूत होना बेहद जरूरी है। छोटे बैंक अक्सर इतनी बड़ी फंडिंग क्षमता नहीं रखते, जबकि बड़े बैंक मुश्किल समय में भी अपने बैलेंस शीट के दम पर जोखिम संभाल सकते हैं। इसके साथ ही सरकार का एक उद्देश्य यह भी माना जा रहा है कि अलग-अलग बैंकों के संचालन में जो भारी खर्च होता है, उसे कम किया जाए और दक्षता (Efficiency) बढ़ाई जाए, क्योंकि मर्जर के बाद शाखाएं, टेक्नॉलजी और बैक-ऑफिस जैसी लागतें घट जाती हैं।
यह भी पढ़ें: DMK सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया क्यों लगाई 'दीपम' जलाने पर रोक?
क्या हैं फायदे?
आम जनता के लिए भी बैंक मर्जर के कई फायदे हो सकते हैं। बड़े बैंक आर्थिक संकट को बेहतर झेलते हैं, जिससे ग्राहक का पैसा सुरक्षित रहता है। मर्जर के बाद बैंक आधुनिक टेक्नॉलजी पर ज्यादा निवेश करते हैं, जिससे नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, ATM सुविधाएं और साइबर सिक्योरिटी बेहतर हो जाती हैं। बड़े बैंक छोटे शहरों और कस्बों में भी उन्नत सुविधाएं उपलब्ध कराने में सक्षम होते हैं। हालांकि, मर्जर के समय ग्राहकों को कुछ असुविधाएं भी झेलनी पड़ती हैं, जैसे IFSC कोड बदलना, पासबुक और ATM कार्ड अपग्रेड करना, और कुछ समय के लिए तकनीकी गड़बड़ियां होना। बैंक कर्मचारियों पर भी ट्रांसफर और सिस्टम बदलाव का दबाव बढ़ जाता है।
क्या है नुकसान?
हालांकि, इस प्रक्रिया के कुछ नुकसान भी हैं। जब बैंक बड़े हो जाते हैं, तो उनकी प्राथमिकता अक्सर बड़े कॉर्पोरेट लोन की ओर बढ़ जाती है और छोटे व्यापारियों, किसानों तथा MSME सेक्टर को अपेक्षित ध्यान नहीं मिल पाता। इसके अलावा, अगर बहुत कम बैंक बचें, तो बाज़ार में प्रतिस्पर्धा घट सकती है, जिससे ग्राहकों के लिए भी बेतहर सेवाएं न मिलने की संभावना बढ़ जाती है। बड़ा बैंक होने का मतलब यह भी है कि अगर किसी एक बैंक में गंभीर समस्या आ जाए, तो उसका असर पूरे अर्थव्यवस्था पर व्यापक रूप से पड़ सकता है।
अन्य देशों का क्या है मॉडल?
वैश्विक स्तर पर भी कई देशों ने बड़े बैंकों का मॉडल अपनाया है। चीन में सिर्फ कुछ ही बड़े बैंक हैं,जैसे ICBC, चायना कॉन्स्ट्रक्शन बैंक और बैंक ऑफ चायना है, जो दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में शामिल हैं। इन बैंकों ने चीन की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को मजबूत वित्तीय समर्थन दिया है। जापान ने भी 1990 की मंदी के बाद कई बैंक मर्ज करके आज तीन विशाल बैंकिंग समूह तैयार किए, जिससे उनकी फंडिंग क्षमता और स्थिरता दोनों बढ़ी हैं। यूरोप में 2008 के संकट के बाद कई बैंक मर्ज किए गए, जिनमें स्पेन, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड के प्रमुख मामले शामिल हैं। इससे वित्तीय स्थिरता बढ़ाने में मदद मिली। दूसरी ओर, अमेरिका एक मिश्रित मॉडल अपनाता है, जहां कुछ बड़े बैंक (जेपी मॉर्गन चेज़ बैंक, बैंक ऑफ अमेरिका, सिटी बैंक) हैं, वहीं हजारों छोटे कम्युनिटी बैंक भी साथ-साथ काम करते हैं।
पहले भी हुआ है मर्जर
भारत में 2017 से 2020 तक पहले ही एक बड़े पैमाने पर बैंक मर्जर किए जा चुके हैं। SBI में उसके सभी एसोसिएट बैंक मिलाए गए थे। इसके बाद बैंक ऑफ बड़ौदा में देना बैंक और विजया बैंक का मर्जर, पीएनबी में ओबीसी और यूनाइटेड बैंक का मर्ज, केनरा बैंक में सिंडीकेट बैंक का मर्ज और यूनियन बैंक में कॉर्पोरेशन बैंक व आंध्र बैक का मर्जर किया गया। इन सभी मर्जरों के बाद सरकारी बैंकों की संख्या 27 से घटकर 12 रह गई है। अब एक बार फिर ऐसा लग रहा है कि सरकार बैंकिंग सेक्टर को और अधिक संकेंद्रित (Consolidated) दिशा में ले जाना चाहती है।
यह भी पढ़ें: ‘पत्नी आत्महत्या करने की धमकी देती है तो…, हाई कोर्ट ने सुनाया फैसला’
अगर भविष्य में भारत में सिर्फ दो से चार बड़े सरकारी बैंक रह जाते हैं, तो इससे बैंकिंग सेक्टर अधिक मजबूत और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकता है। देश को बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए आसान फंडिंग मिलेगी और सरकारी खर्च भी घटेगा। लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि छोटे और मध्यम ग्राहकों की जरूरतें नजरअंदाज न हों, ग्रामीण बैंकिंग पर ध्यान जारी रहे और प्रतिस्पर्धा बनी रहे, ताकि बैंकिंग सेवाएं महंगी या एकतरफ़ा न हों। भारत के लिए सबसे सही मॉडल वही होगा जिसमें बड़े और छोटे दोनों तरह के बैंकों का संतुलन बनाए रखा जाए।
