तारीख, 21 अक्टूबर, 1942, WW2 का मोर्चा। तबाह हो चुका फैक्ट्री एरिया। लड़ाई में ठहराव आया ही था कि करीब 600 मीटर दूर से एक जर्मन हेवी मशीन गन गरज उठी। गोलियां इतनी तेज थीं कि किसी को सिर उठाने का मौका नहीं मिल रहा था। उसी खाई में एक दुबला-पतला सैनिक था। नौसेना का क्लर्क, जो अपनी मर्ज़ी से इस जहन्नुम में लड़ने आया था। उसने अपने साथी से पेरिस्कोप लिया, बस एक नज़र देखा और फिर अपनी मामूली सी 'मोसिन-नागांत' राइफल उठाई। कोई स्नाइपर स्कोप नहीं। निशाना लगाया और एक गोली चला दी।
धड़ाम! मशीन गन चलाने वाला जर्मन सैनिक ढेर। दो और जर्मन सैनिक मशीन गन को संभालने के लिए आगे बढ़े। दो गोलियां और चली। खटाक! खटाक! वे दोनों भी वहीं ढेर हो गए। मशीन गन हमेशा के लिए शांत हो गई। 84वीं राइफल डिवीजन के कमांडर, कर्नल निकोलाई बालयुक ये सब देख रहे थे। उसने पूछा, ‘यह कौन था?’ जवाब आया-, 'ज़ाइत्सेव।' कर्नल ने आदेश दिया, ‘इसे एक स्नाइपर राइफल दो। आज से इसके शिकार का हिसाब रखा जाएगा और गिनती तीन से शुरू होगी।'
यह भी पढ़ें- तलवार के दम पर पहचान बनाने वाले बिहार के डुमरांव राज की कहानी
गिनती तीन से बढ़कर चालीस हुई और फिर सैकड़ों तक जा पहुंची। ज़ाइत्सेव का खौफ जर्मन सेना में ऐसा फैला कि अफसर अपनी खाइयों से बाहर निकलने से डरने लगे। खबर बर्लिन में हिटलर तक पहुंची। तब फैसला हुआ। ज़ाइत्सेव से निपटने के लिए बर्लिन से सबसे बड़ा शिकारी आएगा। ज़ोसेन स्नाइपर स्कूल का हेड। 'सुपर-स्नाइपर' मेजर एरविन कोनिंग्स। एक तरफ था नौसेना का क्लर्क और दूसरी तरफ स्नाइपर्स का उस्ताद। स्टालिनग्राद की जंग अब इन दो लोगों के बीच की निजी जंग बन चुकी थी। एक ऐसी जंग जिसने एक साधारण सैनिक को हमेशा के लिए इतिहास में अमर कर दिया। आज पढ़िए सोवियत रूस के स्नाइपर वासिली ज़ाइत्सेव की कहानी।
नरक का दरवाज़ा: स्टालिनग्राद
साल 1942 का अगस्त महीना। गर्मी ऐसी कि ज़मीन फट रही थी। आसमान से सूरज और जमीन पर जर्मन सेना आग उगल रही थी। हिटलर की सिक्स्थ आर्मी। धूल के गुबार उड़ाती आगे बढ़ रही थी। सेना का गुरूर आसमान पर था, होता भी क्यों ना, आखिर तीन साल में इस फौज ने पोलैंड, फ्रांस, यूगोस्लाविया, सबको धूल चटा दी थी। अब आख़िरी मुकाम था रूस। हिटलर ने वादा किया था कि यह आखिरी लड़ाई होगी।
यह भी पढ़ें- एक भी युद्ध न हारने वाले खालिद बिन वलीद की कहानी क्या है?
जर्मन सेना का लक्ष्य था स्टालिनग्राद पर कब्ज़ा, वह शहर जो एशिया का दरवाज़ा बन चुका था। 23 अगस्त की सुबह, छह सौ जर्मन लड़ाकू विमानों ने शहर पर बमों की बारिश कर दी। इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह गईं। अस्पताल, स्कूल, घर, सब जलकर राख हो गए। सबसे भयानक मंजर वोल्गा नदी के किनारे था, जहां शहर छोड़ती भीड़ पर बम गिर रहे थे। तेल के टैंकों से जलता हुआ तेल नदी में बह रहा था, मानो नदी में ही आग लग गई हो। सिर्फ दो दिन में चालीस हज़ार से ज़्यादा आम शहरियों की मौत हुई और इसी बीच सोवियत सैनिकों के लिए मॉस्को से स्टालिन का ऑर्डर नंबर 227 आया। संदेश सीधा था, 'एक कदम भी पीछे नहीं।' जो पीछे हटता, उसे अपनी ही सेना की ख़ुफ़िया पुलिस, NKVD, गोली मार देती। यह वह नरक था, जिसमें 27 साल का वासिली ज़ाइत्सेव अपनी मर्ज़ी से दाखिल हुआ था। पेसिफिक फ्लीट का एक मामूली क्लर्क, जो अब सोवियत रूस के इतिहास का सबसे बड़ा शिकारी बनने वाला था।
शिकारी का जन्म
एक सैनिक और उसकी बंदूक। रिश्ता बहुत गहरा होता है और जब सैनिक को उसकी पसंदीदा बंदूक मिलती है तो वह जानलेवा हो जाता है। दुश्मन के लिए, वासिली ज़ाइत्सेव ने अपनी पहली राइफल अपने दादा के हाथों से ली थी, जब वह सिर्फ 12 साल का था लेकिन उसकी असली कहानी शुरू हुई स्टालिनग्राद के खंडहरों में। जैसा कि हमने बताया, एक साधारण राइफल से तीन जर्मन अफसरों को ढेर करने के बाद कर्नल ने ज़ाइत्सेव को एक स्नाइपर राइफल देने का हुक्म दिया था और तब ज़ाइत्सेव के हाथों में आई 'मोसिन-नागांत' राइफल, जिस पर लगी थी एक 3.5 पावर की टेलिस्कोपिक साइट। अब ज़ाइत्सेव की आंखें 600-800 मीटर दूर बैठे दुश्मन के सिर पर थीं। ज़ाइत्सेव को उसके मेजर ने उसे एक नोटबुक दी और कहा, 'कॉमरेड ज़ाइत्सेव, आज से तुम अपने हर शिकार का हिसाब रखोगे। गिनती तीन से शुरू करो।'
यह भी पढ़ें- जिस औरत के लिए देश से गद्दारी की वही मर्द निकली, हैरान कर देगी कहानी
ज़ाइत्सेव जानता था, शिकार सिर्फ तेज़ नज़र का नहीं, धैर्य और दिमाग का खेल है। उसने अपने दादा से सीखे सबक याद किए। वह घंटों, कई बार पूरे-पूरे दिन, एक ही जगह पर बिना हिले-डुले पड़ा रहता। वह दुश्मन के इलाके का नक्शा दिमाग में बनाता था। किस टूटी हुई दीवार के पीछे हलचल होती है, वह दुश्मन की हर हरकत को पढ़ता था। ज़ाइत्सेव अकेला नहीं था। दरअसल, किसी भी स्नाइपर का सबसे बड़ा हथियार होता है उसका साथी, उसका स्पॉटर। स्नाइपर की नज़र स्कोप से बंधी होती है, जिससे एक बार में बहुत छोटा इलाका नज़र आता है। ऐसे में स्पॉटर इलाके को स्कैन करता है, टार्गेट की पहचान करता है, फायर को करेक्ट करता है और किल को भी कंफर्म करता है। स्नाइपर एक बहुत लंबा हथियार लेकर लेटा रहता है, उसकी अपनी जान स्पॉटर के हाथों में होती है। वही आसपास के खतरों पर भी ध्यान रखता है तो स्नाइपर और स्पॉटर एक दूसरे की परछाई होते हैं।
ज़ाइत्सेव की परछाई बने निकोलाई कुलिकोव। एक अनुभवी सैनिक, जिसकी नज़रें बाज़ जैसी थीं। दोनों मिलकर काम करते। एक की नज़रें दूरबीन पर होतीं तो दूसरे की उंगली ट्रिगर पर। यह जोड़ी जर्मन अफसरों के लिए काल बन गई। एक दिन उन्हें एक चालाक जर्मन स्नाइपर का पता चला जो एक लोहे की चादर के पीछे छिपा था। उसने कई सोवियत सैनिकों को मारा था। ज़ाइत्सेव ने कुलिकोव को एक तरकीब समझाई। कुलिकोव ने एक डंडे पर हेलमेट लगाया और उसे खाई से धीरे-धीरे ऊपर उठाया। जर्मन स्नाइपर धोखे में आ गया। उसने गोली चलाई। हेलमेट में छेद हो गया। उसे लगा कि उसने एक और रूसी का शिकार कर लिया है। जीत के नशे में वह अपनी जीत का सबूत, यानी खाली कारतूस उठाने के लिए हल्का सा बाहर निकला। यही वह एक पल था जिसका ज़ाइत्सेव इंतज़ार कर रहा था। ज़ाइत्सेव की गोली चली और जर्मन स्नाइपर का सिर उसके स्कोप पर ही फट गया।
यह भी पढ़ें- क्या ओमान और UAE भी थे हिंदुस्तान का हिस्सा? बड़ी रोचक है कहानी
यह ज़ाइत्सेव का तरीका था। वह दुश्मन को गलती करने पर मजबूर करता था। वह सिर्फ गोली नहीं चलाता था, वह जाल बिछाता था और इस जाल में फंसकर जर्मन सैनिक एक-एक कर मारे जा रहे थे। गिनती बढ़ती जा रही थी। दस, बीस, चालीस। जल्द ही ज़ाइत्सेव ने 100 का आंकड़ा पार कर लिया लेकिन यह काफ़ी नहीं था। जर्मनों से लड़ने के लिए ज़ाइत्सेव को अपने जैसे कई स्नाइपर्स की जरूरत थी। लिहाजा उसने युद्ध के बीचों-बीच एक ट्रेनिंग स्कूल शुरू किया।
ज़ाइत्सेव की पाठशाला
ज़ाइत्सेव की शोहरत अब सिर्फ उसकी बटालियन तक सीमित नहीं थी। यह खबर 62वीं आर्मी के कमांडर, जनरल वासिली चुइकोव तक पहुंच चुकी थी। चुइकोव एक सख्त और चतुर जनरल थे। उन्होंने ज़ाइत्सेव को बुलाया और कहा, 'कॉमरेड, तुम बहुत अच्छा काम कर रहे हो लेकिन एक अकेला सैनिक जंग नहीं जीत सकता। हमें और शिकारी चाहिए।' फिर ज़ाइत्सेव को स्टालिनग्राद में सोवियत सेना का पहला स्नाइपर स्कूल शुरू करने का आदेश मिला।
ज़ाइत्सेव ने अपने शागिर्द घायलों के बीच से ढूंढे। ऐसे सैनिक जो सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते थे पर जिनके हाथ बंदूक थाम सकते थे और जिनकी नज़रें तेज़ थीं। ज़ाइत्सेव उन्हें कहता था, 'दुश्मन ने तुम्हें घायल किया है। अब तुम यहीं लेटे-लेटे बदला ले सकते हो।' उसने अपनी एक पूरी फौज तैयार कर ली। इन शागिर्दों को 'ज़ाइचाता' यानी 'छोटे खरगोश' कहा जाने लगा। यह एक आयरॉनिक मज़ाक था क्योंकि रूसी भाषा में 'ज़ायत्स' का मतलब खरगोश होता है लेकिन ये खरगोश जर्मन भेड़ियों का शिकार कर रहे थे। ज़ाइत्सेव की पाठशाला के नियम सीधे थे। उसका पहला सबक था - धैर्य। वह सिखाता था कि एक स्नाइपर घंटों, दिनों तक इंतज़ार करता है, सिर्फ एक सही मौके के लिए। उसका दूसरा सबक था - दिमाग का इस्तेमाल करो। दुश्मन की हर हरकत पर नज़र रखो। वह कहां से आता है, कहां छिपता है, उसकी आदतें क्या हैं।
यह भी पढ़ें- कर्बला की जंग क्यों हुई? पढ़िए शहादत की पूरी कहानी
उसकी सबसे मशहूर तकनीक थी 'सिक्सेस'। इसका मतलब था - एक जोड़ी स्नाइपर (एक शूटर, एक ऑब्जर्वर) एक ही पोजीशन से दो या तीन से ज़्यादा शिकार नहीं करेगी। जैसे ही दुश्मन को तुम्हारी पोजीशन का अंदाज़ा लगे, वहां से गायब हो जाओ। एक नई जगह चुनो। इस तकनीक ने ज़ाइत्सेव और उसके शागिर्दों को एक भूत बना दिया था। जर्मन समझ ही नहीं पाते थे कि गोली कहां से आ रही है। ज़ाइत्सेव की यह पाठशाला इतनी सफल हुई कि जल्द ही हर कंपनी में स्नाइपर दस्ते बन गए। ज़ाइत्सेव की पाठशाला नेस्टालिनग्राद की लड़ाई का रुख बदल दिया था। जर्मन सेना अब सिर्फ गोलियों से नहीं, एक खौफ से लड़ रही थी और इस ख़ौफ़ से निपटने के लिए जर्मनी से आया हिटलर का सबसे शातिर स्नाइपर। लड़ाई अब स्नाइपर बनाम स्नाइपर में तब्दील होने वाली थी।
दो बिल्लियों की लड़ाई
ज़ाइत्सेव की पाठशाला ने जर्मन सेना की नाक में दम कर दिया था। अब यह लड़ाई एक मनोवैज्ञानिक जंग बन चुकी थी और इस जंग का चेहरा था वासिली ज़ाइत्सेव। जर्मन हाई कमांड ने तय किया कि इस स्नाइपर से निपटने के लिए उन्हें अपना सबसे माहिर खिलाड़ी भेजना पड़ेगा।
इस तरह स्टालिनग्राद की ज़मीन पर एक नया शिकारी उतरा। वह बाकी जर्मन सैनिकों जैसा नहीं था। उसके आने का मकसद पूरी 62वीं सोवियत आर्मी को हराना नहीं था। उसका सिर्फ एक टारगेट था- वासिली ज़ाइत्सेव। इस जर्मन स्नाइपर का नाम था मेजर एरविन कोनिंग्स।
अब शुरू हुई दो बिल्लियों की लड़ाई। दोनों एक दूसरे को खोज रहे थे, एक दूसरे की चालों को पढ़ रहे थे। कई दिन बीत गए। ज़ाइत्सेव, उसका साथी निकोलाई कुलिकोव और एक पॉलिटिकल कमिस्सर दानिलोव, तीनों एक खाई में छुपे थे। वे कोनिंग्स की लोकेशन का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे थे। दानिलोव का धैर्य जवाब दे गया। उसे लगा कि उसने कोनिंग्स को देख लिया है। वह चिल्लाया, 'वह रहा! मैं दिखाता हूं!' यह कहते हुए उसने खाई से ज़रा सा सिर बाहर निकाला। बस एक पल के लिए और उसी पल कोनिंग्स की गोली चली। दानिलोव के कंधे में एक सुराख हो गया। वह ज़मीन पर गिर पड़ा।
यह भी पढ़ें- कैसे काम करती हैं चीन की इंटेलिजेंस एजेंसियां? पढ़िए पूरी कहानी
ज़ाइत्सेव को गुस्सा तो आया लेकिन एक सुराग भी मिल गया। कोनिंग्स इसी इलाके में कहीं छिपा है। अब इंतज़ार का खेल शुरू हुआ। ज़ाइत्सेव और कुलिकोव ने अपनी दूरबीनों से दुश्मन के इलाके का चप्पा-चप्पा छान मारा। उन्हें एक लोहे की चादर के नीचे कुछ हलचल महसूस हुई। वह चादर ईंटों के ढेर और एक टूटे हुए जर्मन टैंक के बीच पड़ी थी। एक बेहतरीन छिपने की जगह। ज़ाइत्सेव को यकीन हो गया कि उसका शिकार वहीं है लेकिन उसे बाहर कैसे निकाला जाए?
अब ज़ाइत्सेव ने अपनी आखिरी चाल चली। उसने कुलिकोव को समझाया। कुलिकोव ने एक डंडे पर एक दस्ताना लगाया और उसे खाई के ऊपर धीरे-धीरे उठाया। यह एक फंदा था। कोनिंग्स को लगा कि एक सोवियत सैनिक सिर उठा रहा है। उसने गोली चलाई। कुलिकोव ने ज़ोर से चीख मारी और डंडा नीचे गिरा दिया। उसने ऐसा नाटक किया जैसे वह गोली लगने से मर गया हो।
कोनिंग्स को लगा कि उसने ज़ाइत्सेव को मार दिया है। वह अपनी जीत का यकीन करने के लिए, अपने शिकार को देखने के लिए, लोहे की चादर के नीचे से हल्का सा बाहर आया। बस आधा सिर और इसी एक पल का ज़ाइत्सेव चार दिनों से इंतज़ार कर रहा था। उसकी राइफल पहले से ही उस जगह पर सेट थी। एक गोली चली। एक धीमी सी आवाज़ और मेजर कोनिंग्स का सिर पीछे की तरफ झटक गया। उसकी राइफल का टेलिस्कोपिक लेंस सूरज की रोशनी में एक आखिरी बार चमका और फिर शांत हो गया। चार दिन की इस दिमागी लड़ाई का अंत हो चुका था।
अंधेरे में एक शिकारी
मेजर कोनिंग्स की मौत के साथ ही स्टालिनग्राद की खंडहरों में चल रही दो शिकारियों की जंग खत्म हो गई थी लेकिन बड़ी जंग अभी बाकी थी। ज़ाइत्सेव और उसके शागिर्दों का काम जारी रहा। अब लड़ाई का रुख बदल रहा था। सोवियत सेना ने 'ऑपरेशन यूरेनस'लॉन्च कर हिटलर की पूरी सिक्स्थ आर्मी को घेर लिया था। जो जर्मन सैनिक कुछ महीने पहले शिकारी थे, अब वे खुद शिकार बन चुके थे। भूख, ठंड और हताशा उन्हें खाए जा रही थी। ज़ाइत्सेव को दुश्मन के कमांड और ऑब्जरवेशन पोस्ट को तबाह करने का काम सौंपा गया। जनवरी 1943 का महीना था। ज़ाइत्सेव अपने साथियों के साथ एक मिशन पर था। वे दुश्मन की खाइयों के बहुत करीब थे। तभी जर्मनों की तरफ से एक 'डंकी' यानी छह बैरल वाले रॉकेट लॉन्चर ने आग उगलनी शुरू की।
यह भी पढ़ें- लाछिमान गुरुंग: वह वीर सैनिक जिसने कटे हाथ से 200 दुश्मनों को टक्कर दी
एक रॉकेट सीधा ज़ाइत्सेव की तरफ आ रहा था। ज़ाइत्सेव ने अपनी किताब, ‘नोट्स ऑफ़ ए रशियन स्नाइपर’ में लिखा है कि वह उस रॉकेट को हवा में अपनी तरफ आते हुए देख सकता था। वह चाहता तो जमीन पर लेटकर बच सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। रॉकेट उससे करीब 30 मीटर दूर गिरा। एक ज़ोरदार धमाका हुआ। छर्रे ज़ाइत्सेव के चेहरे से टकराए और उसकी दोनों आंखों को जख्मी कर दिया।
साथी सैनिक उसे उठाकर ले गए। ज़ाइत्सेव को लगा कि वह हमेशा के लिए अंधा हो चुका है। उसे मॉस्को भेजा गया। उस वक्त दुनिया के सबसे बड़े आई स्पेशलिस्ट में से एक, प्रोफेसर फिलातोव ने उसका इलाज किया। कई ऑपरेशनों के बाद, ज़ाइत्सेव की आंखों की रोशनी धीरे-धीरे वापस आई।
यह भी पढ़ें- राजीव गांधी हत्याकांड में आरोपी रहे चंद्रास्वामी की कहानी क्या है?
जब वह अस्पताल में था, तभी 22 फरवरी, 1943 को उसे खबर मिली कि उसे सोवियत संघ के सबसे बड़े सम्मान 'हीरो ऑफ द सोवियत यूनियन' से नवाज़ा गया है। स्टालिनग्राद की लड़ाई खत्म हो चुकी थी। जर्मन सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था। ज़ाइत्सेव ने लड़ाई जीत ली थी लेकिन एक बड़ी कीमत चुकाकर। वह फिर कभी स्नाइपर राइफल उठाकर शिकार पर नहीं जा सका। जंग के बाद, वासिली ज़ाइत्सेव ने कीव में एक इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की और एक फैक्ट्री का डायरेक्टर बन गया। वह एक शांत और गुमनाम ज़िंदगी जीता रहा। 1991 में सोवियत संघ के टूटने से कुछ ही दिन पहले, 76 साल की उम्र में उसकी मौत हो गई।