साल 642 ईसवी की बात है। सीरिया के होम्स शहर में एक छोटा सा कमरा। कमरे की दीवारों पर लटकी पुरानी तलवारें गवाही दे रही थीं उस कमांडर की बहादुरी की, जो बिस्तर पर लेटा अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था। उसके जिस्म का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा बचा हो जिस पर तलवार, तीर या नेजे का ज़ख्म न हो।
जवानी में वह अक्सर ईश्वर से बस एक ही दुआ करता था- 'ऐ परवरदिगार, मेरी मौत जंग के मैदान में हो। मैं मरूं तो शहीद बनकर मरूं।' मगर अफ़सोस, उसकी यह ख्वाहिश पूरी न हो सकी। उस फौजी का नाम था- खालिद बिन वलीद। वही खालिद बिन वलीद, जिन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब ने 'सैफ़ुल्लाह'- यानी अल्लाह की तलवार का खिताब दिया। जिसने सौ से ज़्यादा जंगें लड़ीं और एक भी नहीं हारी। एक ऐसा नाम, जिसे सुनकर दुश्मन फौजों की रूह कांप जाती थी। जिसने रोम और पर्शिया जैसे महान साम्राज्यों को घुटनों पर ला दिया लेकिन जिस जंगजू ने ज़िंदगी भर तलवार के साए में मौत को पुकारा, वह मौत किसी जंग में नहीं। एक आम बिस्तर पर आई। आखिरी सांसों में उसकी ज़बान पर बस एक ही सवाल था- 'मैं शहीद क्यों नहीं हुआ?'
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यह कहानी है उस योद्धा की जो कभी इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन था लेकिन बाद में इस्लामी फौज का सबसे बड़ा चेहरा बन गया। अब सवाल यह कि ऐसा क्या हुआ कि इस्लाम का दुश्मन उसका सबसे बड़ा रक्षक बन गया? क्या वजह थी कि सौ से ज्यादा जंगें लड़ीं और एक भी नहीं हारी? क्या वह सिकंदर से भी बड़ा फौजी था या चंगेज़ ख़ान से ज़्यादा चालाक? या नेपोलियन, हन्नीबल जैसे जंगी दिमाग़ों से आगे? आख़िर एक इंसान हर बार जंग कैसे जीत सकता है? इन सभी सवालों के जवाब आपको इसी लेख में मिलेंगे।
जहां से निकला इस्लाम का सबसे बड़ा योद्धा
कहानी शुरू होती है मक्का की सरज़मीं से। पैगंबर मोहम्मद साहब के पूर्वजों में एक शख्स गुज़रे- नाम था मुर्रह। मुर्रह के तीन बेटे थे और ये तीनों बेटे अरब की तीन अलग-अलग बड़ी नस्लों की बुनियाद बने। पहला बेटा था किलाब। जिनकी नस्ल से आगे चलकर पैगंबर मोहम्मद साहब पैदा हुए। दूसरा बेटा था तैम, जिनकी नस्ल से हज़रत अबू बक्र सिद्दीक ने जन्म लिया। जो आगे चलकर पहले खलीफा बने और तीसरा बेटा था मख़ज़ूम।
मख़ज़ूम को भी कई औलादें हुईं लेकिन एक औलाद ऐसा भी था जिसने वक़्त की गर्दिश में अपनी एक अलग पहचान बनाई। नाम था मुग़ीरा। ऐसा बहादुर, ऐसा जांबाज़ घुड़सवार, जो हवा से बातें करता था। मुगीरा का एक बेटा था। नाम था वलीद। वलीद उस वक्त मक्का का सबसे अमीर इंसान था। लोग उसे कहते थे- 'वहीद-उल-क़ौम' यानी अपनी क़ौम में सबसे अलग पहचान रखने वाला। उसके पास सैकड़ों बाग-बग़ीचे थे, हजारों ऊट थे। कारोबार इतना फैला हुआ था कि उसके एजेंट अलग-अलग मुल्कों में बैठकर व्यापार करते थे। कपड़ों से लेकर ज़ेवर तक हर तरह के व्यापार में उसका नाम था।
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उसके खज़ाने में हर वक़्त लाखों नकद पैसे और हीरे जवाहरात रहते थे। सोचिए, वह कितना अमीर होगा! यह वह वक्त था जब पैगंबर मोहम्मद साहब ने ऐलान कर दिया था कि ईश्वर ने उन्हें आखरी नबी चुना है। उनके ऊपर वही आने लगी थी। वही मतलब ईश्वर की तरफ से कुरान की आयतें उन तक पहुंचने लगी थी। पैगंबर मोहम्मद साहब जब कभी कुरान की आयतें पढ़ते तो वलीद छुप-छुप कर कुरान की आयतें सुनता। कुरान की आयतें अरबी में होती थीं। अरबी वलीद की मातृभाषा थी। धीरे-धीरे उसका यकीन कुरान की तरफ बढ़ने लगा। उसका दिल मानने लगा कि सचमुच पैगंबर मोहम्मद साहब आखरी नबी हैं। कुछ लम्हों के लिए ऐसा लगा कि शायद अब वह इस्लाम कबूल कर लेगा।
मगर फिर उसका घमंड आड़े आ गया। सोचा- 'मैं तो क़ुरैश का सबसे बड़ा लीडर हूं, अगर मैंने इस्लाम कबूल कर लिया तो लोग कहेंगे कि वह मोहम्मद के आगे झुक गया।' कुरैश उसके खानदान का नाम था। बस, इसी अहंकार की वजह से उसने इस्लाम धर्म को नहीं अपनाया। इसका ज़िक्र कुरान के 29वें पारे के सुरह अल-मुद्दस्सिर में भी आया है।
वक्त गुज़रा और फिर वही वलीद जो बेशुमार दौलत का मालिक था, धीरे-धीरे सब कुछ खो बैठा। उसकी ताक़त, उसका माल, उसका रुतबा - सब कुछ खत्म हो गया। वलीद के कई बेटे थे। जिन में एक नाम था खालिद। अरबी में बिन मतलब बेटा होता है इसलिए खालिद को खालिद बिन वलीद के नाम से पुकारा जाने लगा। यानी वलीद का बेटा। खालिद बिन वलीद की मां का नाम था - लुबाबा बिंत हारिस हिलालिया। पैगंबर मोहम्मद साहब की आखरी बीवी हजरत मयमूना और खालिद बिन वलीद की मां लुबाबा अपनी सगी बहनें थीं। इस लिहाज से मोहम्मद साहब साहब खालिद बिन वलीद के खालू यानी मौसा भी लगते थे।
जब ख़लीफा उमर के पैर तोड़ दिए
ख़ालिद बिन वलीद के बचपन से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा है। कहा जाता है कि ख़ालिद बिन वलीद और हज़रत उमर फ़ारूक- जो आगे चलकर इस्लाम धर्म के दूसरे ख़लीफ़ा बने- दोनों के बीच बचपन से गहरी दोस्ती थी। एक बार की बात है, ख़ालिद और उमर एक साथ कुश्ती लड़ रहे थे। इस बीच खालिद बिन वलीद ने ऐसी दांव चली कि हजरत उमर के पैर में चोट आ गई। कहा यह भी जाता है कि उनका पैर टूट गया। कई दिनों तक बिस्तर पर रहे और इलाज चलता रहा।
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खालिद बिन वलीद जिस खानदान से आते थे। उसे कुरैश कहा जाता था। उस ज़माने में कुरैश के बच्चों को एक ख़ास उम्र में बुनियादी तालीम के लिए भेजा जाता था। जहां वह पढ़ाई, लिखाई, ज़बान और तहज़ीब सीखते थे। ख़ालिद को भी इस राह पर चलाने की कोशिश की गई लेकिन उनका दिल किताबों की जगह कहीं और लगता था। उन्हें पसंद थी धूल, घोड़े और तलवारें। जहां बाकी बच्चे पढ़ना-लिखना सीख रहे थे। वहीं, ख़ालिद घोड़ों पर सवार होकर रेगिस्तान में दौड़ लगा रहे थे। जब उनके हाथ में कलम दी गई, वह तलवार मांगने लगे। तीरंदाज़ी में वह ऐसा निशाना लगाते कि बड़े-बड़े सिपाही हैरान रह जाएं। तलवार घुमाने में उनकी पकड़ ऐसी थी मानो तलवार उन्हीं के लिए बनाई गई हों।
इस्लाम के दुश्मन खालिद बिन वलीद
इस्लाम जब मक्का और उसके आसपास के इलाकों में फैल रहा था। उस दौर में ख़ालिद बिन वलीद पैग़म्बर मुहम्मद साहब और उनके साथियों के कट्टर विरोधियों में शामिल थे। वह न सिर्फ इस्लाम धर्म को मानने से इनकार करते थे बल्कि उसका असर मिटाने की ठान चुके थे। उनका मानना था कि मक्का की ज़मीन पर इस्लाम की जड़ें जमने से पहले ही कुचल देनी चाहिए। इसी इरादे से उन्होंने कई लड़ाइयों में क़ुरैश की तरफ से हिस्सा भी लिया।
साल 625 ईसवी की बात है। मदीना के पास उहुद नाम की एक पहाड़ी के साए में एक जंग लड़ी गई। जिसे जंग-ए-उहुद का नाम दिया गया। यह जंग कुरैश और मुसलमानों के बीच लड़ी गई थी। इस जंग में कुरैश की तरफ से खालिद बिन वलीद मैदान में थे। मुसलमानों का नेतृत्व मोहम्मद साहब के हाथों में था। पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने बहुत समझदारी से सेना को उहुद की पहाड़ी की आड़ में खड़ा किया और तीरंदाज़ों को सख़्त हिदायत दी कि वे किसी भी हाल में अपनी जगह न छोड़ें। शुरुआत में मुस्लिम सेना ने क़ुरैश पर ज़बरदस्त बढ़त बना ली। दुश्मन पीछे हटने लगे और जीत की उम्मीदें मुसलमानों की आंखों में चमकने लगीं लेकिन तभी एक चूक हुई- वे तीरंदाज़, जिन्हें अपनी जगह पर डटे रहना था। उन्हें लगा वे जीत चुके हैं इसलिए थोड़े ढीले पड़ गए। यही वह पल था जिसका इंतज़ार ख़ालिद बिन वलीद कर रहे थे। उन्होंने पीछे से हमला बोल दिया। उनका हमला इतना तेज़, अचानक और रणनीतिक था कि मुस्लिम सेना की क़तारें बिखरने लगीं। अफरातफरी मच गई और लगभग 70 मुसलमानों की जान चली गई। यह हार मुसलमानों के लिए एक बड़ा सदमा था और उसकी सबसे बड़ी वजह थे ख़ालिद बिन वलीद, जो उस वक़्त इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मन थे।
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सुलह-ए-हुदैबिया
साल 628 ईसवी की बात है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब अपने 1400 साथियों के साथ उमरा की नीयत से मक्का की ओर बढ़े। उमरा मतलब खाने काबा का तवाफ यानी चक्कर लगाना। खैर, ख़ालिद बिन वलीद को जब इस क़ाफिले की खबर मिली तो वह दो सौ घुड़सवारों के साथ उनका पीछा करने के लिए निकल पड़े। सफर के दौरान जब नमाज का वक्त होता तो पैगंबर मोहम्मद साहब और उनके साथी बीच रास्ते में किसी जगह पर ठहर कर नमाज पढ़ते थे। खालिद बिन वलीद की प्लान था कि जब ये लोग नमाज के लिए कहीं रुकेंगे। इनके ऊपर हमला कर दिया जाएगा लेकिन यह योजना कामयाब नहीं हुई। मक्का के पास हुदैबिया नामक जगह पर मुसलमान रुके। उन्हें घेर लिया गया। मोहम्मद साहब सफर के दौरान कोई जंग नहीं चाहते थे। लिहाजा दोनो गुटों के बीच एक समझौता हुआ। जिसे सुलह-ए-हुदैबिया का नाम दिया गया। कुछ शर्तें रखी गई थीं।
पहली शर्त थी, अगले 10 साल तक कुरैश और मुसलमानों के बीच कोई जंग नहीं होगी। दूसरी शर्त थी कि उस साल मुसलमान उमरा नहीं करेंगे लेकिन अगले साल उन्हें बिना रोक-टोक मक्का में उमरा करने की इजाजत होगी और तीसरी शर्त रखी गई थी कि दोनों पक्ष अपने सहयोगियों को जंग से रोकेंगे। सुलह-ए-हुदैबिया के मुताबिक जब मुसलमान अगले साल यानी 629 ईस्वी में उमरा करने मक्का पहुंचे तो ख़ालिद बिन वलीद मक्का छोड़कर कहीं और चला गए। कहा- ‘मैं अपने दुश्मनों को इस शहर में दाख़िल होता नहीं देख सकता।' लेकिन आने वाले वक्त में वही खालिद बिन वलीद जो इस्लाम के दुशमन थे, सबसे बड़े रक्षक बनने वाले थे।
इस्लाम में हुए शामिल
सुलह ए हुदैबीया के बाद धीरे-धीरे खालिद बिन वलीद इस्लाम के करीब आने लगे थे। अब उनका ध्यान मोहम्मद साहब की गतिविधियों की तरफ बढने लगा था। उन्हें ऑब्जर्व करने लगे थे। वह उनके किरदार, उनके व्यवहार और उनकी सादगी को गहराई से महसूस करने लगे थे। उनका दिल गवाही देने लगा था कि यह इंसान झूठा नहीं हो सकता।
उधर पैगम्बर मोहम्मद साहब जान चुके थे कि खालिद बिन वलीद का दिल इस्लाम की तरफ मुड़ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें ईश्वर की तरफ से यह संदेश मिल चुका था कि खालिद बिन वलीद कुछ वक्त में इस्लाम कुबूल कर लेंगे। कुछ दिन यूं ही गुजरे लेकिन खालिद ने अब तक इस्लाम धर्म को नहीं अपनाया था लेकिन खालिद के एक भाई ने इस्लाम जरूर कुबूल कर लिया था। मोहम्मद साहब ने उनसे पूछा कि ईश्वर की तरफ से मुझे खालिद बिन वलीद के इस्लाम धर्म को अपनाने का पैगाम आ चुका है। फिर खालिद इतनी देरी क्यों कर रहा है। भाई ने पैगंबर मोहम्मद साहब से कहा कि खालिद का रुझान इस्लाम की तरफ बढ़ रहा है। बस कुछ वक्त की देरी है।
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फिर भाई ने खालिद बिन वलीद को एक खत लिखा - एक ऐसा ख़त, जिसने ताउम्र तलवार थामे एक जंगजू का रुख़ बदल दिया। ख़ालिद ने जैसे ही वह ख़त पढ़ा, उनकी आंखों में आंसू थे और दिल में बेताबी। उनके लफ़्ज़ थे, 'जैसे ही मैंने वह खत पढ़ा, मेरा दिल चाहता था कि मैं पंख लगा लूं और फ़ौरन मोहम्मद साहब के पास पहुंच जाऊं और अपनी जान-माल सब कुछ उनके क़दमों में रख दूं।' वह दिन करीब आ गया। साल 629 ईसवी की बात है- ख़ालिद ने मक्का की सरज़मीन छोड़ दी और मदीना की ओर रवाना हुए। वह शहर जहां रहमत का सूरज चमक रहा था। जैसे ही वह पैगंबर मोहम्मद साहब के पास पहुंचे, उन्होंने इस्लाम धर्म को अपना लिया। पैगंबर मोहम्मद साहब ने खालिद बिन वलीद को अपने सीने से लगा लिया और फिर ऐसे अल्फाज कहे जो इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। 'अंता सैफुल्लाह'- यानी 'खालिद तू अल्लाह की तलवार है।'
जंग-ए-मूता
साल 629 ईसवी की बीत है। ख़ालिद बिन वलीद ने इस्लाम कबूल किया ही था कि उनके सामने एक जंग आ खड़ी हुई। जिसका नाम था जंग-ए-मूता। जगह थी आज का जॉर्डन। सामने थी बीज़न्टिन रोमन सेना। दुश्मनों की तादाद थी करीब एक लाख। उनके पास भारी हथियार थे। घुड़सवार थे और जंग का लंबा तजुर्बा था। मुसलमानों की फौज सिर्फ 3,000 सिपाहियों की थी। पैगंबर मुहम्मद साहब ने इस फौज के लिए तीन कमांडर तय किए थे – ज़ैद बिन हारिस, जाफ़र बिन अबी तालिब और अब्दुल्लाह बिन रवाहा। हुक्म था कि अगर एक शहीद हो जाए तो दूसरा कमान संभाले।
जंग शुरू हुई। दुश्मन मुसलमानों के ऊपर भारी पड़ने लगे। हालात तेजी से बिगड़ने लगे। एक-एक कर तीनों कमांडर शहीद हो गए। फौज में डर और अफरातफरी फैल गई। कोई समझ नहीं पा रहा था कि क्या करें। इसी नाज़ुक मौके पर ख़ालिद बिन वलीद ने कमान संभाली। यह उनकी इस्लाम में पहली जंग थी। काफी प्लानिंग के साथ जंग लड़ते थे। उन्होंने तुरंत हालात को पढ़ा। सीधा हमला करने से फौज का सफाया हो सकता था। उन्होंने एक स्ट्रैटजी अपनाई। रात को फौज की टुकड़ियों की जगह बदल दी। आगे वालों को पीछे कर दिया और पीछे वालों को आगे। झंडे भी बदलवा दिए। फिर अपने घुड़सवारों को ज़ोर से दौड़ाया। धूल का इतना बड़ा गुबार उठा कि दुश्मन को लगा कोई नई फौज आ गई है।
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अगले दिन ख़ालिद ने सीमित हमले किए। फौज को धीरे-धीरे पीछे हटाया। हर कदम सोच-समझ कर रखा ताकि सिपाहियों की जान बच सके। मुसलमान इस जंग को जीत नहीं पाए लेकिन ख़ालिद की रणनीति ने हजारो सैनिकों को मरने से बचा लिया।
जंग-ए-यमामा
पैग़म्बर मुहम्मद साहब की ज़िंदगी में अरब के यमामा इलाके से एक अजीब और खतरनाक दावा सामने आया। एक व्यक्ति था - मुसैलमा बिन कज्ज़ाब। नाम तो मुसलमानों जैसा था लेकिन इरादा पूरे इस्लाम को हिला देने वाले था। उसने दावा किया कि वह भी एक 'नबी'है और यहां से शुरू हुआ इस्लामी इतिहास का सबसे बड़ा झूठ।
इस्लाम के उसूल साफ़ हैं: मोहम्मद साहब ईश्वर के आखरी पैगंबर यानी संदेशवाहक हैं। उनके बाद कोई दूसरा पैगंबर नहीं आएगा। मुसैलमा ने मोहम्मद साहब के दरबार में आकर ना सिर्फ़ झूठा दावा किया बल्कि यह तक कह डाला: 'मुझे अपना ख़लीफ़ा बना दो।' मतलब उत्तराधिकारी बना दो। पैग़म्बर मोहम्मद साहब ने उसकी बात ठुकरा दी। यह इनकार मुसैलमा को और ज़्यादा ज़हरीला बना गया। वह आज के सऊदी अरब के यमामा इलाके में गया और वहां झूठे चमत्कारों और भाषणों से अपने साथ लोगों को जोड़ने लगा। कुछ ही वक्त में उसने अपने साथ हजारों लोगों को जोड़ लिया था।
पैग़म्बर मोहम्मद साहब की मौत के बाद यह झूठे नबियों का दौर और भी खतरनाक हो गया। मुसैलमा के अलावा कई और लोगों ने पैगंबर होने का झूठा दावा किया। उस वक्त मुसलमानों की रहनुमाई कर रहे थे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक। जिन्होंने इन फितनों को हवा में उड़ता देखकर फ़ौरन सख्त क़दम उठाए। इन झूठे दावों से लड़ने के लिए ग्यारह फौजें तैयार कीं। इनमें सबसे अहम लड़ाई मुसैलमा के खिलाफ़ थी। मुसैलमा के खिलाफ जंग में पहले हज़रत इक़रीमा को भेजा गया लेकिन उन्होंने जल्दबाज़ी में हमला कर दिया और हार गए। अब अबू बक्र सिद्दीक को समझ आ गया- यह काम सिर्फ़ एक ही इंसान कर सकता है- सैफुल्लाह यानी ख़ालिद बिन वलीद।
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ख़ालिद बिन वलीद ने यमामा की ओर कूच किया। मुसलमानों की फौज महज़ 13,000 थी और मुसैलमा के पास थे 40,000 से ज़्यादा लड़ाके थे। दोनों सेनाएं आमने-सामने आईं और शुरू हुआ एक भीषण युद्ध। तलवारें, तीर, भालों की आवाज़ों के बीच आस्था की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी जा रही थी। इस जंग में करीब 1200 मुसलमान शहीद हुए, जिनमें 700 हाफ़िज़-ए-क़ुरान शामिल थे। हाफ़िज़-ए-क़ुरान यानी जिन्हें कुरान मुंहजबानी याद हो। मुसलमानों की हालत डगमगाने लगी थी, तभी आगे बढ़े - ख़ालिद बिन वलीद। उन्होंने दुश्मन की पोजीशन को तोड़ा, हौसला गिराया और मुसलमानों को दोबारा खड़ा कर दिया। फिर एक तीर चला और मुसैलमा कज्ज़ाब ज़मीन पर ढेर हो गया। उसके साथ ही झूठ की सारी इमारतें गिर पड़ी। इस युद्ध में मुसैलमा के 20,000 से ज़्यादा सिपाही मारे गए। इस तरह खालिद बिन वलीद के नेतृत्व में मुसलमानों ने एक ऐसी जंग जीती जो इस्लाम धर्म के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण थी क्योंकि अगर मुसैलमा जीत जाता तो इस्लाम के भीतर झूठ और फितना फैल जाता। पैगंबर होने के झूठे दावे बढ़ जाते।
जंग-ए-यरमूक
साल 636 ईसवी की बात है। यरमूक नदी के किनारे। जहां आज सीरिया, जॉर्डन और इज़राइल की सरहदें मिलती हैं - वहीं एक ऐसी जंग लड़ी गई, जिसने ना सिर्फ़ इस्लामी इतिहास का रुख़ बदला बल्कि ख़ालिद बिन वलीद को अमर बना दिया। इस जंग में एक तरफ़ था बीज़ान्टिन साम्राज्य। जिसका शाम यानी सीरिया पर कब्जा था। जब ये जंग के मैदान में उतरे तो इनके पास फ़ौज में एक लाख पचास हज़ार से ज़्यादा सैनिक, घुड़सवार और हथियारों से लैस जंगी दस्ते थे। दूसरी ओर थी मुसलमानों की फौज की संख्या महज 40 हजार थी। खालिद बिन वलीद इसके सेनापति थे।
ख़लीफ़ा हज़रत अबू बक्र ने ख़ालिद बिन वलीद को शाम यानी सीरिया फ़तह करने का हुक्म दिया था। यह जंग छह दिन और छह रात चली। हर रोज़ दुश्मन ने नया हमला बोला और हर बार ख़ालिद ने नई रणनीति से जवाब दिया। वह जंग सिर्फ तलवारों से नहीं लड़ते थे। बल्कि ह्यूमन साइकोलॉजी के साथ खेलते थे। जंग के दौरान उन्होंने बीज़ान्टिन सेनाओं के खान-पान पहुंचने के तमाम रास्ते बंद कर दिए। उनके घुड़सवार दस्तों को अलग-थलग कर दिया और दुश्मन की बड़ी-बड़ी टुकड़ियों को धीरे-धीरे तोड़कर बिखेर दिया। देखते ही देखते बीज़ान्टिन साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखरने लगी।
यरमूक के बाद ख़ालिद बिन वलीद ने बीज़ान्टिन ताक़त के एक और बड़े किले की तरफ़ कूच किया- अंताकिया, जो आज तुर्की का हिस्सा है। ख़ालिद बिन वलीद ने अपनी सेना के साथ अंताकिया को चारों ओर से घेर लिया। यहां भी उन्होंने बीजान्टिन सेना तक खान-पान पहुंचने से रोक दिया। फिर बिना खून-खराबे के, इस शहर को इस्लामी शासन में शामिल कर लिया गया। जब शाम यानी सीरिया का इलाका पूरी तरह इस्लामी शासन के अधीन आ गया तो ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने जंग रोक दी। उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है जीती हुई ज़मीन को संभालने का। उसे इंसाफ और अमन से चलाने का। ख़ालिद बिन वलीद को सीरिया के क़िन्नासिरिन नामक शहर का गवर्नर बनाया गया। ख़ालिद को ओहदे और ताक़त में कोई दिलचस्पी नहीं थी। कुछ ही महीनों बाद उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।
अब वह वक्त आ गया था जब खालिद बिन वलीद की तबीयत तेजी से बिगड़ने लगी धी। जिस्म पर तलवार और तीर के दर्जनों ज़ख्मों के निशान थे। जीवन की कुछ गिनी चुनी सांसें बची थीं। साल था 642 ईसवी, बिस्तर पर लेटे-लेटे छत को देखते हुए एक अधूरी तमन्ना लिए खालिद बिन वलीद ने दुनिया को अलविदा कह दिया। काश मेरी मौत जंग के मैदान में होती। इस्लाम धर्म के जानकार बताते हैं कि खालिद बिन वलीद सैफुल्लाह यानी अल्लाह की तलवार थे। इसलिए उनकी मौत जंग के मैदान में नहीं हुई। अगर मौत हो जाती तो अल्लाह की तलवार टूट जाती।