जापान में स्व- ममीकरण, जिसे जापानी में सोकुशिनबुत्सु कहा जाता है। यह शिंगोन बौद्ध संप्रदाय के कुछ भिक्षुओं द्वारा अपनाई गई एक प्राचीन और कठिन साधना है। यह प्रथा 11वीं से 19वीं सदी तक प्रचलित थी, जिसमें भिक्षु अपने शरीर को जीवित रहते हुए ममीकरण की प्रक्रिया से गुजरते थे ताकि वे जीवित बुद्ध बन सकें और आत्मज्ञान प्राप्त कर सकें। यह जापानी संस्कृति की एक अनूठी और रहस्यमयी प्रथा थी, जो बौद्ध धर्म, शुगेंडो और ताओवादी का मिश्रण है।
स्व-ममीकरण क्या है?
सोकुशिनबुत्सु का अर्थ है 'इसी शरीर में बुद्ध'। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें भिक्षु सालों तक कठोर आहार, ध्यान, और शारीरिक साधना के जरिए अपने शरीर को मृत्यु के बाद सड़ने से बचाते थे। इसका उद्देश्य था आत्मज्ञान प्राप्त करना और लोगों की पीड़ा को कम करने के लिए जीवित बुद्ध के रूप में रहना। भिक्षु मानते थे कि वे मृत्यु के बाद भी गहरे ध्यान की अवस्था में रह सकते हैं और भविष्य में मैत्रेय बुद्ध यानी भविष्य के बुद्ध के आगमन तक लोगों की मदद कर सकते हैं।
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प्रक्रिया कैसे होती थी?
स्व-ममीकरण एक लंबी और दर्दनाक प्रक्रिया थी, जो आमतौर पर 6 से 10 साल तक चलती थी। यह तीन मुख्य चरणों में होती थी:
पहला चरण (1000 दिन)
भिक्षु मोकुजिकिग्यो (पेड़ खाने की साधना) शुरू करते थे। वे अनाज (चावल, गेहूं, सोयाबीन) छोड़कर केवल जंगल से मिलने वाले फल, बीज, और नट्स खाते थे। साथ ही, वे कठिन शारीरिक व्यायाम करते थे ताकि शरीर की चर्बी पूरी तरह खत्म हो जाए। इससे शरीर में बैक्टीरिया और कीड़े के लिए कम सामग्री बचती थी।
दूसरा चरण (1000 दिन)
आहार और सख्त हो जाता था। भिक्षु केवल पेड़ की छाल, पाइन सुई, और राल खाते थे। कुछ भिक्षु उरुशी चाय (जापानी लकड़ी के पेड़ की जहरीली रस से बनी चाय) पीते थे। यह शरीर से तरल पदार्थ निकाल देती थी और मृत्यु के बाद शरीर को सड़ने से रोकने में मदद करती थी। इस चरण में शरीर बहुत कमजोर हो जाता था और भिक्षु गहरे ध्यान में डूबे रहते थे।
अंतिम चरण (न्यूजो)
जब भिक्षु मौत के करीब होते थे, वे एक छोटे पत्थर के कक्ष या ताबूत में कमल मुद्रा में बैठ जाते थे। उनके पास केवल एक बांस की नली होती थी, जिससे वे सांस लेते थे और एक घंटी होती थी जिसे वे रोज बजाते थे। जब घंटी की आवाज बंद हो जाती थी, तो समझा जाता था कि भिक्षु मर चुके हैं। कक्ष को सील कर दिया जाता था। तीन साल बाद, कक्ष खोला जाता था। अगर शरीर बिना सड़े संरक्षित रहता तो भिक्षु को सोकुशिनबुत्सु माना जाता था और मंदिर में प्रदर्शन के लिए रखा जाता था। अगर शरीर सड़ गया, तो उसे सम्मान के साथ फिर से दफना दिया जाता था।
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कहां और क्यों थी यह प्रथा?
यह प्रथा मुख्य रूप से उत्तरी जापान के यमागाता प्रांत में, खासकर युडोनो पर्वत और दावा सैंजान के आसपास प्रचलित थी। यमागाता में 13 सोकुशिनबुत्सु मौजूद हैं और पूरे जापान में लगभग 16-24 ऐसे ममीकृत भिक्षु हैं। शिंगोन बौद्ध धर्म के संस्थापक Kukai (कोबो दाइशी) ने सिखाया कि कठोर साधना से कोई अपने इसी जीवन में बुद्धत्व प्राप्त कर सकता है। सोकुशिनबुत्सु इसी विश्वास को लेकर चलता था। कई भिक्षुओं ने अकाल, बीमारी, या युद्ध के समय लोगों की पीड़ा कम करने के लिए यह कदम उठाया।
क्या यह प्रथा अभी भी है?
नहीं, अब यह प्रथा जापान में नहीं होती है। स्व-ममीकरण को 1879 में मेजी सरकार ने गैरकानूनी घोषित कर दिया क्योंकि इसे बेहद क्रूर माना गया। आखिरी सोकुशिनबुत्सु, बुक्काई, ने 1903 में यह प्रक्रिया गैरकानूनी रूप से की थी। आज, ये ममियां मंदिरों में संरक्षित हैं और इन्हें बौद्ध अनुयायी पूजते हैं। कुछ मंदिर, जैसे दैनिचिबो और चुरेंजी, पर्यटकों के लिए भी खुले हैं।