दिल्ली, देश की राजधानी और राजधानी में सत्ता के कई केंद्र होते हैं। एक वह जो संसद और मंत्रालयों की इमारतों में बसता है। दूसरा वह जो लुटियंस की कोठियों और फार्महाउसों में सांस लेता है। 80 और 90 के दशक में एक ऐसा ही सत्ता का केंद्र था दिल्ली के कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया में स्थित एक आलीशान आश्रम। नाम, विश्व धर्मायतन सनातन और इस आश्रम के पीठाधीश्वर का नाम था- चंद्रास्वामी। असली नाम नेमी चंद जैन। खुद को तांत्रिक कहता था पर उसके दरबार में हाजिरी भरने वालों में सिर्फ आम लोग नहीं थे। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, बड़े-बड़े मंत्री और उद्योगपति, सब लाइन में लगे रहते थे। कहते हैं कि प्रधानमंत्री चंद्रशेखर तो उन्हें ‘राष्ट्रीय महत्व’ का आदमी मानते थे और पी. वी. नरसिम्हा राव तो उनके ऐसे करीबी थे कि जब राव प्रधानमंत्री बने तो चंद्रास्वामी की ताकत भी अपने चरम पर पहुंच गई।

 

मगर चंद्रास्वामी का सबसे बड़ा, सबसे अमीर और सबसे वफादार ‘शिष्य’ कोई भारतीय नेता नहीं था। वह था सऊदी अरब का अदनान खाशोगी। हथियारों का वह सौदागर, जिसकी दौलत का कोई हिसाब नहीं था। जिसके पास दर्जन भर आलीशान घर थे, तीन-तीन पर्सनल हवाई जहाज थे और एक ऐसी नाव थी जिसे जेम्स बॉन्ड की फिल्मों में इस्तेमाल किया गया था।

एक तांत्रिक और एक हथियार सौदागर। यह रिश्ता सिर्फ गुरु-चेले का नहीं था। यह दौलत, सियासत और ताकत का एक खतरनाक कॉकटेल था और इस कॉकटेल में एक तीसरा किरदार भी था। पामेला बोर्डेस। 1982 की मिस इंडिया। बला की खूबसूरत और उतनी ही महत्वाकांक्षी। पामेला जब लंदन के हाई-सोसाइटी सर्किट में उतरीं तो उनके दोस्तों की फेहरिस्त में अदनान खाशोगी का नाम भी शामिल हो गया और कहा यह गया कि हिंदुस्तान की इस हसीन मॉडल को हथियारों के इस सौदागर से मिलवाने वाला कोई और नहीं, बल्कि तांत्रिक चंद्रास्वामी ही था।

 

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यह तिकड़ी अपने आप में एक अनोखी कहानी थी लेकिन इनके उलझे हुए तारों ने भारत की सियासत में उस वक्त भूचाल ला दिया, जब इनका नाम देश के सबसे बड़े राजनीतिक हत्याकांड से जुड़ा। राजीव गांधी की हत्या। इस स्टोरी में हम जानेंगे हथियारों के सौदागर, एक तांत्रिक और एक पूर्व मिस इंडिया की उस कहानी को, जिसके तार भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश से भी जुड़े।

अदनान खाशोगी: जब शाह का डॉक्टर बना 'मिस्टर फिक्सइट'

 

अदनान खाशोगी की कहानी शुरू हुई 25 जुलाई 1935 को, मक्का में। सऊदी अरब का रेगिस्तान तब तप रहा था और उसी तपिश में एक नया साम्राज्य आकार ले रहा था। शाह अब्दुल अजीज अल सऊद ने बिखरे हुए कबीलों को जोड़कर एक मुल्क बनाया था और इन्हीं शाह के निजी डॉक्टर थे अदनान के पिता, मोहम्मद खाशोगी। पिता डॉक्टर थे, इसलिए बेटे की पहुंच बचपन से ही महल के गलियारों तक थी। वह उन महफिलों में उठता-बैठता था जहां मुल्क के फैसले होते थे। खाशोगी ने अपनी शुरुआती तालीम मिस्र के मशहूर विक्टोरिया कॉलेज से पूरी की, जहां उसके साथ पढ़ने वालों में जॉर्डन के भावी राजा, किंग हुसैन भी थे। यहीं से कनेक्शन बनाने का जो हुनर उसने सीखा, वह जिंदगी भर उसके काम आया।

 

 

ख़ाशोगी पर लिखी किताब ‘The Richest Man in the World’ में रोनाल्ड केसलर एक क़िस्सा बताते हैं एक बार जब खाशोगी कॉलेज में पढ़ रहा था। उसने अपने एक क्लासमेट के पिता, जो तौलिया बनाने का काम करते थे, की मुलाकात अपने दूसरे क्लासमेट के पिता से करवाई, जिन्हें तौलिया खरीदना था। खाशोगी ने बस दोनों को मिलवाने का काम किया। सिर्फ इस छोटी सी मुलाकात के बदले में, उन्हें 200 डॉलर का कमीशन मिला। दलाली की दुनिया में पहला कदम था लेकिन असली छलांग अभी बाकी थी। अमेरिका के चिको स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उसके पिता ने उसे एक कार खरीदने के लिए 10 हजार डॉलर भेजे। खाशोगी ने उस पैसे से कार नहीं, एक ट्रक खरीदा। केनवर्थ कंपनी का। ऐसा ट्रक जिसके चौड़े पहिए रेगिस्तान की रेत पर आसानी से चल सकते थे। उसने यह ट्रक सऊदी अरब की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी को लीज पर दे दिया। यह कंपनी थी मोहम्मद बिन लादेन की, वही बिन लादेन जिनके बेटे ओसामा ने बाद में ट्विन टावर्स पर 9-11 का हमला किया था। खैर, इस एक ट्रक के सौदे से खाशोगी ने 50 हजार डॉलर का कमीशन कमाया। अब उसे समझ आ गया था कि उसका रास्ता इंजीनियरिंग की किताबों से नहीं, बल्कि सौदों की दुनिया से होकर गुजरता है। उसने कॉलेज छोड़ दिया।

 

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1962 का साल। सऊदी अरब के पड़ोसी मुल्क यमन में गृह युद्ध छिड़ गया। सऊदी शाह परेशान थे। उन्हें शाही ताकतों की मदद के लिए हथियार चाहिए थे लेकिन वह खुलेआम ऐसा नहीं कर सकते थे। तब के क्राउन प्रिंस और बाद में शाह बने फैसल ने 27 साल के अदनान खाशोगी को बुलाया। उसके हाथ में एक मिलियन ब्रिटिश पाउंड का चेक रखा और कहा, 'हथियार खरीदो। कहां से खरीदोगे, कैसे लाओगे, यह तुम्हारी सिरदर्दी है। बस इस सौदे पर सऊदी अरब का नाम नहीं आना चाहिए।'
 
यह खाशोगी का पहला बड़ा इम्तिहान था। एक भरोसेमंद दलाल के तौर पर। उसने ब्रिटेन से राइफलें खरीदीं और चुपचाप यमन पहुंचा दीं। काम पूरा होने पर जब फैसल ने कमीशन की बात की तो खाशोगी ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। यह एक मास्टरस्ट्रोक था। उसने पैसा नहीं, शाह का भरोसा कमाया और यहीं से वह सिर्फ एक एजेंट नहीं, बल्कि सऊदी हुकूमत का एक अघोषित 'मिस्टर फिक्सइट' बन गया।

 

इसके बाद तो बस सौदों की झड़ी लग गई। लॉकहीड, रेथियॉन, नॉर्थरोप जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी हथियार बनाने वाली कंपनियां सऊदी अरब को अपना माल बेचना चाहती थीं और उन सब के लिए एक ही दरवाजा था- अदनान खाशोगी। उसका कमीशन भी छोटा-मोटा नहीं होता था। 1970 से 1975 के बीच, सिर्फ लॉकहीड कंपनी ने उसे कमीशन के तौर पर 106 मिलियन डॉलर दिए। उसकी दलाली की दर ढाई परसेंट से शुरू होकर पंद्रह परसेंट तक जाती थी। 

 

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ख़ाशोगी का सबसे बड़ा और कुख्यात कारनामा था ईरान-कॉन्ट्रा स्कैंडल। 80 के दशक में अमेरिका और ईरान कट्टर दुश्मन थे लेकिन पर्दे के पीछे एक खतरनाक खेल चल रहा था। अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की सरकार ईरान को चुपके से हथियार बेच रही थी। मकसद था ईरान के कब्जे से कुछ अमेरिकी बंधकों को छुड़ाना और इस सौदे से जो पैसा आ रहा था, उसे गैर-कानूनी तरीके से निकारागुआ में कॉन्ट्रा विद्रोहियों को भेजा जा रहा था, जिन्हें अमेरिका समर्थन दे रहा था।
 
यह एक ऐसा सौदा था जिसमें दुश्मन को हथियार बेचे जा रहे थे और पैसा कहीं और लगाया जा रहा था और इस पूरे सौदे का सबसे बड़ा बिचौलिया था अदनान खाशोगी। खाशोगी ने बैंक ऑफ क्रेडिट एंड कॉमर्स इंटरनेशनल (BCCI), जो बाद में दुनिया के सबसे बड़े बैंकिंग घोटालों का केंद्र बना, से उधार लेकर ईरान के लिए हथियार खरीदे। इस खेल में खाशोगी अकेला नहीं था। उसके तार अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) से भी जुड़े थे। वह सीआईए के बड़े अधिकारियों और एजेंटों का दोस्त था और उनके साथ मिलकर काम करता था। 
​​विक्रम सूद अपनी किताब 'The Unending Game' में बताते हैं कि खाशोगी का नेटवर्क सिर्फ सीआईए तक ही नहीं, बल्कि 'सफारी क्लब' जैसे गुप्त खुफिया गठबंधनों तक फैला हुआ था। 'सफारी क्लब' फ्रांस, मिस्र, ईरान, मोरक्को और सऊदी अरब की खुफिया एजेंसियों का एक सीक्रेट एलायंस था, जिसे अमेरिका का भी समर्थन हासिल था। 

चंद्रास्वामी: एक तांत्रिक, जिसके दरबार में प्रधानमंत्री भी झुकते थे

 

अगर अदनान खाशोगी इस कहानी का एक सिरा था तो दूसरा सिरा भारत में था। दिल्ली के एक आश्रम में और इस सिरे का नाम था चंद्रास्वामी। चंद्रास्वामी के पिता राजस्थान से थे, जो बाद में हैदराबाद आकर बस गए और साहूकारी का काम करने लगे लेकिन बेटे नेमी चंद का मन बही-खातों में नहीं, तंत्र-मंत्र में लगता था। कम उम्र में ही घर छोड़ दिया। कहते हैं बिहार के जंगलों में साधना की और ‘सिद्धि’ हासिल कर ली।
 
आगे चलकर कई बड़े नाम चंद्रास्वामी के भक्तों की लिस्ट में जुड़े। बहरीन के शेख ईसा बिन सलमान अल खलीफा, ब्रुनेई के सुल्तान और हॉलीवुड की मशहूर एक्ट्रेस एलिजाबेथ टेलर। यहां तक कि ब्रिटेन की 'आयरन लेडी' कही जाने वाली प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर भी उससे सलाह लेती थीं। कहते हैं कि चंद्रास्वामी ने थैचर से कहा कि वह एक खास लाल रंग की पोशाक पहनें तो चार साल के अंदर प्रधानमंत्री बन जाएंगी।

 

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भारत में तो चंद्रास्वामी की तूती बोलती ही थी। जब पी. वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो कहा जाता था कि सरकार दिल्ली से नहीं, चंद्रास्वामी के आश्रम से चलती है। 15 अक्टूबर 1995 को इंडिया टुडे में छपी चारू लता जोशी की रिपोर्ट के अनुसार, चंद्रास्वामी राव को आध्यात्मिक सलाह देता था। चंद्रशेखर की सरकार में उसे 'राष्ट्रीय महत्व' का दर्जा मिला हुआ था लेकिन इस आध्यात्मिक गुरु के कारनामे सिर्फ पूजा-पाठ तक सीमित नहीं थे। उसका नाम भारत के सबसे बड़े राजनीतिक और वित्तीय घोटालों में आया।

 

एक घोटाला था लखूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला। लंदन में रहने वाले एक भारतीय कारोबारी ने आरोप लगाया कि चंद्रास्वामी ने प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का नाम लेकर उससे एक लाख डॉलर ठग लिए। वादा किया था कि भारत में सरकारी ठेका दिलवाएंगे। सालों तक केस चला। राव और चंद्रास्वामी, दोनों बाद में बरी हो गए।

 

दूसरा और उससे भी बड़ा मामला था सेंट किट्स फर्जीवाड़ा। 1989 में जब वी. पी. सिंह, राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स को लेकर मोर्चा खोले हुए थे, तब कुछ अखबारों में खबर छपी। खबर यह कि वी.पी. सिंह के बेटे अजेय सिंह का सेंट किट्स नाम के एक छोटे से देश के बैंक में सीक्रेट अकाउंट है। मकसद था वी.पी. सिंह को चुनाव से पहले बदनाम करना। बाद में यह पूरा मामला फर्जी निकला। सीबीआई ने जांच की तो पता चला कि इस साजिश का मास्टरमाइंड कोई और नहीं, चंद्रास्वामी ही था।

 

चंद्रास्वामी का रसूख देखिए कि जब सीबीआई के अफसर एन.के. सिंह उससे पूछताछ करने वाले थे, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने सीबीआई डायरेक्टर को फोन करके कहा, 'तुम उसे क्यों बुला रहे हो? वह राष्ट्रीय महत्व का काम कर रहा है।' कुछ ही दिनों बाद उस अफसर का ट्रांसफर हो गया।

पामेला बोर्डेस: मिस इंडिया

 

इस कहानी की तीसरी और सबसे ग्लैमरस कड़ी थी पामेला बोर्डेस। पैदाइशी नाम, पामेला चौधरी सिंह। दिल्ली में एक फौजी परिवार में पैदा हुईं। पिता मेजर महेंद्र सिंह 1962 की भारत-चीन जंग में शहीद हो गए। पामेला की परवरिश उनकी मां ने की लेकिन दोनों के रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहे। दिलीप बोब, 15 अप्रैल 1989 के इंडिया टुडे अंक में अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, पामेला की मां उन पर बहुत सख्ती करती थीं, यहां तक कि एक बार उनकी पिटाई 'डॉग चेन' से भी की थी। शायद इसी घुटन से निकलने के लिए पामेला ने ऊंची उड़ान के सपने देखे।

 

उनकी पढ़ाई अच्छे स्कूलों में हुई, दिल्ली के लेडी श्री राम कॉलेज भी गईं लेकिन उनका मन किताबों से ज्यादा पार्टियों और ऊंची सोहबतों में लगता था। वह खूबसूरत थीं, बिंदास थीं और बेहद महत्वाकांक्षी। उन्हें पता था कि शोहरत और दौलत की दुनिया का रास्ता मॉडलिंग से होकर गुजरता है। उन्होंने मॉडलिंग शुरू की और 1982 में 'मिस इंडिया' का ताज अपने नाम कर लिया। इसके बाद उन्होंने मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व किया। अब उनके लिए दुनिया के दरवाजे खुल चुके थे। भारत उन्हें छोटा लगने लगा। जेब में सिर्फ 500 डॉलर लेकर वह न्यूयॉर्क पहुंच गईं। न्यूयॉर्क में उनकी मुलाकात हुई सोशलाइट बीना रमानी से। बीना के जरिए पामेला उस दुनिया में पहुंचीं, जिसका उन्होंने हमेशा सपना देखा था। 

 

बीना रमानी याद करती हैं, 'न्यूयॉर्क आने के तीन हफ्तों के अंदर वह मुझे उन तेल के खरबपतियों के प्राइवेट जेट में पार्टियों के लिए बुला रही थी, जिनसे मैंने ही उसे मिलवाया था।' इन खरबपतियों में एक थे ब्रुनेई के सुल्तान और दूसरे थे सऊदी अरब के हथियार सौदागर, अदनान खाशोगी। इंडिया टुडे की रिपोर्ट बताती है कि यहीं पर कहानी के तीनों सिरे जुड़ जाते हैं। पामेला, खाशोगी के इतने करीब कैसे पहुंचीं? दरअसल, पामेला को खाशोगी से मिलवाने वाले शख्स वही विवादास्पद भारतीय तांत्रिक चंद्रास्वामी थे, जो खाशोगी के 'गुरु' थे। जल्द ही पामेला, खाशोगी के आलीशान अपार्टमेंट 'ओलिंपिक टावर्स' में और उनकी मशहूर नाव 'नबीला' पर नजर आने लगीं।

 

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1984 में पामेला लंदन शिफ्ट हो गईं। यहां उन्होंने ब्रिटेन के सबसे ताकतवर और अमीर लोगों के बीच अपनी जगह बना ली लेकिन 1989 में एक ऐसा स्कैंडल सामने आया जिसने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया। लंदन के टैब्लॉयड अखबार 'न्यूज ऑफ द वर्ल्ड' ने हेडलाइन छापी - 'कॉल गर्ल वर्क्स इन कॉमन्स' यानी 'एक वैश्या ब्रिटिश संसद में काम करती है।' वह लड़की पामेला बोर्डेस थी। पता चला कि पामेला के पास ब्रिटिश संसद 'हाउस ऑफ कॉमन्स' का सिक्योरिटी पास था, जो उसे दो सांसदों, डेविड शॉ और हेनरी बेलिंघम ने दिलवाया था। वह उनके लिए एक 'रिसर्च असिस्टेंट' के तौर पर काम कर रही थीं।

 

यह सिर्फ एक सेक्स स्कैंडल नहीं था। यह एक सुरक्षा का भी मामला बन गया क्योंकि पामेला के दोस्तों की लिस्ट में सिर्फ सांसद या खाशोगी ही नहीं थे। उसका नाम लीबिया के एक बड़े खुफिया अफसर, कर्नल गद्दाफी के चचेरे भाई, अहमद गद्दाफ अल-दाइम से भी जुड़ा। उस दौर में ब्रिटेन और लीबिया के रिश्ते बेहद खराब थे। इस मामले के बाद अखबारों में पामेला की तुलना कुख्यात जासूस 'माता हारी' से होने लगी। मामला इतना बढ़ा कि पामेला को ब्रिटेन छोड़कर भागना पड़ा। छिपते हुए भी उन्होंने बयान दिए कि अगर वह अपना मुंह खोल देंगी तो सरकार गिर सकती है।

राजीव गांधी हत्याकांड से कनेक्शन  

 

तीनों मुख्य किरदारों के बारे में जान लेने के बाद अब जानते हैं कि यह कहानी राजीव गांधी हत्याकांड से कैसे जुड़ती है। चंद्रास्वामी और खाशोगी का यह गुरु-चेले का रिश्ता सिर्फ़ पर्दे के पीछे नहीं था। सबसे बड़ा उदाहरण 1991 में देखने को मिला जब अदनान खाशोगी अपने 'गुरु' के बुलावे पर भारत आया। हथियारों के इस बदनाम सौदागर के स्वागत में तब की चंद्रशेखर सरकार ने पलक-पांवड़े बिछा दिए। फरवरी 1991 के इंडिया टुडे अंक में हरिंदर बवेजा की रिपोर्ट बताती है।

 

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खाशोगी की मुलाक़ात प्रधानमंत्री से उनके भोंडसी फार्महाउस पर हुई। उसके सम्मान में बीजेपी के सांसद डॉ. जे. के. जैन ने एक आलीशान दावत रखी, जिसमें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर खुद एक घंटे तक मौजूद रहे। इस दावत में फ़ारूक़ अब्दुल्ला और सुब्रमण्यन स्वामी जैसे बड़े नेता भी शामिल हुए। हालांकि, खाशोगी की छवि को देखते हुए बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस दावत से किनारा कर लिया था। यह यात्रा चंद्रास्वामी और खाशोगी के गठजोड़ का खुला प्रदर्शन थी, जहां एक तांत्रिक अपने हथियार-सौदागर 'शिष्य' के लिए भारत के प्रधानमंत्री का दरबार सजा रहा था।

 

यह रिश्ता कितना गहरा था, इसका अंदाजा तब लगा जब भारत के आयकर विभाग ने चंद्रास्वामी के आश्रम पर छापा मारा। वहां जांच अधिकारियों के हाथ कुछ ऐसे दस्तावेज लगे जिन्होंने सबको चौंका दिया। वह 11 मिलियन अमेरिकी डॉलर के भुगतान के असली ड्राफ्ट थे, जो अदनान खाशोगी को दिए जाने थे। एक और छापे में पता चला कि चंद्रास्वामी के सहयोगी 'मामाजी' ने एक गुमनाम बैंक से 5 मिलियन डॉलर खाशोगी के खाते में ट्रांसफर किए थे। यह साफ था कि चंद्रास्वामी सिर्फ खाशोगी का गुरु नहीं, बल्कि उसका एक अहम फाइनेंसर और राजदार भी था। चंद्रास्वामी ने अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर खाशोगी को भारत के सत्ता के गलियारों तक पहुंचाया तो खाशोगी ने अपने गुरु को दौलत और अंतरराष्ट्रीय रुतबा दिलाया। इनके उलझे हुए तारों का सबसे बड़ा उदाहरण था सेंट किट्स फर्जीवाड़ा। किस्सा 1989 का है। उस वक्त वी. पी. सिंह, बोफोर्स घोटाले को लेकर राजीव गांधी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरे थे। तभी कुछ भारतीय अखबारों में एक खबर छपी। खबर यह थी कि वी. पी. सिंह के बेटे अजेय सिंह का कैरेबियाई द्वीप सेंट किट्स के एक बैंक, फर्स्ट ट्रस्ट कॉरपोरेशन लिमिटेड में एक गुप्त खाता (नंबर 29479) है। आरोप लगाया गया कि इस खाते में मोटी रकम जमा है और उसके असली लाभार्थी वी.पी. सिंह हैं। मकसद साफ था - चुनाव से ठीक पहले वी.पी. सिंह की ईमानदार छवि को दागदार करना।

 

बाद में जब जांच हुई तो पूरा मामला फर्जी निकला। सीबीआई ने इस साजिश के लिए चंद्रास्वामी और उसके सहयोगियों पर आपराधिक साजिश और जालसाजी का मामला दर्ज किया। जांच में पता चला कि इस फर्जीवाड़े के पीछे चंद्रास्वामी का ही दिमाग था। इस कहानी में खाशोगी का नाम कैसे आया? सेंट किट्स केस की जांच करने वाले CBI अफ़सर  N K सिंह अपनी बायोग्राफी में बताते हैं कि नरसिम्हा राव और चंद्रास्वामी के फ़ोन बिल्स से पता चला कि  जिस वक्त न्यूयॉर्क में इस साजिश को अंजाम दिया जा रहा था, ठीक उसी दौरान भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री और इस मामले में शामिल पी. वी. नरसिम्हा राव, फोन पर अदनान खाशोगी से बात कर रहे थे।
 
NK सिंह इस बातचीत का इग्ज़ैक्ट समय भी बताते हैं, 
3 अक्टूबर 1989- शाम 11 बजकर 6 मिनट 
और 4 अक्टूबर -  सुबह 9 बजकर 42 मिनट 
 
इस स्कैंडल के दो साल बाद एक बड़ी घटना हुई। 

21 मई, 1991, यह तारीख भारत के इतिहास में दर्ज है। इसी दिन श्रीपेरंबदूर में एक आत्मघाती हमले में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी। जांच में यह साफ हो गया कि हत्या को अंजाम लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी लिट्टे (LTTE) ने दिया था लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। असली सवाल यह था कि लिट्टे के पास इतने बड़े हथियार और RDX आए कहां से? इस हत्याकांड की फंडिंग किसने की? क्या यह सिर्फ लिट्टे का काम था या इसके पीछे कोई बड़ी अंतरराष्ट्रीय साजिश थी? इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए जस्टिस एम. सी. जैन की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया गया। जैन कमीशन की रिपोर्ट और भारत की खुफिया एजेंसी R&AW की जांच ने जब परतें खोलनी शुरू कीं, तो अदनान खाशोगी और चंद्रास्वामी की यह खतरनाक जोड़ी फिर से सुर्खियों में आ गई। 

 

आउटलुक मैगज़ीन में छपी अजित पिल्लई की रिपोर्ट के अनुसार, कड़ियां कैसे जुड़ीं, इसे सिलसिलेवार समझिए:

लिट्टे का हथियार सप्लायर: लिट्टे के लिए दुनियाभर से हथियार खरीदने का काम उसका एक खास आदमी करता था, जिसका नाम था कुमारन पद्मनाभन जिसे के. पी. के नाम से भी जाना जाता था। वह लिट्टे का मुख्य हथियार खरीददार था।
 
खाशोगी का कनेक्शन: जांच एजेंसियों ने जब के.पी. के वित्तीय लेन-देन की पड़ताल की तो वे हैरान रह गए। पद्मनाभन के स्विस बैंक खातों और अदनान खाशोगी के खातों के बीच पैसों का सीधा लेन-देन हुआ था। यानी, लिट्टे को हथियार सप्लाई करने वाले के तार दुनिया के सबसे बड़े हथियार सौदागर अदनान खाशोगी से जुड़ रहे थे। जैन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा कि 'कुमारन पद्मनाभन और खाशोगी के बीच सांठगांठ के सबूत हैं।'
 
चंद्रास्वामी की भूमिका: अब सवाल यह था कि खाशोगी का इस मामले में क्या रोल था? यहीं पर चंद्रास्वामी की एंट्री होती है। जैन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में अदनान खाशोगी को चंद्रास्वामी का करीबी सहयोगी बताया। इतना ही नहीं, कमीशन ने यह भी नोट किया कि चंद्रास्वामी खुद लंदन के एक बैंक के जरिए लिट्टे को फाइनेंस करने के लिए जाने जाते थे।
 
पूरी तस्वीर यह बनती है: लिट्टे को हथियार चाहिए थे। हथियार खरीदने वाला मुख्य आदमी, पद्मनाभन, कथित तौर पर अदनान खाशोगी के संपर्क में था और खाशोगी, चंद्रास्वामी का करीबी सहयोगी और 'चेला' था। चंद्रास्वामी पर खुद भी लिट्टे को फाइनेंस करने के आरोप थे। जैन कमीशन ने इस तिकड़ी के रोल को इतनी गंभीरता से लिया कि उसने अपनी रिपोर्ट का एक पूरा वॉल्यूम अकेले चंद्रास्वामी की भूमिका पर समर्पित कर दिया। एक और किस्सा इस शक को और गहरा करता है। आउटलुक पत्रिका में अजीत पिल्लई की रिपोर्ट के मुताबिक, जिस दिन राजीव गांधी की हत्या हुई, चंद्रास्वामी कथित तौर पर बहुत खुश था। डाकू से नेता बने 'बबलू' श्रीवास्तव ने जैन कमीशन के सामने गवाही दी कि राजीव गांधी की हत्या की खबर सुनकर चंद्रास्वामी ने अपने आश्रम में जश्न मनाया था और कहा था, 'अब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनेंगे और सब ठीक हो जाएगा।'


आखिरी दौर

 

हर कहानी का एक अंत होता है। चंद्रास्वामी, खाशोगी और पामेला की कहानी में भी यही हुआ। 80 का दशक उनका था लेकिन 90 का दशक आते-आते उनकी सल्तनतें बिखरने लगीं। अदनान खाशोगी, जो कभी दुनिया का सबसे अमीर आदमी कहलाता था, उसे भी पैसों की तंगी होने लगी। सऊदी अरब में तेल की कीमतों में गिरावट का असर उसके धंधे पर भी पड़ा लेकिन सबसे बड़ा झटका लगा 1988 में जब उसे स्विट्जरलैंड में गिरफ्तार कर लिया गया। आरोप था कि उसने फिलीपींस के राष्ट्रपति फर्डिनेंड मार्कोस और उनकी पत्नी इमेल्डा के साथ मिलकर करोड़ों डॉलर की हेराफेरी की है। उसे अमेरिका प्रत्यर्पित किया गया। हालांकि, वह 1990 में इस मामले से बरी हो गया लेकिन तब तक उसका रुतबा और उसकी साख मिट्टी में मिल चुकी थी।

 

उसकी पहचान बन चुकी आलीशान नाव 'नबीला' बिक गई। पहले उसे ब्रुनेई के सुल्तान ने खरीदा और फिर उसे खरीदा डोनाल्ड ट्रंप ने, जो बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने। खाशोगी के साम्राज्य का सूरज अब डूब रहा था। 6 जून 2017 को, 81 साल की उम्र में पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अदनान खाशोगी ने लंदन के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली।

 

खाशोगी की तरह ही उसके 'गुरु' चंद्रास्वामी का सूरज भी अस्त हो रहा था। भारत में सत्ता बदल चुकी थी। उसके सबसे बड़े संरक्षक, पी.वी. नरसिम्हा राव, राजनीति के हाशिये पर चले गए थे। चंद्रास्वामी अब कानूनी मुकदमों में बुरी तरह फंस चुका था। धोखाधड़ी, फेरा उल्लंघन, और न जाने कितने आरोप। जिस आश्रम में कभी प्रधानमंत्रियों की कतार लगती थी, वहां अब सिर्फ सन्नाटा था। एक के बाद एक अदालती फैसलों ने उसकी कमर तोड़ दी। सुप्रीम कोर्ट ने उस पर 9 करोड़ का जुर्माना लगाया और फिर शरीर ने भी साथ छोड़ दिया।

 

23 मई 2017 को कई अंगों के फेल हो जाने की वजह से दिल्ली के अपोलो अस्पताल में चंद्रास्वामी की मौत हो गई। अजीब इत्तेफाक था। उसका सबसे मशहूर 'चेला' अदनान खाशोगी भी उसके ठीक 14 दिन बाद दुनिया से रुखसत हो गया और इस कहानी की तीसरी कड़ी, पामेला बोर्डेस? उसने एक अलग रास्ता चुना। 1989 के भूचाल के बाद वह गुमनामी में चली गईं। उन्होंने अपना सरनेम 'बोर्डेस' हटा दिया और अपने असली नाम, पामेला सिंह के साथ एक नई जिंदगी शुरू की। वह एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर बन गईं। उनका काम लंदन की रॉयल फेस्टिवल हॉल जैसी जगहों पर नुमाइश के लिए रखा गया। 2010 में खबर आई कि वह भारत के गोवा में एक शांत और गुमनाम जिंदगी जी रही हैं, जहां उनके नए दोस्तों को शायद ही पता हो कि वह कभी ब्रिटेन की सबसे बड़ी सेंसेशन 'पैम' बोर्डेस थीं।