साल 2024 के विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे को करारा झटका लगा। दूसरी तरफ उनके चचेरे भाई राज ठाकरे 19 साल से एक पार्टी चला रहे हैं लेकिन उन्हें कोई बड़ी कामयाबी हाथ नहीं लगी है। अब अचानक ऐसा लग रहा है जैसे दोनों के हाथ एक फॉर्मूला लग गया है। वह फॉर्मूला है- 'मराठा मानुष का'। शिवसेना के शुरुआती दिनों को याद करें तो उसकी पहचान ही यही रही है। अब लगभग सबकुछ गंवा चुके ठाकरे बंधु एक बार फिर मराठी भाषा, मराठा मानुष की अस्मिता और मराठी एकता के नाम पर अपना राजनीतिक भविष्य देखने लगे हैं। शायद यह आखिरी उम्मीद ही है जिसके भरोसे दोनों भाई सारे गिले-शिकवे भुलाकर लगभग दो दशक के बाद साथ आने को तैयार हैं।
हाल के दिनों में पहले तो शिवसेना (उद्धव बाला साहब ठाकरे) और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (MNS) ने साथ आने के संकेत दिए और अब 5 जुलाई को संयुक्त रैली की तैयारी है। इसके अलावा, यह भी देखा जा रहा है कि मराठी भाषा को लेकर जारी चर्चा में दोनों तरफ से एक जैसी बातें रखी जा रही हैं। कई जगहों पर भाषा के नाम पर लोगों से मारपीट की घटनाएं भी सामने आई हैं, जो 2005 के उस दौर की यादें ताजा कर रही हैं।
महाराष्ट्र में बना नया समीकरण
महाराष्ट्र में ऐसा समीकरण बना है, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता था। दरअसल, महाराष्ट्र की राजनीति के सूरमा रहे बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे और उनके भतीजे राज ठाकरे अपनी खोई हुई सियासी जमीन को वापस पाने के लिए 19 साल बाद एक हो गए हैं। दोनों भाइयों के साथ आने से सबसे ज्यादा परेशानी एकनाथ शिंदे और बीजेपी को हुई है। दरअसल, एक आदेश में कहा गया था कि महाराष्ट्र में कक्षा 1 से 5वीं तक तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी को अनिवार्य किया जाएगा। इस फैसले के खिलाफ उद्धव-राज ठाकरे ने तनिक भी देर ना करते हुए आवाज उठा दी और इसके विरोध में 5 जुलाई को राज्य में एक बड़ा आंदोलन करने की चेतावनी जारी कर दी।
सरकार के इस आदेश के खिलाफ विपक्ष लगातार विरोध कर रहा था। इसके बाद एकएक सीएम देवेंद्र फडणवीस और दोनों डिप्टी सीएम अजित पवार और एकनाश शिंदे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हिंदी को अनिवार्य करने के अपने फैसले को वापस ले लिया। साथ ही सरकार ने तीन भाषा नीति को लेकर शिक्षाविद नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में कमेटी बना दी।
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उद्धव-राज ठाकरे को मिली संजीवनी
मगर, महाराष्ट्र में तीन भाषा नीति ने उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूटीबी) और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को संजीवनी दे दी है। दोनों नेता मराठी भाषा और मराठी अस्मिता को लेकर राज्य की सियासत को लामबंद करने लगे हैं औ मराठी भाषा की बात करते हुए दोनों पार्टी अपने चिर-परिचित अंदाज में राजनीति करने लगे हैं। राज ठाकरे की एमएनएस के कार्यकर्ता लोगों को मराठी भाषा ना बोलने की वजह से हिंसा करते हुए पीट रहे हैं।
MNS कार्यकर्ताओं ने मराठी न बोलने पर पीटा
बता दें कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के सात कार्यकर्ताओं ने मुंबई के मीरा रोड के एक दुकानदार को सिर्फ मराठी में बात न करने पर बेरहमी से पीटा, इस हमले का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर किया गया। 28 जून को एमएनएस कार्यकर्ताओं ने मीरा रोड पर बालाजी होटल के पास स्थित जोधपुर स्वीट्स के मालिक के साथ मराठी बोलने से मना करने पर मारपीट की थी।
2005 वाला दौर वापस आ रहा है?
ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या ठाकरे परिवार महाराष्ट्र में 2005 वाला दौर वापस ला रहा है? क्योंकि उस समय भी अविभाजित शिवसेना और 2006 में बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने उत्तर भारतीयों को महाराष्ट्र और मुंबई में ना घुसने देने की मुहिम चलाई थी, जिसके तहत दोनों पार्टियां मराठी अस्मिता के नाम पर वहां की नौकरियों और संसाधनों पर मराठी लोगों के हक की बात कर रही थीं। साथ ही दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता मराठी भाषा ना बोलने पर उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट करते थे।
मराठी में साइनबोर्ड लगाने का हुक्म
साल 2008 में एमएनएस ने राज्य के सभी दुकानदारों को अपनी दुकान के आगे मराठी में साइनबोर्ड लगाने का हुक्म दिया था। वहीं, 2017 में उसके कार्यकर्ताओं ने कई गुजराती दुकानों के साइनबोर्ड जबरन हटा दिए थे और दावा किया था कि वे मराठी भाषा का अपमान कर रहे हैं।
यही नहीं इसी दौर में शिव सेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों मिलकर स्थानीय मराठी वोटों का समर्थन पाने की खातिर उत्तर प्रदेश, बिहार और दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों से आए लोगों को निशाने पर लेती थीं। कार्यकर्ता मुंबई में महापर्व छठ मनाने को लेकर भी विरोध करते थे।
2008 में छात्रों के साथ मारपीट
अक्टूबर 2008 में मुंबई में रेलवे की परीक्षा देने के लिए सैकड़ों छात्र उत्तर प्रदेश और बिहार से पहुंचे थे। तब राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने इन छात्रों का विरोध किया और कुछ ही समय में इस विरोध ने हिंसक रूप ले लिया था। कई छात्रों को साथ मारपीट हुई थी। इस हिंसा का असर तब महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों तक भी पहुंची थी।
शिव सेना की पुरानी राजनीति
इसके अलावा बाल ठाकरे की राजनीति की शुरुआत महाराष्ट्र में दक्षिण भारतीयों के विरोध से शुरू हुई थी। साल 1990 के दशक के आखिर में इस राजनीति के केंद्र में मराठी बनाम उत्तर भारतीय का नेरैटिव आमने आ गया था। उनके दौर में यूपी-बिहार के लोगों को नकारात्मक तरीके से 'भैया' कहकर बुलाया जाने लगा था। मीरा रोड़ पर दुकानदार को मराठी ना बोलने की वजह से पीटकर एक बार फिर से एमएनएस वही 2005 वाली सियासत करने की कोशिश कर रही है।
दरअसल, एक बड़ी हिंदी भाषी आबादी होने के बावजूद महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर विरोध को हवा मिलती रही है। महाराष्ट्र में ये हिंदी विरोध आज की बात नहीं है बल्कि ये पचास के दशक से चला आ रहा है जो सियासी वजहों से रह-रहकर उफान मारता रहा है। इसकी वजह मराठी पहचान पर जोर है, जिसको हवा देकर शिव सेना (यूटीबी) और एमएनएस अपनी कोई हुई जमीन वापस पा सकते हैं और एकनाथ शिंदे की राजनीति से पार पा सकते हैं।
महाराष्ट्र की सियासत पिछले तीन सालों से इतनी बार बदल चुकी है कि उसने पूरे देश को चौंका दिया है। अभी भी राज्य की सियासत आए दिन करवट ले रही है, जिससे अंदाजा लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र में कई और बदलाव देखने को मिल सकते हैं। साल 2019 में महा विकास अघाड़ी (MVA) के बैनर तले उद्धव ठाकरे का कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ मिलकर महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना हो या फिर डेढ़ साल के बाद एमवीए की सरकार गिराकर रातों-रात देवेंद्र फडणवीस को राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाना हो और फिर 72 घंटे के अंदर ही अजित पवार के समर्थन वापसी के बाद फडणवीस की सरकार का गिर जाना हो। यह नाटकीय सियासी घटनाक्रम पूरे देश ने देखा।
इसके बाद देवेंद्र फडणवीस की सरकार जाने के बाद जून 2022 में शिवसेना में हुई बगावत के बाद पार्टी में हुए दो फाड़ हो गया था, इसके बाद राज्य में एकनाथ शिंदे बड़े राजनेता के तौर पर उभरे और फिर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। शिंदे की बगावत के बाद बाल ठाकरे की बनाई हुई शिवसेना को उद्धव ठाकरे के हाथ से एकनाथ शिंदे ने पार्टी और सिंबल छीन लिया। साथ ही शिंदे ने उद्धव ठाकरे के 40 विधायक और आधा दर्जन से ज्यादा सांसद भी अपने पाले में कर लिए।
मूल पार्टी को वापस पाने की लड़ाई
इसके बाद अपनी मूल पार्टी को वापस पाने की लड़ाई उद्धव ठाकरे लड़ते रहे लेकिन हाथ कुछ नहीं आया। समय बीतता गया और फिर 2024 में एक बार फिर से महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव आ गया। इसमें चर्चाएं उठने लगीं कि चुनाव में यह तय हो जाएगा कि आखिर असली शिवसैनिक है- एकनाश शिंदे या फिर उद्धव ठाकरे? चुनाव हुए। जब चुनाव के नतीजे सामने आए तो इसमें एकनाथ शिंदे ने बाजी मारते हुए 57 सीटों पर जीत हासिल की जबकि उद्धव ठाकरे को महज 20 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। चुनाव में मिली हार के बाद ठाकरे गुट में हताशा घर कर गई।
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उद्धव ठाकरे को भविष्य की चिंता
उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी शिवसेना (UTB) को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी। पार्टी को लगने लगा कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो उद्धव ठाकरे मुंबई के बीएमसी चुनाव भी हार जाएंगे। इससे बचने के लिए उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी को नए समीकरण और नए सियासी ताने-बाने की जरूरत महसूस होने लगी है। उद्धव ठाकरे की इसी जरूरत की वजह से आज महाराष्ट्र में नए सियासी समीकरण बन गए हैं।