उत्तर प्रदेश से एक ऐसा मामला सामने आया है जिससे न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा और बढ़ जाएगा। शुक्रवार को उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी कि जिस व्यक्ति को जमानत मिलने के बाद जेल से रिहा करने में करीब एक महीने की देरी हुई थी, उसे पांच लाख रुपये का मुआवजा दे दिया गया है। सप्रीम कोर्ट ने बुधवार को उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए गाजियाबाद जेल में बंद एक कैदी को जमानत मिलने के बावजूद 28 दिन तक जेल में रखने के लिए 5 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा देने का आदेश दिया था। कोर्ट के इसी आदेश पर सरकार ने उस व्यक्ति को 5 लाख रुपये का मुआवजा दे दिया है। 

 

राज्य के धर्मांतरण रोधी कानून के प्रावधानों के तहत दर्ज मामले में आरोपी को सुप्रीम कोर्ट ने 29 अप्रैल को जमानत दे दी थी लेकिन उसे 24 जून को गाजियाबाद जिला जेल से रिहा किया गया। सु्प्रीम कोर्ट ने रिहाई में देरी के लिए 25 जून को राज्य के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए पांच लाख रुपये का मुआवजा दिए जाने का आदेश दिया था। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को इस मामले में जांच करने का आदेश भी दिया और सरकार से कहा कि अगर इस मामले में किसी अधिकारी की गलती पाई जाए तो जुर्माने की राशि उससे वसूली जाए। 

 

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कोर्ट ने लगाई फटकार

जिस व्यक्ति को बेल मिलने के बाद भी जेल में रखा गया उसे सुप्रीम कोर्ट से 29 अप्रैल को जमानत मिल गई थी। जिसके बाद 27 मई को गाजियाबाद की एक निचली अदालत ने उसे रिहा करने का आदेश जारी किया। सप्रीम कोर्ट को 25 जून को जब यह बताया गया कि उस आरोपी को एक दिन पहले ही रिहा किया गया है तो कोर्ट ने कहा था कि स्वतंत्रता संविधान में दिया गया एक 'बहुत मूल्यवान' अधिकार है। कोर्ट ने कहा कि एक मामूली सी बात पर व्यक्ति की स्वतंत्रता कम से कम 28 दिन के लिए छिन गई।

रिहा करने में क्यों हुई थी देरी?

उत्तर प्रदेश सरकार की वकील गरिमा प्रसाद ने देरी की वजह बताते हुए कहा कि 29 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कैदी ने 27 मई को बेल बोंड और श्योरिटी भरी। निचली अदालत से 27 मई को रिहाई का आदेश जारी हुआ था लेकिन इस आदेश में कानून की एक उप धारा का उल्लेख नहीं था। 28 मई को जेलर ने निचली अदालत से आदेश में संशोधन का अनुरोध किया। निचली अदालत ने ऐसा करने में देरी की और इस वजह से रिहा करने में देरी हुई। वकील के इन तर्कों से जस्टिस के वी विश्वनाथन और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच संतुष्ट नहीं हुई। 

 

वकील ने यह भी कहा कि रिलीज ऑर्डर में लिखी कानून की धाराओं का मिलान कस्टडी ऑर्डर में लिखी धाराओं से करने का आदेश इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2012 में दिया था और इसी का पालन हर जेल अधिकारी करता है। इस पर जजों ने कहा कि इस तरह तकनीकी आधार पर किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित नहीं किया जा सकता। हाई कोर्ट ने इस तरह की गैरजरूरी सख्ती के लिए नहीं कहा था।

 

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पूरा मामला क्या है?

आफताब नाम के व्यक्ति पर 3 जनवरी 2024 को गाजियाबाद के वेव सिटी थाने में नाबालिग लड़की के अपहरण और उत्तर प्रदेश अवैध धर्मांतरण निषेध कानून की धाराओं के तहत केस दर्ज हुआ। 29 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने उसकी जमानत का आदेश दिया लेकिन उसकी रिहाई नहीं हुई। आफताब ने दोबारा याचिका दाखिल कर बताया था कि जेलर ने उसे तकनीकी कारणों से रिहा करने से मना कर दिया है। इसी पर सुप्रीम कोर्ट ने उस आरोपी को 5 लाख का मुआवजा देने का ऐलान किया।