उड़ीसा हाई कोर्ट ने हाल ही में रेल विभाग को साल 2006 में रेल यात्रा के दौरान लगी घातक चोटों के कारण दम तोड़ने वाले एक मृतक के परिजनों को मुआवज़ा देने का निर्देश दिया। कोर्ट ने मुआवजा देने का निर्देश देते हुए कहा, 'लोगों के लाभ के लिए बनाए गए कानून को इस तरह से लागू किया जाना चाहिए कि वे लोगों को सहायता पहुंचाएं न कि उन्हें नुकसान पहुंचाएं।' कोर्ट ने आवेदक को 9 लाख 23 हजार रुपये का मुआवजा देने को कहा।
डॉ. जस्टिस संजीव कुमार पाणिग्रही ने इस घटना को लेकर रेलवे की उदासीन प्रतिक्रिया की आलोचना की, जिसके कारण परिजन की मौत से दुखी परिवार को कानूनी रूप से आर्थिक सहायता पाने के लिए हकदार परिवार को दर-दर भटकना पड़ा।
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कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस संजीव कुमार ने कहा, 'जब रेल यात्रा के दौरान किसी यात्री की मृत्यु हो जाती है, तो रेलवे का पहला दायित्व दुखी परिवार के प्रति संवेदना और सहायता प्रकट करना होता है। ऐसे परिवार को लंबी मुकदमेबाजी में उलझाने के लिए मजबूर करना इस गंभीर दायित्व से मुंह मोड़ने के समान है। यह याद रखना चाहिए कि मरने वाला व्यक्ति को बाहरी व्यक्ति नहीं था; वह भारत का एक नागरिक था जो यात्रा के अपने वैध अधिकार का प्रयोग कर रहा था। इसलिए, उसके परिवार को कानून का संरक्षण मिलना चाहिए था न कि कानूनी बाधा का सामना करना चाहिए था।।'
दरअसल, सर्वेश्वर स्वैन (मृतक) 25.12.2006 को नीलाचल एक्सप्रेस से इलाहाबाद से कटक जा रहे थे। यात्रा के दौरान, अचानक झटका लगने से वे डिब्बे के अंदर ही गिर पड़े और बेहोश हो गए। ऐसा कहा जाता है कि गिरने की वजह से उनके दिमाग और शरीर में गंभीर चोटें आईं।
ट्रिब्यूनल ने क्या फैसला दिया?
हालांकि, उन्हें तुरंत पास के ही सरकारी अस्पताल ले जाया गया, फिर भी उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ और 27.12.2006 को उनकी मौत हो गई। मृतक के कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते, अपीलकर्ता ने 27.8.2007 को एक दावा याचिका दायर की जिसमें 12% प्रति वर्ष की दर से लागत और ब्याज सहित 4,00,000/- रुपये का मुआवजा मांगा। अब कोर्ट ने 9 लाख 23 हजार रुपये का मुआवजा देने को कहा है।
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रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल ने 12.12.2014 को फैसला सुनाते हुए इस आधार पर दावा याचिका खारिज कर दी कि व्यक्ति की मौत हार्ट अटैक के कारण हुई। इसके बाद अपीलकर्ता ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाई कोर्ट ने पोस्ट मॉर्टम की रिपोर्ट के आधार पर पाया कि मृत्यु का कारण सदमा और खून का बहना था, और हार्ट अटैक की संभावना को खारिज कर दिया।
कोर्ट ने किया था खारिज
इसके बाद हाई कोर्ट ने ट्रिब्यूनल के फैसले को खारिज कर दिया और मामले को नए सिरे से निर्णय के लिए वापस भेज दिया, खासकर इस बात को लेकर कि क्या मौत की प्रकृति को देखते हुए आवेदन करने वाले मुआवज़ा पाने के हकदार हैं। हालांकि, ट्रिब्यूनल ने यह कहते हुए दावे को फिर से खारिज कर दिया कि यह घटना रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 123(सी)(2) के अंतर्गत नहीं आती है, जो केवल 'यात्रियों से भरी ट्रेन से किसी यात्री के अचानक गिरने' को कवर करती है। इसने माना कि यह मामला ट्रेन से गिरने का नहीं, बल्कि ट्रेन के अंदर गिरने का मामला है।
इस प्रकार, एकमात्र इस सवाल पर विचार करना था कि क्या मृतक की मौत रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 123(सी) के अर्थ में किसी 'अप्रिय घटना' में हुई थी और यदि उत्तर हां में है, तो उसके परिजन किस राहत के हकदार हैं।
इसके लिए बाद में भारत संघ बनाम प्रभाकरण विजय कुमार (2008) मामले का हवाला दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि रेलवे अधिनियम के एक लाभकारी कानून होने के नाते, दावेदारों के पक्ष में उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। इस प्रकार, चाहे यात्री चलती ट्रेन से गिरा हो या ट्रेन में चढ़ते समय दुर्घटनाग्रस्त हुआ हो, उसे मुआवजे का हकदार माना जाना चाहिए।
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उदारता अपनाना जरूरी
जस्टिस पाणिग्रही का विचार था कि रेलवे सहित सार्वजनिक परिवहन के साधन पूरी तरह से 'सख्त दायित्व' के सिद्धांत के दायरे में आते हैं, जिसके अनुसार खतरनाक गतिविधियों में लगे उद्योगों/प्रतिष्ठानों को, लापरवाही के बावजूद, क्षति के जोखिम का भार अनिवार्य रूप से वहन करना आवश्यक है।
उन्होंने कहा, 'यदि किसी यात्री की मृत्यु किसी रेल दुर्घटना में होती है, जो कानून द्वारा मान्यता प्राप्त किसी अपवाद के कारण नहीं हुई है, तो स्ट्रिक्ट लायबिलिटी का पालन किया जाना चाहिए। रेल प्रशासन, जिसका परिवहन पर लगभग एकाधिकार है, लापरवाही न होने की दलीलों का सहारा नहीं ले सकता। उसे ही इसका भार वहन करना होगा, क्योंकि केवल उसी के पास ऐसे जोखिमों के विरुद्ध बीमा करने का अधिकार है। इससे पीड़ित को न्याय सुनिश्चित होता है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम में विश्वास बना रहता है।'
