एक जेल में कुछ कैदी बंद हैं। एक दिन जेल प्रशासन राज्य की सरकार से मांग करता है कि उसे ज्यादा स्टाफ चाहिए ताकि आंख की रोशनी गंवा चुके लोगों की देखभाल की जा सके। शायद यही वह मांग थी जिसने न सिर्फ बिहार के भागलपुर जिले के बाहर के लोगों बल्कि पूरे देश और दुनिया के लोगों को भी बता दिया कि 'अंखफोड़वा कांड' हुआ है। इसी कांड पर आधारित फिल्म 'गंगाजल' ने भागलपुर की इस क्रूर सच्चाई को फिल्मी तरीके से जनता के सामने रखा जिससे सबको पता चला कि आखिर हुआ क्या था। उस समय जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने इससे जुड़ी खबरें छापीं तो न सिर्फ खबरें निकालने वाले पत्रकारों को ही दोषी बताया गया बल्कि भागलपुर की आम जनता ने भी इसका विरोध किया। दरअसल, सच्चाई यह थी कि पुलिस द्वारा किया जा रहा यह 'त्वरित न्याय' जनता को पसंद आ रहा था और पुलिस अपने अधिकारियों के सामने यह कहकर पल्ला झाड़ ले रही थी कि यह काम जनता का है और इसी तरीके से कानून व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकता है।

 

खैर, मामला देश की मीडिया से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक पहुंचा और देश की संसद में भी इस तरह के कस्टोडियल अपराध को लेकर सवाल उठे। लोकसभा के स्पीकर बलराम जाखड़ ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की केंद्र सरकार से इस पर रिपोर्ट मांगी। बिहार सरकार ने कुछ नेताओं को लेकर एक कमेटी बना दी। हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के मंत्रिमंडल से सदस्यों को भी पुलिस की इस करतूत की जानकारी थी। सरकार की ओर से पुलिस को चेतावनी भी दी गई लेकिन पुलिस अधिकारियों ने यह कह दिया कि कानून व्यवस्था बनाए रखने का यह सबसे उपयुक्त तरीका है। वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिन्हा ने बीबीसी को बताया कि पुलिस अधिकारियों ने उनसे कहा कि यह काम पुलिस नहीं बल्कि आम जनता कर रही है। दरअसल, जनता सचमुच पुलिस के समर्थन में आ गई थी और उसका कहना था कि पुलिस बिल्कुल सही काम कर रही थी।

अखबारों ने खोली पुलिस की पोल

 

इंडियन एक्सप्रेस की पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, 6 अक्तूबर 1980 को बलजीत सिंह नाम के शख्स को थाने ले जाया गया। इसके बाद उसे एक ट्रक में ले जाया गया और वहां एक शख्स ने साइकिल की तीलियों से उसकी आंखों को छेद दिया और आंखों में तेजाब डाल दिया। बलजीत ने तब बताया था कि वहां मौजूद बाकी लोग उस शख्स को 'डॉक्टर साहब' कहकर बुला रहे थे। बलजीत सिंह का परिवार जैसे-तैसे उन्हें दिल्ली में एम्स लाया और यहीं पर पुष्टि हुई कि उनकी आंखें तेजाब की वजह से खराब हुईं। इससे पहले, पुलिस ने आंखें खराब होने की अलग-अलग वजहें बता रखी थीं।

 

इंडियन एक्सप्रेस के अलावा, टाइम्स ऑफ इंडिया और संडे मैगजीन ने भी ऐसी ही खबरें छापीं और कई अंडर ट्रायल कैदियों की आंखें फोड़े जाने का खुलासा किया। रिपोर्ट के मुताबिक, इस तरह की घटनाएं भागलपुर के पांच थानों में हुईं और कई महीनों तक जारी रहीं। दबाव बढ़ने के बाद इस मामले की जांच सीबीआई तक गई तो सीबीआई ने 10 पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाया। हालांकि, इसमें से 3 ही दोषी साबित हुए। उसमें से भी एक आरोपी को आगे चलकर राहत मिल गई। यानी इतने बड़े कांड में सिर्फ दो पुलिसकर्मी ही इस मामले में दोषी साबित हुए।

 

वरिष्ठ पत्रकार रहे अरुण शौरी ने अपनी आत्मकथा 'द कमिश्नर फॉर लॉस्ट कॉजेज' में इसके बारे में विस्तार से लिखा था। उस वक्त अरुण शौरी इंडियन एक्सप्रेस में ही थे। अरुण शौरी के मुताबिक, इंडियन एक्सप्रेस के अरुण सिन्हा इसी केस की जानकारी जुटाने भागलपुर जेल के सुपरिंटेंडेंट रहे बच्चू लाल दास से मिलने गए। हालांकि, बहुत हिचक के बाद ही बच्चू लाल दास ने उन्हें इसकी जानकारी दी। यह बच्चू लाल दास वही थे जिन्हें बाद में बिहार सरकार ने भागलपुर अंखफोड़वा कांड में लापरवाही के आरोप में सस्पेंड कर दिया था।

क्यों ऐसा न्याय चाहती थी जनता?

 

दरअसल, 80 के दशक में बिहार में अपराध चरम पर था। लूट, हत्या, किडनैपिंग और बलात्कार जैसे मामले बेहद आम थे। उदाहरण के लिए, 1979 में भागलपुर में 89 हत्याएं हुई थीं। अपराधियों का हौसला चरम पर था और पुलिस असहाय थी। कहा जाता है कि एक हाई प्रोफाइल शख्स के परिवार से किसी का अपहरण होने के बाद पुलिस पर दबाव बनता है और पुलिस एक्टिव होती है। कहा जाता है कि एक धर्मशाला में हुई मीटिंग में इस पर चर्चा हुई कि बार-बार अपराधी पकड़े जाते हैं और छूट जाते हैं, ऐसे में कुछ ऐसा किया जाए कि अपराधियों में डर पैदा हो। इसी के तहत नवगछिया थाने में लाए गए कुछ आरोपियों की आंखें फोड़ दी गईं।

 

यहीं से आंख फोड़ने को चर्चित और कथित रूप से लोकप्रिय तरीका मान लिया गया। खासकर उन आरोपियों के खिलाफ यही होता जिनका नाम पहले से कई अपराधों में आ चुका होता। जनता इस पर खुश होती और पुलिस की तारीफ करती कि यही सही तरीका है। इस तरह यह सिलसिला लगभग 11 महीने तक चलता रहा। इन लोगों को जब जेल भेजा गया और जेलर ने इनकी व्यथा जानी तब जाकर यह मामला सामने आया। वहां वही जेलर बच्चू लाल दास थे जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही इन पीड़ितों की अपील लिखवाई जो आगे चलकर अदालतों तक पहुंची।

खतरे में आ गए थे पत्रकार

 

22 नवंबर 1980 को इंडियन एक्सप्रेस में अरुण सिन्हा की यह रिपोर्ट 'Eyes punctured twice to ensure blindness' नाम से प्रकाशित हुई तो सनसनी मच गई। आम लोगों के साथ-साथ सस्पेंड हुए पुलिसकर्मी भी अरुण सन्हा के खिलाफ सड़क पर उतर आए। इन लोगों का कहना था कि पुलिस ने सही काम किया है। अरुण सिन्हा के मुताबिक, उस समय जनता ने 'पुलिस जनता भाई-भाई' जैसे नारे लगए। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी कहते रहे कि यह काम जनता ने किया है। हालांकि, तब सवाल उठे कि आखिर पुलिस कस्टडी में मौजूद लोगों तक आम लोग सूजा और तेजाब लेकर कैसे पहुंच रहे हैं?

 

केंद्र और राज्य के बीच उस वक्त भी खींचतान हुई। केंद्र सरकार ने कह दिया कि राज्य सरकार का मामला है तो वही जाने। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कहना था कि उन्हें यकीन नहीं हो रहा है कि इस जमाने में भी ऐसी चीजें हो रही हैं। हैरानी की बात थी कि तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने पीड़ित परिवारों के लोगों से अपील कर डाली कि वे इस मामले को बहुत तूल न दें क्योंकि इससे पूरी दुनिया में भारत की बदनामी होगी।

कार्रवाई हुई फिर वापस ले लिया आदेश

 

घटना पर बिहार सरकार की थू-थू हुई तो 15 पुलिसकर्मी सस्पेंड हो गए। हालांकि, 3 महीने में ही यह सस्पेंशन ऑर्डर वापस ले लिया गया। कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का ट्रांसफर कर दिए। उदाहरण के लिए भागलपुर सिटी के एसपी रहे अधिकारी को रांची का एसपी बना दिया और भागलपुर जिले के एसएसपी विष्णु दयाल राम को मुजफ्फरपुर का एसपी बना दिया गया। यही विष्णु दयाल राम आगे चलकर झारखंड के डीजीपी भी बने और साल 2013 में वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। वह 2014, 2019 और 2024 में झारखंड की पलामू लोकसभा सीट से सांसदी का चुनाव भी जीतते आ रहे हैं।

 

 पीड़ितों को उस समय पर 15 हजार रुपये का मुआवजा दिया गया और पेंशन की भी शुरुआत की गई। अभी भी कुछ पीड़ितों को पेंशन दी जा रही है। हालांकि, पीड़ितों का कहना है कि यह पेंशन भी नियमित तौर पर नहीं आ पाती है। कई बार तीन महीने तो कई बार चार महीने बाद यह पेंशन आती है। इस घटना ने पुलिस के प्रति ऐसा अविश्वास पैदा किया कि लोगों का भरोसा न्याय और पुलिस व्यवस्था से ही उठ गया। इन दो सालों के भीतर 33 अंडर ट्रायल और सजायाफ्ता कैदियों को अंधा कर दिया गया। पुलिस की क्रूरता के लिहाज से देखें तो इस केस ने सारी सीमाएं पार कर दी थीं। अखबारों में उन लोगों की तस्वीरें छपने लगीं जिन्हें पुलिस ने अंधा कर दिया। इससे एक वर्ग को खुशी मिल रही थी जिससे पुलिस रुकी नहीं और यह सिलसिला लगातार जारी रहा।