साल 1967 तक देश में आम चुनाव और बिहार में आम चुनाव एक साथ हो रहे थे। देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी और यह दल, देश का सबसे बड़ा दल बना हुआ था। यह साल, कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं रहा। देश में तो कांग्रेस की सरकार बन गई लेकिन जनसंघ और CPI ने कांग्रेस की चूलें हिला दीं थीं। तब बिहार में कुल 318 विधानसभा सीटें थीं लेकिन कांग्रेस सिर्फ 128 सीटें जीत पाई थी। देश की कमान इंदिरा गांधी को मिली लेकिन बिहार की कमान किसी गैर कांग्रेसी शख्स को, जो अब तक नहीं हो पाया था। जनसंघ और CPI का अनोखा गठबंधन भी इसी साल देखने को मिला था।
साल 1967 के विधानसभा चुनाव फरवरी में हुए थे। चुनाव में कांग्रेस बहुमत से दूर हो गई। नतीजा यह निकला कि जन क्रांति दल के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार के मुख्यमंत्री नियुक्त हुए। कोई भी एक दल, बहुमत के आंकड़ों से बहुत दूर थी। जैसे तैसे सरकार तो बन गई थी लेकिन कई मुद्दों पर मंत्रियों के बीच असहमति आम हो गई थी। नतीजा यह निकला कि बिहार में सरकारें बार-बार बदलती रहीं।
जब पहली बार महामाया प्रसाद सिन्हा बने सीएम
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, CPI, जन क्रांति दल, और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर सरकार बनाई। चुनाव के नतीजों के बाद कर्पूरी ठाकुर, मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे, दूसरी राजनीतिक पार्टियां, इस पर सहमत ही नहीं हुईं। जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर जैसे-तैसे सहमति बनी। कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने। सरकार सिर्फ एक साल ही चल पाई। मंत्रिमंडल में जातीय हिस्सेदारी को लेकर विवाद बढ़ गया। स्वास्थ्य मंत्री के पद से बीपी मंडल को इस्तीफा देना पड़ गया। राम मनोहर लोहिया ने उन पर इस्तीफा देने का दबाव बनाया। उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा।
जब बीपी मंडल बने मुख्यमंत्री
जोड़-तोड़ से दूसरी सरकार बनी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कुछ सदस्यों ने कांग्रेस के साथ मिलकर नई सरकार बनाई। पिछड़ा वर्ग से आने वाले बीपी मंडल पहली बार मुख्यमंत्री बने। 1 फरवरी 1968 को बिंध्येश्वरी प्रसाद मंडल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। कांग्रेस के नेता संयुक्त सोशलिस्ट पार्ट के साथ बहुत सहज नहीं थे। 2 मार्च 1968 को महज 50 दिनों के भीतर उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
कांग्रेस में मंडल सरकार को समर्थन देने के मुद्दे पर दरअसल हंगामा हुआ था। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बिनोद नंद झा के नेतृत्व में 17 विधायकों ने इस सरकार से बगावत कर लिया। विधायकों ने लोकतांत्रिक कांग्रेस नाम का एक नया गुट बना लिया। इन विधायोकों ने मंडल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 50 दिनों के भीतर सरकार गिर गई।
भोला पासवान के हाथ कैसे आई सत्ता?
भोला पासवान शास्त्री, लोकतांत्रिक कांग्रेस और कुछ विपक्षी विधायकों की मदद से बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री बने। भोला पासवान पहली बार 22 मार्च 1968 से लेकर 29 जून 1968 तक मुख्यमंत्री रहे। महज 99 दिनों का उनका कार्यकाल रहा। कांग्रेस ने बहुमत खो दिया और मध्यावधि चुनावों का एलान किया गया।
सरकारें चल क्यों नहीं पाईं?
कांग्रेस के पास सिर्फ 128 सीटें रहीं। पार्टी विभाजित भी हो गई थी। गठबंधन बिना किसी की सरकार नहीं बन सकीत थी। पिछड़े वर्गों के नेताओं ने मुख्यमंत्री बनने के लिए जोड़-तोड़ किया। सामाजिक और जातिगत समीकरण तेजी से बदल रहे थे। सरकार के गठन के बाद भी सहमति नहीं बन पा रही थी। यही वजह है कि एक कार्यकाल में 3 बार मुख्यमंत्री बद गए।
प्रमुख नारे क्या रहे?
- संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ
प्रसंग: पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में 60 फीसदी आरक्षण के वादे के साथ यह नारा लोकप्रिय हुआ था। यह नारा सामाजिक न्याय का प्रतीक बना और पिछड़ों को विपक्ष की ओर खींचा। कर्पूरी ठाकुर ने यह नारा दिया था।
- जनसंघ को वोट दो, बीड़ी पीना छोड़ दो; बीड़ी में तंबाकू है, कांग्रेस वाला डाकू है
प्रसंग: भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस को 'डाकू' बताते हुए स्वास्थ्य और नैतिकता का मुद्दा उठाया था। जनसंघ की सीटें बढ़ीं, लेकिन गठबंधन में भूमिका सीमित रही।
- एक नजर, पूरे चुनाव पर
कुल विधानसभा सीट: 318
- सामान्य सीट: 245
- एसटी: 45
- एससी: 28
- कुल वोटर: 27743190
- वोट प्रतिशत: 60.82%
- वोटिंग की तारीख: 21 फरवरी 1967
- बहुमत: 160 सीट
- किस पार्टी को कितनी सीटें मिलीं?
कांग्रेस: 128
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी: 68
जनसंघ: 26 सीटे
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी: 18
CPI: 24 सीट
जन क्रांति दल: 13
निर्दलीय: 33