कभी 4, कभी 19 सीटें, कांग्रेस ने बिहार में क्या सीखा?
बिहार में चुनावों की शुरुआत से लेकर 2005 तक, बिहार की सत्ता में कांग्रेस, किसी न किसी भूमिका में रही है। हाशिए पर क्यों पहुंची, कहां चूकी, सब समझिए।

राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे। (Photo Credit: Khabargaon)
बिहार में 243 विधानसभा सीटें हैं। साल 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 77 सीटों पर उम्मीदवार उतार थे, जीत सिर्फ 19 सीटों पर मिली। यह नतीजे, कांग्रेस के लिए झटके की तरह थे लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व, इस हार को कुछ दिनों बाद भूल गया। यह बात इसलिए कही जा रही है कि कांग्रेस में स्थानीय नेतृत्व की इतनी कमी है कि पार्टी के स्टार प्रचारकों में एक बड़ी संख्या, उन नामों की होती है, जो न तो बिहार के वोटर हैं, न उम्मीदवार।
राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव परिवार से बाहर भी कुछ नेता हैं, जिन्हें लोग जानते हैं। बिहार प्रदेश के अध्यक्ष जगदानंद, संजय यादव, मनोज झा और अब्दुल बारी जैसे नेता चर्चा में रहते हैं। कन्हैया कुमार को छोड़कर, बिहार में कांग्रेस का कोई चर्चित चेहरा ऐसा नहीं है, जिसे सूबे के बाद भी लोग जानें। बिहार में दशकों से कांग्रेस के साथ यही दिक्कत रही।
ऐसा हम नहीं बीते डेढ़ दशक के चुनावी आकंड़े कह रहे हैं। साल 2005 से लेकर 2020 तक, जब-जब चुनावी नतीजे आए, कांग्रेस हाशिए पर रही। कांग्रेस का वोट शेयर लगातार गिरा, स्थिर हुआ फिर गिर गया। कांग्रेस 2005 तक सत्ता की सहयोगी तो रही लेकिन नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के लिए स्थितियां खराब होती चली गईं।
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चुनाव जिसके बाद कम होने लगा कांग्रेस का जनाधार
वैसे तो 1990 के बाद से ही बिहार में कांग्रेस कमजोर होने लगी थी लेकिन 2000 के बाद पार्टी और बुरी स्थिति में पहुंच गई। 2000 में बिहार का विभाजन नहीं हुआ था, तब विधानसभा चुनाव हुए। तब बिहार में 324 सीटें थीं। राष्ट्रीय जनता दल के 124 विधायक जीते थे। कुल 28.34 प्रतिशत वोट आरजेडी को पड़े थे। 11.06 प्रतिशत सीटों के साथ कांग्रेस के खाते में सिर्फ 23 सीटें आईं। मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ही रहीं।

चेहरे तलाशती पार्टी, 'गांधी' ही सहारा
2000 तक, बिहार में कांग्रेस के कई चर्चित चेहरे रहे। कलगांव के विधायक सदानंद सिंह 2000 में विधानसभा अध्यक्ष रहे, कांग्रेस विधायक दल के नेता रहे। वह बिहार सरकार में सिंचाई और ऊर्जा राज्यमंत्री भी रहे। कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता राज्य में राम जतन सिन्हा थे। वह साल 2003 से 2005 तक बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे थे। 4 बार विधायक थे। बिहार कांग्रेस में मंत्री थे। अपने छात्र जीवन में उन्होंने लालू यादव को चुनाव हरा दिया था। राजो सिंह शेखपुरा से 1977 से लेकर 2005 तक लगातार 28 साल विधायक रहे। कांग्रेस में सत्ता में होने का यह साल खास था। बिहार में कांग्रेस ने फिर ऐसा दिन कभी नहीं देखा। कांग्रेस का स्टार प्रचार, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा कोई बन नहीं पाया।
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चुनाव दर चुनाव, कैसे कमजोर होती गई कांग्रेस?
- विधानसभा चुनाव 2005: इस साल बिहार में दो चुनाव हुए। एक चुनाव फरवरी में हुआ, जिसमें खंडित जनादेश आया। सरकार ही नहीं बन पाई। दूसरा चुनाव नवंबर में हुआ, जिसमें पहली बार नीतीश कुमार के हाथ बिहार की सरकार आई। बिहार में 'सुशासन बाबू' के सत्ता संभालने के बाद आरजेडी और कांग्रेस की सत्ता से 2 दशकों से विदाई हो गई। एनडीए गठबंधन की जीत हुई, यूपीए की हार। इस चुनाव में बीजेपी 102 सीटों पर उतरी, नीतीश कुमार की जेडीयू 139 सीटों पर उतरी। आरजेडी ने 175 सीटों पर चुनाव लड़ा, कांग्रेस ने 51 सीट, लेफ्ट ने 10 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। एनसीपी ने 8 सीटों पर चुनाव लड़ा। तब कांग्रेस की कमान सदानंद सिंह के हाथों में थी। नतीजे इस बार भी कांग्रेस के लिए ठीक नहीं रहे। 51 सीटों पर प्रत्याशी उतारने के बाद सिर्फ 9 सीटें जीत पाई।
- ऐसा क्यों हुआ?
बिहार में कांग्रेस के पास चेहरा ही नहीं था। सदानंद सिंह बिहार के चर्चित नेता थे लेकिन इतने भी लोकप्रिय नहीं कि लालू या नीतीश कुमार की तरह उनकी स्वतंत्र छवि बन सके। वह सहयोगी की भूमिका में ही रहे। कांग्रेस के कार्यकर्ता गठबंधन में कम सीटें मिलने से नाराज भी थे। - बिहार विधानसभा चुनाव 2010: यह चुनाव भी कांग्रेस के लिए ठीक नहीं रहा। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस के बीच कोई गठबंधन नहीं था। दोनों दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। RJD ने लोक जनशक्ति पार्टी के साथ गठबंधन किया था, जबकि कांग्रेस ने सभी 243 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा था। कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें मिली थीं। पार्टी का वोट शेयर लगभग 8.37% रहा था। एक बात और साफ हो गई कि आरेडी और कांग्रेस एक-दूसरे के साथ ज्यादा मजबूत हैं। अलग लड़े तो दोनों कमजोर रहेंगे। आरजेडी-एलजेपी गठबंधन को तब केवल 25 सीटें मिली थीं, जिसमें RJD को 22 और LJP को 3 सीटें मिलीं थीं।
- ऐसा क्यों हुआ?
कांग्रेस अकेले चुनाव में उतरी थी। स्थानीय स्तर पर पार्टी के पास आरजेडी और एनडीए गठबंधन जितना मजबूत चेहरा ही नहीं था। कांग्रेस का चेहरा, महबूब अली कैसर थे। उनकी लोकप्रियता ऐसी नहीं थी कि सिर्फ उन्हीं के चेहरे पर ही चुनाव में जीत-हार तय हो। केंद्र में यूपीए की सरकार थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। सोनिया गांधी अपने राजनीति जीवन के शीर्ष पर थीं लेकिन बिहार में उनका जादू नहीं चल सका था। स्थानीय नेतृत्व का न होना, इस बार भी कांग्रेस के लिए बुरा ही साबित हुआ। - विधानसभा चुनाव 2015: देश में नरेंद्र मोदी युग की शुरुआत हो रही थी। बीजेपी ने उन्हें प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किया था। घर-घर मोदी के नार लग रहे थे। बात नीतीश को खटक रही थी। वह मोदी के 'उग्र हिंदुत्व' के एजेंडे से नाखुश थे। बीजेपी ने 16 जून 2013 को नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया। उन्हें पीएम उम्मीदवार घोषित किया, नीतीश कुमार ने इसका विरोध किया । जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने कह कहा था कि 17 साल पुराना गठबंधन रास्ते से भटक गया था। यह खबर कांग्रेस के लिए राहत बनकर आई थी। एक दशक से सत्ता से बाहर कांग्रेस को सत्ता का हिस्सा बनने का ख्वाब आ रहा था। 7 जून तक, लालू यादव और नीतीश कुमार में गठबंधन को लेकर सहमति बन गई। जिसके साम्राज्य को नीतीश कुमार ने उखाड़ा था, उसी के वह साथ हो गए। तब तीन बड़े नाम उभरे। आरजेडी का प्रतिनिधित्व लालू यादव कर रहे थे, जेडीयू के नीतीश कुमार और कांग्रेस के लिए अशोक चौधरी खड़े थे। 101 सीट आरजेडी को मिली, 101 सीट, जेडीयू ने अपने पास रखी, 42 सीटें कांग्रेस को दी गईं। कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा। 42 सीटें मिलीं थीं, 27 कांग्रेस के खाते में गईं। आरजेडी को 80 सीटें मिलीं, जेडीयू को 71। नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने। बिहार में नीतीश कुमार के अलग होने का घाटा बीजेपी को हुआ, सत्ता से बाहर हो गई। 51 सीटें आईं।
- ऐसा क्यों हुआ?
अशोक चौधरी, बिहार की राजनीति का बड़ा नाम हैं। वह बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उनकी स्वीकार्यता भी बिहार में रही। राहुल गांधी की रैलियां भी बिहार में चर्चित रहीं। सभी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर कैंपेनिंग की। चुनाव में असर भी दिखा। कांग्रेस को वक्ती कामयाबी मिल गई थी लेकिन यह जीत भी कांग्रेस के बिखराव की वजह बनी। - बिहार विधानसभा 2020: नीतीश कुमार की महागठबंधन से निभ नहीं पाई थी, 2017 में उनका महागठबंधन से मोहभंग हो गया था। फिर एनएडीए बनाम महागठबंधन की जंग हुई। कांग्रेस को सीट बंटवारे में 70 सीटें दी गईं, आरजेडी ने अपने पास 144 सीटें रखीं, वाम दलों को 29 सीटें दी गईं। नतीजे भी दिलचस्प रहे। आरजेडी 75 सीटों के साथ बिहार की सबसे बड़ी पार्टी तो बन गई लेकिन कांग्रेस 19 सीटों पर सिमट गई। तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम थे, इस बार खुद को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर रहे थे लेकिन सपना चूर हो गया। कांग्रेस का प्रतिनिधित्व मदन मोहन झा कर रहे थे और लेफ्ट की ओर से दीपांकर भट्टाचार्य और राम नरेश पांडेय ने कमर कसी थी। लेफ्ट की पार्टियों को 16 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस का स्ट्राइक रेट सबसे खराब रहा था।
- ऐसा हुआ क्यों?
कांग्रेस पार्टी में कल छिड़ चुकी थी। जिस अशोक चौधरी के भरोसे कांग्रेस 2015 में अपनी किस्मत आजमा रही थी, उन्हें पार्टी की बैठकों से बाहर रखा जाने लगा। 2017 में उनसे अध्यक्ष पद छीन लिया गया। वह जेडीयू में चले गए और अहम पद भी उन्हें मिला। मदन मोहन झा की अध्यक्षता में यह चुनाव हुआ। वह बिहार में ऐसे नेता नहीं हैं, जिनके नाम पर भीड़ जुटे। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने कैंपेनिंग तो खूब की लेकिन हासिल सिर्फ 19 सीटें हुईं। यह भी कहा गया कि यह सीटें भी तेजस्वी यादव की वजह से आईं। कांग्रेस इस बार भी स्थानीय नेता चुनने में चूक गई।

2025 में कांग्रेस की नई कवायद क्या है?
कांग्रेस ने 24 सितंबर को कांग्रेस वर्किंग कमेटी एक बैठक बुलाई थी। आखिरी बार यह बैठक बिहार में साल 1940 में हुई थी। अब फिर बड़े बैठक की योजना है। बिहार की सियासत पर नजर रखने वाले पत्रकारों का कहना है कि कांग्रेस अपना कैडर खो चुकी है। हर राजनीतिक पार्टी के पास अपना कैडर है। बीजेपी के लिए संघ, बीजेपी के कार्यकर्ता मजबूत सियासी माहौल तैयार करते हैं। आरजेडी के अपने वर्कर हैं, जेडीयू के अपने वर्कर हैं। कांग्रेस के वर्कर सिर्फ इवेंट में नजर आते हैं।
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शकील अहमद खान, कांग्रेस:-
कांग्रेस का एक ही लक्ष्य है, मौजूदा सरकार को हटाना। महागठबंधन पूरी तरह संगठित है और सभी पार्टियों की सहमति से ही आगे की रणनीति बनाई जा रही है। कांग्रेस किसी भी तरह की खींचतान में नहीं है, बल्कि गठबंधन में बड़ा दिल दिखा रही है। कांग्रेस आज़ादी की पार्टी है, हमें बड़े भाई की भूमिका निभाने में कोई दिक्कत नहीं। सीटों का बंटवारा बहुत कायदे से होगा।

कांग्रेस के लिए क्या कह रहे हैं नेता?
प्रशांत किशोर, संस्थापक, जन सुराज:-
बिहार में राहुल गांधी की कोई औकात नहीं है, कोई बिसात नहीं है। उन्हें पता होना चाहिए, बिहार में 40 में से कांग्रेस के तीन सांसद हैं और 243 में से 19 विधायक भी हैं। यह सब राहुल गांधी के दमदार नेतृत्व के कारण ही हैं।
चूक कहां रही है कांग्रेस?
- जातीय समीकरण नहीं साध पा रही कांग्रेस: बिहार की राजनीति, जाति आधारित है। हर जाति के एक नेता हैं। राष्ट्रीय जनता दल को मुस्लिम और यादवों की पार्टी कहा जाता है। लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) पर पासवान और दलितों की पार्टी होने का टैग है। जेडीयू गैर यादव ओबीसी वोटरों की पार्टी बताई जाती है। बीजेपी पर हिंदुत्व का ठप्पा है, वहीं हिंदुस्तान आवाम मोर्चा महादलितों की। जाति के आधार पर बंटी अलग-अलग पार्टियों में कांग्रेस का अपना कोई जातीय बैकअप नहीं है।
- कमजोर स्थानीय संगठन और नेतृत्व: 1990 के बाद कांग्रेस बिहार में हाशिए पर रही। कांग्रेस का अपना कोई बड़ा चेहरा ही नहीं तैयार हो पाया। एमपी में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया (अब बीजेपी में हैं) और दिग्विजय सिंह पार्टी के बड़े नेता रहे। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट हैं। कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार की जोड़ी रही, बिहार में कांग्रेस हमेशा ही नेतृत्व विहीन रही।
- अलोकप्रिय चेहरों को बड़ी जिम्मेदारी: बिहार कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष राकेश कुमार हैं। अलोकप्रिय नाम हैं। उनके नाम से ज्यादा चर्चा बिहार में पप्पू यादव और कन्हैया कुमार की होती है। पप्पू यादव निर्दलीय सांसद हैं, कांग्रेस को समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस, बिहार के लिए जनप्रिय नेता ही नहीं तलाश पा रही है।
- कमजोर और बिखरा संगठन: बिहार में बिना गठबंधन के कोई एक पार्टी अब चुनाव नहीं जीत सकती। कांग्रेस महागठबंधन की सबसे कमजोर पार्टी कही जा रही है। आरजेडी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में 23 सीटों पर प्रत्याशी उतारा था। कांग्रेस को 9 सीटें दी गईं थीं। वामदलों को 5 सीटें मिलीं। नतीजे आए तो कांग्रेस ने 3 सीटों पर जीत हासिल किया, आरजेडी 4। एवरेज में ठीक होने के बाद भी बिहार में कांग्रेस को मनचाही सीटें नहीं दी जा रहीं हैं, वजह 2020 के चुनाव में उनका प्रदर्शन है। कांग्रेस बिहार में नेतृत्व संकट से जूझ रही है।
- सोशल इंजीनियरिंग को नहीं समझ रही कांग्रेस: एक जमाने में कांग्रेस के साथ भूमिहार, राजपूत और मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा जुड़ा रहा। साल 1967 तक यह स्थिति रही। साल 1990 में समीकरण बदले। मंडल कमीशन की सिफारिशों के बाद पिछड़ी जातियों का ध्रुवीकरण होने लगा। लालू यादव मुस्लिम-यादव गठजोड़ करने में सफल रहे। कुर्मी, कोइरी, नाई, कुम्हार जैसी जातियां जेडूयी का कोर वोट बैंक हो गईं। बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दे पर सारी जातियों को अपने साथ जोड़ ले गई। कांग्रेस यही नहीं कर पाई। अब कांग्रेस भी जातीय समीकरण साधने के लिए ऐसे प्रयोग कर सकती है। पार्टी के पदों पर सोशल इंजीनियरिंग करे लेकिन चर्चित चेहरों को जिम्मेदारी दे। कांग्रेस के पास लोकप्रिय नेताओं का स्थानीय स्तर पर न होना, हार की वजह बन रहा है।
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