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कर्ज, वसूली, अपमान..., कौन है महाराष्ट्र के किसानों का 'कातिल'?

महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या का हल क्या है? एक ऐसा सवाल, जिसका जवाब सरकारों के पास है लेकिन वे खामोश हैं।

Farmer Suicide crisis

महाराष्ट्र में किसानों की जान ले रहा है कर्ज। (सांकेतिक तस्वीर-PTI)

महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या के आंकड़े, कम नहीं हो रहे हैं। साल 2024 में ही जनवरी से जून महीने तक अमरावती, अकोला, बुलढाणा, वाशिम और यवतमाल जिले में 577 किसानों ने आत्महत्या की है। अमरावती संभागीय आयुक्तालय की रिपोर्ट बताती है कि अमरवती के 170 किसानों ने कर्ज की वजह से आत्महत्या कर ली। यवतमाल में 150, बुलढाणा में 111, अकोला में 92 और वाशिम में 34 किसानों ने आत्महत्या की है। 

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में साल 2021 से 2022 के बीच 22746 लोगों ने खुदकुशी की। आर्थिक स्थिति और कर्ज की वजह से खुदकुशी करने वाले लोगों की संख्या करीब 13352 थी। इनमें 1269 लोग तो ऐसे थे, जिन पर 1 लाख से लेकर 5 लाख रुपये तक का कर्ज था। 1163 लोग ऐसे थे, जिन पर 5 से 10 लाख रुपये तक का कर्ज था। इनमें किसानों की भी एक बड़ी आबादी शामिल है।

किसानों के वेलफेयर के लिए काम करने वाली एक संस्था ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि किसानों की आत्महत्या की वजह, बैंक वाले कर्ज कम, साहूकारों के दिए गए कर्ज ज्यादा हैं। कर्जमाफी की कवायद की जा रही है, कर्जमाफी की नहीं जा रही है। अगर किसानों का कर्ज माफ हो जाए तो उन्हें बड़ी राहत मिल जाए। अगर किसानों ने प्राइवेट बैंक, माइक्रो फाइनेंशियल संस्थाओं या साहूकारों से लोन लिया है तो भी उन्हें आर्थिक सहायता मिले, जिससे वे दयनीय स्थिति से उबर सकें।

किसान उत्पीड़न और प्राइवेट बैंक, साहूकारों का बुरा रवैया

महाराष्ट्र में किसानों के वेलफेयर के लिए काम करने वाली संस्था 'ग्रांड मराठा फाउंडेशन' के मुख्य समन्वयक ऋषभ गोरे बताते हैं कि महाराष्ट्र में किसान तीन तरह से कर्ज लेते हैं। पहला कर्ज सरकारी बैंकों से, दूसरा प्राइवेट और माइक्रोफाइनेंसिंग बैंकों से और तीसरे तरह का कर्ज साहूकारों से। जिन किसानों पर सरकारी बैंकों का कर्ज है, वे उस तरह से उत्पीड़ित नहीं होते, जिस तरह प्राइवेट और माइक्रो फाइनेंसिंग बैंक करते हैं। उनके पास वसूली के लिए कुछ लोग होते हैं, जो किसानों के साथ उनके घरों में जाकर बदसलूकी करते हैं। महाराष्ट्र में लोग अपनी इज्जत को लेकर ज्यादा संवेदनशील हैं। परिवार के सामने इस तरह की प्रताड़ना वे झेल नहीं पाते और खुदकुशी कर बैठते हैं। महाराष्ट्र की एक सच्चाई ये भी है।

ऋषभ गोरे बताते हैं कि माइक्रो फाइनेंसिंग बैंकों की कुछ योजनाएं ऐसी हैं, जिनमें महिला उद्यमियों को भी लोन दिया जाता है। किसी स्थिति में जब महिलाएं लोन नहीं चुका पाती हैं तो उनके साथ भी ऐसा ही सलूक होता है। कुछ मामले अब महिला उद्यमियों और किसानों की खुदकुशी के भी आ रहे हैं। आमतौर पर ये किसान खुदकुशी के तौर पर नहीं दर्ज हो पाते हैं। 

ऋषभ गोरे बताते हैं कि साहूकारों की ओर से दिया जाने वाला कर्ज अवैध है। सरकार इसकी इजाजत नहीं देती है। किसान, कागजी औपचारिकताओं से बचने के लिए उनके कर्ज लेते हैं और फिर जब फसल खराब होने की स्थिति में उन्हें जब घाटा होता है तो वे कर्ज के दलदल में फंस जाते हैं। उन पर वसूली का दबाव बनाया जाता है, जिसकी वे बड़ी कीमत चुकाते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर।
प्रतीकात्मक तस्वीर। इमेज क्रेडिट-Meta AI

कैसे तय होती है खुदकुशी की श्रेणी?
खुदकुशी के बाद पुलिस और स्थानीय पटवारी मौके पर पहुंचते हैं। पड़ताल की जाती है। पीड़ित परिवार से पूछा जाता है कि क्या वे किसी एक्टिव लोन का हिस्सा हैं। अगर कोई लोन चल रहा है तो उसकी पड़ताल की जाती है। वेरिफिकेशन होता है। जिला कलेक्टर की मंजूरी के बाद ही यह तय होता है कि खुदकुशी को किसान आत्महत्या की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं।

अगर किसान आत्महत्या है तो क्या होता है?
 अगर मामला किसान आत्महत्या का होता है तो एक सीमा तक लोन माफ किया जाता है। महाराष्ट्र सरकार, खुदकुशी करने वाले किसानों के परिवारों को 1 लाख रुपये तक की आर्थिक सहायता देती है। यह फंड डिविजनय कमिश्नर को मिलता है, जिसे जिला कलेक्टरों के जरिए वितरित किया जाता है। 

NGO कैसे कर रहे लोगों की मदद?
यवतमाल के केलापुर, पुसर और उमरखेड जैसे गावों में सक्रिय संस्था, ग्रांड मराठा फाउंडेशन से जुड़े ऋषभ गोरे बताते हैं कि उनकी संस्था किसान विधवाओं स्किल ट्रेनिंग देती हैं। उन्हें खेती के साथ-साथ कौशल सिखाने की ट्रेनिंग दी जाती है। उनके बच्चों की शिक्षा के लिए काम किया जाता है। किताबों और छात्रवृत्ति के जरिए उन तक मदद पहुंचाने की कोशिश की जाती है। युवाओं को भी स्किल ट्रेनिंग दी जाती है। 


किन इलाकों में ज्यादा किसान करते हैं आत्महत्या?

सामाजिक कार्यकर्ता रंजना शर्मा बताती हैं कि किसान न तो बैंकों से लिए गए कर्ज को दे पाते हैं, न ही साहूकारों से लिए गए कर्ज को। दोहरे कर्ज की वजह से वे हमेशा परेशान रहते हैं। खेती, जुए की तरह साबित हो रही है। किसी साल घाटा, किसी साल मुनाफा। आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए उन्हें किसानी से इतर आय की जरूरत होती है। औरंगाबाद, बीड, हिंगोली, जालना, नांदेड़, लातूर, उस्मानाबाद, परभणी, अहमदनगर और धुले, नासिक जैसे जिले सूखा प्रभावित हैं। विदर्भ में स्थिति ज्यादा खराब है। किसान आत्महत्याएं भी इसी क्षेत्र में ज्यादा हैं। महाराष्ट्र में प्रति किसान कर्ज 82085 है। ये आंकड़े वित्त मंत्रालय की ओर से 21 मार्च 2024 में जारी किए गए हैं। एक अन्य रिपोर्ट में राष्ट्रीय कृषि व किसान विकास बैंक (नॉबर्ड) के रिपोर्ट में दावा किया गया कि महाराष्ट्र के हर किसान पर औसतन 1.58 लाख रुपये का कर्ज है।

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प्रतीकात्मक तस्वीर। इमेज क्रेडिट-Meta AI

क्या शरद पवार मॉडल से किसानों को मिल सकती है मुक्ति?
शरद पवार ने यूपीए सरकार में साल 2008 में कृषि मंत्री रहने के दौरान ऐलान किया था कि वे किसानों का कर्ज माफ कर देंगे। उन्होंने कृषि से संबंधित 72000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दिया था। सरकार ने सीधे बैंकों को ही रुपये दिए। इस योजना से हर वर्ग के किसान खुश हुए। इसमें अमीर-गरीब, हर वर्ग को लाभ मिला। कहते हैं कि शरद पवार के इस ऐलान ने साल 2009 में यूपीए की सरकार दोबारा बनवा दी थी। महाराष्ट्र के किसानों को ऐसे ही किसी योजना की जरूरत है।

क्या लोनमाफी है सही विकल्प?
सामाजिक कार्यकर्ता ऋषभ गोरे बताते हैं कि कर्ज माफी समाधान तो नहीं है लेकिन वक्ती राहत दे सकती है। अगर सरकार, प्राइवेट बैंक, सरकारी बैंक और साहूकारों के भी कर्जे को माफ करे तो उन्हें लाभ पहुंच सकता है। इसके साथ ही साथ सरकार, कस्बों और छोटे शहरों में रोजगार के लिए उद्योगों की स्थापना करे, अवसर मुहैया कराए, जिससे ग्रामीण युवाओं को खेती के साथ-साथ अतिरिक्त आय अर्जित करने का मौका मिले। खेती का भी विकल्प रहे साथ ही साथ नियमित वेतन वाला रोजगार रहे तो किसानों को बड़ी मदद मिल सकती है। रंजना शर्मा भी कुछ ऐसा ही मानती हैं। उनका कहना है कि अगर स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार के बेहतर मौके भी मिलें तो खेती का घाटा, कमाई से पूरा हो सकता है। 

 'ग्रांड मराठा फाउंडेशन' के मुख्य समन्वयक ऋषभ गोरे बताते हैं कि महाराष्ट्र के कृषि प्रधान इलाकों में खुद को जमींदार कहने का चलन है। अगर किसान के पास 2 एकड़ जमीन भी है तो वह खुद को जमींदार मानता है और किसी भी स्थिति में हो, मजदूरी के लिए तैयार नहीं होता है। कृषि योग्य जमीनें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसी भी जगहों पर हैं। लोगों के पास अच्छी खेती है लेकिन इसके बाद भी लोग कमाई के लिए अपने प्रदेश से शहरों की ओर जाते हैं। वे खेती के साथ-साथ मेहनत मजदूरी भी करते हैं। महाराष्ट्र की किसान आबादी का एक बड़ा हिस्सा, मजदूरी पेशे को कमतर आंकता है और कमाई के लिए शहरों की ओर जाने से परहेज करता है।

रंजना शर्मा बताती हैं कि खेती पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर है। विदर्भ के इलाकों में बारिश का न होना, बड़ी समस्या है। फसलों की सिंचाई भी ढंग से नहीं हो पाती है। ऐसे में कई बार फसलें खराब हो जाती हैं, या कम पैदावार होती है। किसान अपना कर्ज नहीं चुका पाते हैं। किसानों तक सरकार बेहतर संसाधन मुहैया कराए, उन्हें आगे बढ़ाए। अगर किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं तो हम समाज के तौर पर फेल हो रहे हैं। 

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