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सामाजिक कुरीतियों को फिल्म का हिस्सा बनाने वाले श्याम बेनेगल का निधन

जानेमाने फिल्म मेकर श्याम बेनेगल का 90 साल की उम्र में निधन हो गया है। दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजे गए बेनेगल ने समानांतर सिनेमा की शुरुआत की थी।

Film maker shyam benegal : PTI

फिल्म मेकर श्याम बेनेगल । पीटीआई

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जानेमाने फिल्ममेकर श्याम बेनेगल का 23 दिसंबर को शाम साढ़े छह बजे निधन हो गया। वह 90 साल की उम्र के थे। वह किडनी संबंधित बीमारी से ग्रस्त थे। वह पिछले कुछ दिनों से वॉकहार्ट हॉस्पिटल के आईसीयू में भर्ती थे।

 

हाल ही में 14 दिसंबर को उन्होंने दोस्तों व परिवार के साथ अपना 90वां जन्मदिन मनाया था। उनके जन्मदिन के अवसर पर नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, शबाना आजमी, रजित कपूर और शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर जैसी हस्तियां शामिल हुई थीं।

मिला था दादा साहेब फाल्के पुरस्कार

बेनेगल को भारत सरकार द्वारा 1976 में पद्मश्री सम्मान और 1991 में पद्म भूषण सम्मान मिला था। इसके बाद साल 2005 में सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के सम्मान से उन्हें नवाजा गया। उन्होंने निशांत, मंथन, मम्मो, सरदारी बेगम और जुबैदा जैसी हिट फिल्में दीं।

हैदराबाद में हुआ था जन्म

श्याम बेनेगल का जन्म 14 दिसंबर 1934 को हुआ था। वह कोंकण के सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता श्रीधर बी बेनेगल मूल रूप से कर्नाटक के रहने वाले थे और पेशे से फोटोग्राफर थे। उनके पिता ने ही बेनेगल की रुचि फिल्ममेकिंग में पैदा की।

 

 

हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने मास्टर की डिग्री हासिल की। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने हैदराबाद फिल्म सोसायटी की स्थापना की जो कि उनकी सिनेमा की जर्नी की शुरुआत थी।

पहली फिल्म हुई थी हिट

साल 1974 में उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत फिल्म अंकुर से की. इसमें फिल्म में अनंत नाग और शबाना आज़मी लीड रोल में थे. इस फिल्म को काफी पसंद किया गया। 1975 में उनकी अगली फिल्म निशांत को और ज्यादा सराहा गया। इस फिल्म को 1976 में कान्स फिल्म फेस्टिवल में 'पाम डि ओर' के लिए नॉमिनेट किया गया।

 

उनकी महात्मा और सरदारी बेगम जैसी फिल्मों ने उनकी स्टोरी टेलिंग की क्षमता को दिखाया और उन्हें कॉमर्शियल के साथ साथ आर्ट सिनेमा के मास्टर के रूप में स्थापित कर दिया।

समानांतर सिनेमा की शुरुआत की

उन्होंने 1970 से 1980 के बीच समानांतर सिनेमा की शुरुआत की। वह अपनी यथार्थवादी और सामाजिक विद्रूपताओं को उभारने वाली फिल्मों के लिए जाने जाते थे। अपनी फिल्मों में उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों और कमियों को उकेरने की कोशिश की।

 

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