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सीरिया में असद के हटने से भारत के सामने क्या हैं चुनौतियां?

सीरिया में बशर अल-असद के अपदस्थ होने के बाद भारत के सामने सुरक्षा से लेकर आर्थिक मोर्चे पर कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं।

bashar al-assad : PTI

बशर अल-असद । पीटीआई

सीरिया में विद्रोहियों का कब्ज़ा हो गया है। अपदस्थ राष्ट्रपति बशर अल-असद अब देश से बाहर हैं। रूसी विदेश मंत्रालय की घोषणा के मुताबिक वह अपने परिवार के साथ मॉस्को में मौजूद हैं। रूस का कहना है कि मानवीय आधारों पर उन्हें शरण दी गई है।

 

इसी बीच विद्रोही गुट हयात तहरीर अल-शाम के नेता अबू मोहम्मद अल-जोलानी ने दमिश्क पर कब्जे की घोषणा की। उसने कहा कि असद को सत्ता से हटा दिया गया है और शक्ति हस्तांतरण की दिशा में काम किया जा रहा है। जोलानी ने कहा कि 'सीरिया को पवित्र' किया जा रहा है।

 

बशर अल-असद के कार्यकाल में सीरिया को भारत के करीब माना जाता था। ऐसे में अब असद के अपदस्थ हो जाने के बाद भारत के ऊपर कई तरह से प्रभाव पड़ने वाले हैं।

कश्मीर का मुद्दा

कश्मीर के मुद्दे को लेकर बशर अल-असद ने हमेशा भारत के पक्ष में अपनी राय जाहिर की है। 2019 में जब भारत ने धारा 370 को हटाया था तो असद ने कहा था कि 'यह भारत का आंतरिक मामला' है।

 

सीरिया के राजदूत रियाद अब्बास ने कहा था, 'हर सरकार को अपने लोगों की रक्षा के लिए जैसा वह चाहे वैसा कानून लागू करने का अधिकार है।'

 

न सिर्फ असद ने बल्कि उनके पिता हाफिज़ अस-असद ने भी दशकों तक कश्मीर के मुद्दे पर हमेशा भारत का साथ दिया। पाकिस्तान को इस मामले में असद की तरफ से कभी भी समर्थन नहीं मिला।

ISIS का हो सकता है उदय

असद के सत्ता से अपदस्थ होने के बाद आईएसआईएस का फिर से उदय हो सकता है, जो कि भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का विषय बन सकता है। क्योंकि इस बात की संभावना जताई जा रही है कि यह संगठन फिर से इराक में अपनी जड़े जमा सकता है। अमेरिका ने भी रविवार को ऐसी चिंता जाहिर की थी।

विद्रोहियों को तुर्की का समर्थन

सीरिया में विद्रोही गुट एचटीएस को तुर्की को समर्थन प्राप्त है। दरअसल, बशर अल-असद को रूस और ईरान का समर्थन प्राप्त था। वहीं विद्रोही गुट को तुर्की का समर्थन था। साल 2011 से जब से यह विद्रोह शुरू हुआ तब से रूस और ईरान की सहायता से असद ने विद्रोही गुटों को रोक रखा था।

 

पिछले करीब दो साल से तुर्की ने कई मुद्दों पर भारत का विरोध किया है, चाहे वह इंडिया मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरीडोर (IMEEC) का मुद्दा रहा हो या कि कश्मीर का मुद्दा।

 

कश्मीर के मुद्दे पर तुर्की पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा है। 2019 में अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर तुर्की ने कहा था कि पिछले सात दशकों से दुनिया ने इस मु्द्दे की तरफ उतना गौर नहीं किया जितना करना चाहिए था। हालांकि, हाल-फिलहाल में तुर्की ने भारत के खिलाफ थोड़ी नरमी दिखाई है लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि आगे भारत को विरोध नहीं देखना पड़ेगा।


इसके अलावा पाकिस्तान के साथ तुर्की के सैन्य संबंध हैं जिसके तहत अंकारा पाकिस्तान के हथियारों के आधुनिकीकरण के लिए सहायता पहुंचाता है। यह भी भारत के लिए चिंता का विषय बन सकता है।

 

इसी तरह से तुर्की ने इंडिया मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरीडोर का भी विरोध किया था जो कि उसके सहयोग के बिना संभव नहीं हो पाएगा। इस कॉरीडोर से सबसे ज्यादा फायदा भारत और ग्रीस को होने वाला था। ग्रीस ने कश्मीर मु्द्दे पर भारत का हमेशा साथ दिया है और तुर्की के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं हैं।

भारत-विरोधी तत्वों के साथ गुटबंदी

मौजूदा विद्रोही गुट भारत-विरोधी गुटों के साथ समझौता कर सकता है। इसका फिलहाल सबसे बड़ा उदाहण बांग्लादेश है। जब तक शेख हसीना सत्ता पर काबिज़ थीं तब तक भारत के साथ बांग्लादेश के साथ काफी अच्छे संबंध थे लेकिन कट्टरपंथी सरकार के आते ही भारत के साथ संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं।

 

बांग्लादेश इस वक्त पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है। अब सीरिया में सत्ता पर काबिज विद्रोही गुट और तुर्की भी उनके साथ मिलकर भारत की मुश्किलें बढ़ा सकते हैं।

व्यापारिक हितों को नुकसान

भारत ने सीरिया के ऑयल सेक्टर में काफी निवेश कर रखा है। सीरिया के ब्लॉक-24 में ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ओवीएल) का निवेश है। ओवीएल ने चीन की चायना नेशनल पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन (सीएनपीसी) के साथ मिलकर अल फुरात पेट्रोलियम कंपनी (एएफपीसी) में निवेश किया है।

 

भारत सीरिया से रोज़ाना एक लाख से डेढ़ लाख बैरल तेल खरीदता है जो कि सालाना 2 से 3 बिलियन डॉलर की कीमत का होता है। भारत ने सीरिया की रिफायनरी को अपग्रेड करने के लिए टेक्नॉलजी और आर्थिक सहायता भी दी है।

 

इसके अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के लिए भारत ने सीरिया में निवेश किया है। अब असद के सत्ता से अपदस्थ होने के बाद भारत के लिए इन क्षेत्रों में भी नुकसान की संभावना बनी हुई है।

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