इतना ताकतवर कैसे बना अमेरिका, जिसकी सत्ता संभालने जा रहे ट्रंप?
कई सदियों पहले तक अमेरिका गुलाम हुआ करता था लेकिन आज दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क है। इतना ताकतवर कि पूरी दुनिया को बदल देने का दम रखता है। ट्रंप आज इसी अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जा रहे हैं।

डोनाल्ड ट्रंप। (File Photo)
1492 की 3 अगस्त को इटली का नौजवान क्रिस्टोफर कोलंबस बड़े-बड़े जहाजों को लेकर निकला। उसका मकसद था- भारत की खोज। भारत तो नहीं खोज पाया लेकिन उसने अमेरिका को ढूंढ लिया। अमेरिका के स्थानीय आदिवासियों को भारतीय समझकर ही उसने उन्हें 'रेड इंडियंस' नाम दिया। कोलंबस को पता नहीं था कि उसने जिसे खोजा है, वो भारत नहीं बल्कि अमेरिका है। कोलंबस को मरते दम तक इस बात का पता नहीं चला कि उसने भारत समझकर जिस मुल्क की खोज की है, वो आगे चलकर दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनने वाला है।
कोलंबस ने जिसे ढूंढ निकाला था, वो वही अमेरिका था जिसने सबसे पहले लोकतंत्र को अपनाया। वो वही अमेरिका था, जिसने आगे चलकर सबसे पहले परमाणु बम का इस्तेमाल किया और जापान को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। ये वही अमेरिका था, जिसकी करंसी डॉलर आगे चलकर दुनिया की सबसे ताकतवर करंसी बनी। ये वही अमेरिका था, जिसकी हरेक बात दुनिया को माननी पड़ती थी।
अब इसी अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जा रहे हैं। ट्रंप दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बनेंगे। अमेरिकी इतिहास में 132 साल बाद ये पहला मौका है जब किसी राष्ट्रपति ने कमबैक किया है। ट्रंप से पहले 1893 में ग्रोवर क्लीवलैंड ने एक चुनाव हारने के बाद दूसरा चुनाव जीतकर व्हाइट हाउस में वापसी की थी। अब ट्रंप जब दूसरी बार दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं तो ऐसे में जानते हैं कि आखिर ऐसी कौनसी चीजें हैं जिसने अमेरिका को इतना ताकतवर बना दिया?
वर्ल्ड वॉर ने बदला पावर बैलेंस!
20वीं सदी अपने साथ क्रांति, युद्ध और महामारी लेकर आई। कई मुल्कों में गृहयुद्ध के हालात बने तो कइयों के बीच तनातनी बनी रही। यही तनातनी बाद में पहले विश्व युद्ध का कारण बनी। 1914 में ऑस्ट्रिया और हंगरी की जंग बाद में विश्व युद्ध में तब्दील हो गई। बाद में अमेरिका भी इसमें कूद पड़ा। 1919 में जर्मनी ने हथियार डाल दिए और इस तरह पहला विश्व युद्ध खत्म हो गया।
इस युद्ध ने दुनिया में पावर बैलेंस बदल दिया। अब तक यूरोपीय देशों का दबदबा हुआ करता था। पहले विश्व युद्ध ने यूरोप को तबाह कर दिया। इसने अमेरिका के 'सुपरपावर' बनने बनने का रास्ता खोल दिया। अमेरिका ने उन सभी मार्केट पर दबदबा बनाना शुरू कर दिया, जहां कभी यूरोप हुआ करता था। नतीजा ये हुआ कि लगभग चार साल अमेरिका का शेयर बाजार बुलंदिया छूता रहा।
दुनिया बदल रही थी। पावर बैलेंस बदल रहा था। इसी बदलते पावर बैलेंस ने एक बार फिर दुनिया को एक विश्व युद्ध की ओर धकेल दिया। हिटलर की सेना कई देशों को कब्जाने लगी। हिटलर को रोकने के लिए फिर कुछ देश साथ आए। लगभग 5 साल बाद हिटलर की सेना ने तो सरेंडर कर दिया लेकिन जापान था कि मानने को तैयार नहीं था। सोवियत संघ से लेकर ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों की सेना भी जापान को नहीं झुका सकी। तब दुनिया ने अमेरिका की ताकत देखी, जब उसने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम से हमला कर दिया। ये पहली और अब तक के इतिहास में आखिरी बार था जब दुनिया ने परमाणु बम की ताकत देखी थी।
परमाणु बम के बाद डॉलर बना हथियार
अगस्त 1945 में अमेरिका ने परमाणु बम गिराए थे, लेकिन इससे एक साल पहले ऐसा कुछ हुआ था जो डॉलर को 'हथियार' बनाने की एक शुरुआत थी।
ये वो वक्त था जब विश्व युद्ध के कारण दुनियाभर की अर्थव्यस्था बदहाल होती जा रही थी। तब 1944 में अमेरिका के न्यू हैम्पशायर में 44 देशों का एक सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में एक अहम चीज हुई, जिसे 'ब्रेटन वुड्स समझौता' कहा जाता है। इस समझौते ने अमेरिकी डॉलर को 'ग्लोबल करंसी' के तौर पर मान्यता दी। तय हुआ कि अब से अमेरिकी डॉलर में ही कारोबार होगा। सारे देशों की करंसी एक्सचेंज रेट भी डॉलर से ही तय होंगे। उससे पहले तक सोने में कारोबार हुआ करता था।
सवाल उठता है कि अमेरिकी डॉलर ही क्यों? वो इसलिए क्योंकि तब अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोना था। आज डॉलर दुनिया की सबसे ताकतवर करंसी है। दुनिया का 90 फीसदी कारोबार डॉलर में होता है। 40 फीसदी कर्ज डॉलर में ही दिए जाते हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत
दुनिया के बाकी देशों की तरह ही अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी कभी खेती पर ही निर्भर थी। अमेरिका में जब ब्रिटेन का राज था, तो उन्होंने यहां बड़े-बड़े कारखाने बनाए और इस तरह से 'मेड इन अमेरिका' सामान दुनियाभर में पहुंचने लगा। इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ने लगी। शहरीकरण भी बढ़ा।
1920 आते-आते अमेरिका दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। लेकिन 1930 की महामंदी ने बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। अमेरिका पर भी इसका असर दिखा। ऐसे में अमेरिका ने टैक्स में कटौती की, ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा खर्च करें। नतीजा ये हुआ कि अमेरिका जल्द ही इस महामंदी से उबर गया।
हालांकि, 21वीं सदी की शुरुआत अमेरिका के लिए कुछ अच्छी नहीं रही। 2008 में एक बार फिर मंदी ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई। दशकों बाद ये पहली बार था जब अमेरिका की जीडीपी में गिरावट आई। 40 साल में सिर्फ दो बार ही ऐसा हुआ है, जब अमेरिका की अर्थव्यवस्था में गिरावट आई है। पहली बार 2009 में और फिर 2020 में। 2020 में कोविड के कारण अमेरिका की अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज की गई थी।
हालांकि, कुछ सालों से अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट 3 फीसदी से नीचे ही रही है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के मुताबिक, 2021 में अमेरिका की जीडीपी ग्रोथ रेट 6.1 फीसदी रही थी। इसके बाद 2022 में 2.5 फीसदी, 2023 में 2.9 फीसदी और 2.8 फीसदी थी। 2025 में जीडीपी ग्रोथ रेट 2.2 फीसदी रहने का अनुमान है।
इतनी बड़ी आर्थिक ताकत कैसे बना?
अमेरिका को अगर 'मनीलैंड' कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दुनिया की हर दूसरी बड़ी कंपनी अमेरिका में है। अमेरिका में लगभग साढ़े 3 करोड़ से ज्यादा छोटी-छोटी बिजनेस कंपनियां हैं, जिनमें 6 करोड़ से ज्यादा अमेरिकी काम करते हैं।
फोर्ब्स हर साल दुनिया की 2000 सबसे ताकतवर कंपनियों की लिस्ट जारी करता है। फोर्ब्स कंपनियों की सेल्स, प्रॉफिट, संपत्तियां और मार्केट वैल्यू के आधार पर रैंकिंग तय करती है। 2024 की 2000 सबसे ताकतवर कंपनियों में से 621 अमेरिका में थीं। यानी, दुनिया की 2 हजार सबसे ताकतवर कंपनियों में हर तीसरी कंपनी अमेरिका में थी। टॉप-20 कंपनियों में से 11 अमेरिकी कंपनी हैं। पहले नंबर पर जेपी मॉर्गन है, जिसके पास 4 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की संपत्ति है। दूसरे नंबर पर भी अमेरिका की ही बर्कशायर हैथवे है, जिसकी कुल संपत्ति 1 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा है।
इतना ही नहीं, दुनिया में सबसे ज्यादा अरबपति भी अमेरिका में ही हैं। फोर्ब्स के मुताबिक, 2024 तक दुनियाभर में 2,781 लोग ऐसे थे, जिनकी नेटवर्थ 1 अरब डॉलर या उससे ज्यादा थी। इनमें से 813 अरबपति अमेरिका से हैं। इनकी कुल नेटवर्थ 5.7 ट्रिलियन डॉलर से भी कहीं ज्यादा है। दुनिया के 10 सबसे रईसों में 8 अमेरिकी ही हैं। पहले नंबर पर फ्रांस के बर्नार्ड अरनॉल्ट है, जिनकी कुल नेटवर्थ 233 अरब डॉलर है। दूसरे नंबर पर एलन मस्क हैं, जिनकी नेटवर्थ 195 अरब डॉलर है। जबकि, तीसरे नंबर पर 194 अरब डॉलर की नेटवर्थ के साथ जेफ बेजोस हैं।
अमेरिका आज शायद इसलिए सबसे आगे है, क्योंकि वहां टैलेंट की कद्र होती है। अल्बर्ट आइंस्टिन जर्मनी के थे, लेकिन उन्हें पहचान तब मिली जब वो अमेरिका पहुंचे। एलन मस्क दक्षिण अफ्रीका के हैं, लेकिन आज दुनिया के दूसरे सबसे रईस शख्स हैं। अब तो एलन मस्क ट्रंप सरकार में भी शामिल हो गए हैं। रूपर्ट मर्डोक भी ऑस्ट्रेलिया के रहने वाले हैं और आज दुनिया उन्हें मीडिया मुगल के नाम से जानती है। रूपर्ट मर्डोक अरबपतियों की लिस्ट में 100वें नंबर पर हैं।
अमेरिका में नागरिकता से ज्यादा टैलेंट पर भरोसा किया जा सकता है। शायद यही वजह है कि सत्या नडेला, सुंदर पिचई और इंद्रा नूयी जैसे भारतीय आज अमेरिकी कंपनियों की कमान संभाल रहे हैं।
बाहुबली है अमेरिकी सेना
दुनिया की सबसे बड़ी सेना अमेरिका के पास ही है। जून 2024 तक अमेरिका की सेना में 11.28 लाख जवान सक्रिय थे। इनमें 3.92 लाख जवान आर्मी में, 2.86 लाख जवान नेवी में और 2.57 लाख जवान एयरफोर्स में थे। इनके अलावा 1.44 लाख से ज्यादा जवान मरीन कॉर्प्स में हैं। अमेरिकी सेना में 7.37 लाख जवान रिजर्व हैं। इसके अलावा, दुनिया के कई देशों में 1.65 लाख से ज्यादा अमेरिकी सैनिक तैनात हैं।
अमेरिका अपनी सैन्य ताकत पर सबसे ज्यादा खर्च करता है। 2024 में अमेरिकी सरकार ने अपनी सेना पर 850 अरब डॉलर खर्च किया था। भारतीय करंसी में ये रकम लगभग 73 लाख करोड़ रुपये होती है। जबकि, भारत का रक्षा बजट 6.21 लाख करोड़ रुपये है। यानी, भारत की तुलना में अमेरिका अपनी सेना पर 12 गुना ज्यादा खर्च करता है।
सिर्फ अमेरिका की सेना ही बाहुबली नहीं है, बल्कि अमेरिकी हथियारों की भी दुनिया में सबसे ज्यादा पूछपरख है। 2023 में अमेरिका ने 238 अरब डॉलर से ज्यादा के हथियार बेचे थे। 2022 की तुलना में ये 16 फीसदी ज्यादा था। SIPRI की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर अमेरिका ही है।
दुनिया में अमेरिका दूसरा ऐसा देश है, जिसके पास सबसे ज्यादा परमाणु हथियार हैं। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में 12 हजार से ज्यादा परमाणु हथियार हैं। इनमें 90 फीसदी हथियार रूस और अमेरिका के पास हैं। रूस के पास 5,580 हथियार हैं। जबकि, अमेरिका के पास 5,044 परमाणु हथियार हैं।
अमेरिका की एक और ताकत 'प्रतिबंध'
वैसे तो कोई भी देश चाहे तो दूसरे देश पर प्रतिबंध लगा सकता है। लेकिन अमेरिका जब किसी पर प्रतिबंध लगाता है तो पूरी दुनिया को उसकी सुननी पड़ती है। मगर ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि दुनिया के ज्यादातर बड़े देश अमेरिका पर काफी हद तक निर्भर हैं। अमेरिका के साथ कारोबार करते हैं।
एक वजह ये भी है कि सऊदी अरब, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की अमेरिका से पक्की दोस्ती है। यहां तेल का काफी उत्पादन होता है। दुनिया के कई देश अपनी तेल जरूरतों के लिए इनपर निर्भर है। इसलिए अमेरिका जब किसी पर प्रतिबंध लगाता है तो अपनी तेल जरूरतों के कारण दूसरे देशों को भी उसे मानना पड़ता है।
तीसरी वजह है वर्ल्ड बैंक और IMF जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर अमेरिका का दबदबा। दुनिया के ज्यादातर देशों को कर्ज वर्ल्ड बैंक और IMF से ही मिलता है। एक वजह NATO भी है। NATO एक सैन्य संगठन है, जिसमें करीब 30 देश शामिल हैं। NATO को सबसे ज्यादा पैसा अमेरिका ही देता है। NATO के सदस्य देशों में अमेरिकी सैनिक तैनात हैं।
और इन सबमें सबसे बड़ा हथियार 'डॉलर' है। अगर अमेरिका चाहे तो किसी भी देश को डॉलर में कारोबार करने से रोक सकता है। अगर अमेरिका किसी देश पर प्रतिबंध लगाता है तो वो बाकी देशों को उसके साथ डॉलर से कारोबार करने से मना कर सकता है। अगर फिर भी कोई देश ऐसा करता है तो अमेरिका उस पर भी प्रतिबंध लगा सकता है।
अमेरिका के सबसे ताकतवर आर्थिक प्रतिबंधों में से एक है SWIFT बैन। 200 देशों में 11 हजार से संस्थाएं इसका इस्तेमाल करती हैं। विदेशी बैंक SWIFT के जरिए ही कारोबार करती हैं। 2022 में यूक्रेन से जंग शुरू होने के बाद अमेरिका ने रूस को SWIFT सिस्टम से बाहर कर दिया था।
जिसे चाहा, उसे हटा दिया...
दो साल पहले बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा था, 'अमेरिका चाहे तो किसी भी देश की सरकार का तख्तापलट कर सकता है।' पिछली मई में शेख हसीना ने इशारों-इशारों में कहा था कि अमेरिका उनकी सरकार का तख्तापलट करना चाहता है।
अगस्त में हसीना सरकार का तख्तापलट हो गया था। हसीना सरकार के तख्तापलट के पीछे अमेरिका को ही जिम्मेदार माना गया। उसकी वजह ये थी कि हसीना के जाने के बाद अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद युनूस बने। मोहम्मद युनूस को अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी का करीबी माना जाता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन से उनके अच्छे संबंध रहे हैं।
अमेरिका पर तख्तापलट करने का इल्जाम लगना कोई नई बात नहीं है। अपनी पसंद के चेहरे को बैठाना अमेरिका की फितरत में शामिल रहा है। दूसरे विश्व यद्ध के बाद जब अमेरिका और सोवियत संघ (अब रूस) के बीच कोल्ड वॉर शुरू हुआ तो कई देशों में चुनी हुई सरकारों का तख्तापलट किया गया। अमेरिका ने धीरे-धीरे उन देशों की सरकारों को हटाना शुरू कर दिया, जिनकी नजदीकियां सोवियत संघ से थीं।
2016 में वॉशिंगटन पोस्ट ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि कोल्ड वॉर के दौरान अमेरिका ने कम से कम 72 देशों में तख्तापलट करने की कोशिश की थी।
2007 में अमेरिकी लेखक स्टीफन किंजर ने अपनी किताब 'Overthrow: America’s Century of Regime Change from Hawaii to Iraq' में बताया था कि चुनी हुई सरकारों को गिराना और तख्तापलट करना अमेरिका की विदेश नीति का अहम हिस्सा रहा है। इस किताब में किंजर लिखते हैं, 'अमेरिका ने उन सरकारों को उखाड़ फेंकने में जरा भी संकोच नहीं किया जो उसके राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों के रास्ते में खड़ी थीं।'
अप्रैल 2022 में जब पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार गिरी थी, तब भी अमेरिका पर ही इल्जाम लगा था। अगस्त 2023 में एक लीक डॉक्यूमेंट में खुलासा हुआ था कि अमेरिका ने इमरान खान को सत्ता से बेदखल करने के लिए पाकिस्तानी राजदूत से बात की थी। इमरान खान ने भी आरोप लगाया था कि उनकी सरकार गिराने में अमेरिका का हाथ था।
बहरहाल, डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी को दोबारी इसी अमेरिका की सत्ता संभालने जा रहे हैं, जो दुनिया में कुछ भी कर दिखाने का दम रखता है। हालांकि, रूस-यूक्रेन जंग, मिडिल ईस्ट में संघर्ष और चीन की विस्तारवादी नीति ने दुनिया को फिर से उस मोड़ पर लाकर खड़ा दिया है जहां ताकत के दो बिंदु बन गए हैं। एक और अमेरिका समर्थक हैं तो दूसरी अमेरिका विरोधी। ऐसे में ट्रंप जब 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' के वादे के साथ सत्ता में आए हैं तो उनके पास अमेरिका को फिर से दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बनाने का जिम्मा है।
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